ट्रैवल ग्रांट

जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं, जब कुछ ऐसा घट जाता है, जिसकी कोई संभावना दूर तक देखने में नहीं आती है। और शायद ऐसा बहुतों के जीवन में घटता होगा। मेरे जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएँ हैं, जिनका अजीब सा पूर्वाभास मुझे होने लगता था, यह अच्छा भी होता है और बुरा भी, लेकिन मुझे लगने लगता है कि कुछ घटनेवाला है। मुझे सँभलना चाहिए। वहाँ नहीं जाना चाहिए, लेकिन परिस्थिति ऐसी बनती है कि मैं वहाँ पहुँच ही जाता हूँ और कुछ ऐसा घट जाता है, जो एकदम वैसा ही होता है, जिसका पूर्वाभास मुझे होता है।

सन् १९९७ की एक घटना मुझे याद आ रही है। अमेरिका की न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के ओसवीगो कैंपस में एक हिंदी अधिवेशन में व्याख्यान देने का मुझे निमंत्रण मिला था। मैंने अपना पेपर भेज दिया, यह जानते हुए भी कि जब वे यात्रा-व्यय नहीं देंगे तो मैं जाऊँगा कैसे? लेकिन आयोजकों को मन में यह न रहे कि उन्होंने मुझे निमंत्रित किया है और मैंने उसका प्रत्युत्तर भी नहीं दिया। साथ ही जिस विषय पर वे मेरा व्याख्यान चाहते थे, वह मेरे पास तैयार था। फलतः जल्दी ही आयोजकों की स्वीकृति का पत्र भी आ गया तथा यात्रा-व्यय से इतर स्थानीय आतिथ्य की व्यवस्था की स्वीकृति भी उन्होंने दे दी।

मेरे मन में कुछ उत्साह जगा कि यात्रा पर निकला जाए, साथ ही ऐसा भाव भी था कि अभी पिछले वर्ष ही पंचम विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के समय ट्रिनीडाड आते-आते अमेरिका के कई प्रदेशों की यात्रा भी की थी। तो इतना पैसा खर्च करना फिजूलखर्ची ही है। समस्या सिर्फ यात्रा-व्यय की ही नहीं होती। जब इतनी दूर जाए कोई तो मन करता है कि आसपास की यात्रा भी की जाए। मित्रों के ढेर सारे निमंत्रण हाथ में थे।

बहरहाल मैंने दृढ़ निश्चय किया कि इस बार की यह यात्रा मैं स्थगित ही करूँगा, एक-दो वर्ष बाद फिर जाऊँगा। मेरे साथ एक दिक्कत यह भी है कि यदि मैं अमेरिका की यात्रा पर निकलता हूँ तो फिर ट्रिनीडाड जाए बिना मुझे वह यात्रा एकदम अधूरी लगती है। ट्रिनीडाड में बिताए चार वर्षों की याद और अनुभव कुछ ऐसे हैं कि मैं जब भी अमेरिका तक गया तो फिर में ट्रिनीडाड भी अवश्य ही गया। इस तरह अपने राजनयिक कार्यकाल (१९८८-१९९२) के समाप्त हो जाने के बाद पिछले २९ वर्षों में मैंने सात बार ट्रिनीडाड की यात्रा की है। आज भी वहाँ के मित्रों का इतना प्रेममय आग्रह है कि मैं इतने समय से उनसे मिलने क्यों नहीं आया हूँ।

मैं शायद अपनी मूल बात से भटक गया हूँ। फिर वापस लौटता हूँ। तो मैंने निश्चय किया कि मैं इस अधिवेशन में भाग लेने अमेरिका नहीं जाऊँगा और निश्चिंत होकर अपने काम-धाम में लग गया। दिल्ली यूनिवर्सिटी, जहाँ के हिंदू कॉलेज में पढ़ाता था, वह खुली हुई थी। कक्षाएँ जारी थीं। ऐसे ही कुछ सप्ताह गुजर गए। और अमेरिका जाने की बात भी मन से उतर गई।

तभी एक दिन मैं अपने एक अभिन्न मित्र से मिलने साकेत गया था। कुछ अच्छी गपशप के बाद लगभग दो-तीन बजे मैं अपने मित्र के घर से अपने घर, यानी हिंदू कॉलेज कैंपस स्थित आवास की ओर लौट पड़ा। बीस-तीस मिनट के बाद मैंने इंडिया गेट का चक्कर मारकर सुप्रीम कोर्ट की ओर आई.टी.ओ. की ओर जाने के लिए अपनी कार घुमा दी। इंडिया गेट से सुप्रीम कोर्ट की ओर आते हुए भगवान दास रोड की लाल बत्ती पर मैंने कार रोकी और बत्ती के हरी हो जाने का इंतजार करने लगा। तभी अचानक मन में एक आवाज उठी, तुमने यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन से तो कभी भी ट्रैवल ग्रांट नहीं माँगी है। उसे क्यों नहीं ट्राई करते?

मेरे मन ने कहा कि हाँ, यह तो मैंने कभी नहीं सोचा कि हम जैसे यूनिवर्सिटी में पढ़ानेवाले प्राध्यापकों को यू.जी.सी. कॉन्फ्रेंसों में जाने के लिए ५०प्रतिशत ट्रैवल ग्रांट देती है। मैंने तो कभी इसके लिए आवेदन भी नहीं किया था और सच तो यह है कि मुझे यह भी नहीं पता था कि उसके लिए आवेदन कैसे किया जाता है।

तब तक बत्ती लाल से हरी हो गई और मैं आगे बढ़ गया। इसके बाद प्रगति मैदान की बत्ती भी लाल मिली। मैं फिर रुक गया। मन ने कहा कि अगले मोड़ से गाड़ी को सीधे हाथ लेकर मैं यू.जी.सी. के दफ्तर जा सकता हूँ। पता करना चाहिए कि यह ग्रांट कैसे मिलती है।

बत्ती हरी हुई, मैं आगे बढ़ा, मन ने कहा—छोड़ो यार! तुम्हें कौन जानता है, जो ग्रांट देगा। बेकार में एक घंटा खराब हो जाएगा। घर ही निकलते हैं। आई.टी.ओ. के चौराहे की बत्ती जरा लंबी होती है। अतः मुझे फिर वहाँ रुकना पड़ा। मन में आया भाव तिरोभूत होने लगा और जल्दी घर पहुँचने की बात मन में आ गई।

हरी बत्ती होने के बाद मैं आगे बढ़ गया। अब मैं बहादुरशाह जफर मार्ग पर था और टाइम्स आॅफ इंडिया की बिल्डिंग को क्रॉस करते-करते किसी अदृश्य शक्ति ने मुझसे कहा कि यू.जी.सी. जाने में हर्ज ही क्या है। अभी भी अवसर है। अंतरराष्ट्रीय पोस्ट ऑफिस की गली में मोड़ लो गाड़ी तो यू.जी.सी. आ जाएगा। मैंने पीछे देखते हुए एकदम गाड़ी को दाहिने किया और बालभवन जानेवाली सड़क पर पहुँच गया। एक मन कह रहा था कि आगे जाकर लेफ्ट ले लो तो फिर घूमकर यू.जी.सी. बिल्डिंग के सामने पहुँच जाओगे और दूसरा मन कह रहा था कि क्या बेकार के पचड़े में पड़ रहे हो।

बहरहाल अवश भाव से गाड़ी यू.जी.सी. की तरफ बढ़ती जा रही थी और अब मैं यू.जी.सी. के भवन के सामने खड़ा था। गाड़ी पार्क की और यू.जी.सी. के रिसेप्शन पर जाकर पूछा कि ट्रैवल ग्रांट के लिए आवेदन फॉर्म कहाँ मिलेंगे? रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि चौथी मंजिल पर श्री चरणदास मिलेंगे। कमरा नंबर अब याद नहीं। लिफ्ट से उतरकर किसी से पूछा, ‘श्री चरणदासजी कहाँ बैठते हैं?’ उसने कॉरिडोर के आखिरी कमरे की ओर इशारा कर दिया। मैं दरवाजा ढेलकर अंदर पहुँचा और अपनी दाहिनी ओर की मेज पर बैठे एक सज्जन से पूछा, ‘मुझे श्री चरणदासजी मिलना है?’ उन्होंने सामने की कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘बैठिए, मैं ही चरणदास हूँ। कहिए!’

मैं अभी तक एक यंत्र-चालित गति से आगे बढ़ता चला आया था। यह सब कैसे हो रहा है, मुझे नहीं मालूम। मैं वहाँ बैठ गया और अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मैं ट्रैवल ग्रांट के लिए आवेदन करना चाहता हूँ और मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता हूँ। कृपया मुझे बताएँ और यदि कोई आवेदन-पत्रक हो तो देने की कृपा करें।’

चरणदासजी ने मेज का दराज खोलकर एक तीन-चार पेज का फॉर्म निकाला और मुझे देते हुए तीन-चार सवाल किए—

- आपने पहले कभी ग्रांट ली है?

- नहीं।

- आपकी कॉन्फ्रेंस कब है?

मैंने कहा कि लगभग दस दिन बाद है।

चरणदास बोले, ‘डॉ. साहेब, तब तो क्षमा करें। अब मीटिंग तो अगले तीन महीने बाद ही होगी। तब तक आपकी कॉन्फ्रेंस की तारीख निकल चुकी होगी।’

मैं उठ खड़ा हुआ और आवेदन-पत्रक वापस देते हुए बोला, ‘धन्यवाद, चरणदासजी। फिर कभी ऐसा मौका आएगा तो समय रहते आपके पास आऊँगा।’ ऐसा कहकर मैं चलने को मुड़ा ही था कि चरणदास ने मुझसे पूछा, ‘क्या पेपर की स्वीकृति का पत्र आपके पास आ चुका है।’

मैंने कहा, ‘हाँ, वह तो कई महीने पहले आ चुका था, लेकिन वित्तीय संकट के चलते मैंने बहुत ध्यान नहीं दिया था।’

तब चरणदास ने कहा, ‘क्या आप कल सुबह दस बजे तक अपना आवेदन फॉर्म, अपना स्वीकृति-पत्र तथा पेपर की फोटोकॉपी मुझे दे सकते हैं। और हाँ, आपके आवेदन-पत्र पर आपके प्रधानाचार्य के हस्ताक्षर मोहर के साथ होने चाहिए।’

मैंने आश्चर्य से कहा, ‘हाँ, शायद मैं आपको कल सुबह तक आवेदन-पत्र आदि दे सकता हूँ। लेकिन इतनी जल्दी क्यों?’

चरणदास ने हल्की सी मुसकान के साथ कहा, ‘डॉ. साहब, बात यह है कि कल सुबह ११:०० बजे इधर तीन महीने तक के जमा आवेदन-पत्रों पर निर्णय हेतु बैठक होनेवाली है। मैं आपकी इतनी सहायता कर सकता हूँ कि यदि सारे कागज आप मुझे सुबह दस बजे तक दे दें तो इसी बैठक के आवेदनों में प्रस्तुत कर दूँगा। आगे आपका भाग्य।’

मैं कुछ क्षण अवाक् सा चरणदास को देखता रहा। कुछ क्षण पहले ही जो आवेदन-पत्रक मैंने लौटाया था, उसे लेकर धन्यवाद कहता हुआ मैं लिफ्ट से नीचे उतरने लगा। मैं सोच रहा था कि यह सब क्या और कैसे हो रहा है।

तभी मुझे ध्यान आया कि प्रिंसिपल का दफ्तर तो कल सुबह दस बजे खुलेगा। मोहर लगवाकर हस्ताक्षर करने में ही जब दस कॉलेज में ही बज जाएँगे तो आवेदन यहाँ कैसे दूँगा। घड़ी में समय देखा। ४:३० बजने में कुछ समय बाकी था। मैंने सोचा कि अपने प्रिंसिपल से बात की जाए कि वे कैसे मेरी मदद कर सकते हैं।

लेकिन यहाँ फोन कहाँ से करूँ? वह जमाना मोबाइल फोन का जमाना नहीं था। तभी मुझे ध्यान आया कि पास में ही स्थित ‘मानक भवन’ में मेरे एक मित्र डायरेक्टर के पद पर काम करते हैं। मैं मानक भवन की ओर भागा और उनके दफ्तर में जाकर ही दम लिया। मेरे मित्र मुझे अचानक आया देखकर आश्चर्यचकित थे।

मैंने कहा, ‘मुझे एक जरूरी फोन करना है। फिर बात करूँगा।’ उन्होंने फोन मेरे आगे सरका दिया। मैंने कॉलेज फोन लगाया।

उन दिनों हमारे कार्यकारी प्रिंसिपल डॉ. साराभाई थे। वे हमारे कॉलेज में केमिस्ट्री पढ़ाते थे, वरिष्ठतम थे। साथ ही निहायत विनम्र और सहायता करनेवाले व्यक्ति थे। फोन के उठते ही मैंने नमस्कार करके पूछा, ‘सर, आप अभी कितनी देर तक ऑफिस में रहेंगे।’

वे हँसते हुए बोले, ‘अरे! पाँच बजनेवाले हैं और कब तक बैठाओगे। लेकिन क्या बात है?’ तब मैंने अपनी सारी समस्या बताई तो वे हँस पड़े और बोले, ‘बस इतनी सी बात है। मैं अपनी मोहर लेकर घर चला जाऊँगा। तुम शाम को कभी भी आ जाना।’

मैंने तसल्ली की लंबी साँस ली। उम्मीद बनी कि अब शायद कल सुबह तक अपना आवेदन-पत्र दे सकूँगा।

मेरे मित्र ने तब तक चाय मँगा ली थी। मैंने चाय पीते हुए सारी कहानी सुना दी। वह भी विस्मित था कि सुप्रीम कोर्ट के चौराहे से लेकर यू.जी.सी. तक पहुँचने का यह क्रम कैसे अनायास बन गया है।

मैं घर पहुँचा। सारे कागज तैयार किए। आवेदन-पत्र भरा। अपने शोध-पत्र, स्वीकृति-पत्र, बायोडाटा की कॉपी लगाई और साराभाईजी के घर की ओर चल पड़ा। यहाँ यह भी बता दूँ कि मैं हिंदू कॉलेज के आवासीय परिसर में उनके पड़ोस में ही कुछ दूरी पर रहता था।

साराभाई साहब ने प्रेम से बैठाया और मोहर निकालकर बोले, ‘कहाँ हस्ताक्षर करने हैं?’ मैंने नियत स्थान की ओर संकेत किया और मेरा आवेदन-पत्र प्रिंसिपल के अनापत्ति प्रमाण-पत्र के साथ पूरी तरह से तैयार हो गया।

यह सब करते-कराते रात के लगभग ८ बज गए थे। घर आकर तसल्ली से खाना खाकर बैठा। तब तक घर में किसी को नहीं मालूम था कि मैं किस गोरखधंधे में फँसा हुआ हूँ। पत्नी मधूलिका यह कहती ही रह गई थी कि चाय-नाश्ते में क्या लीजिएगा। और मैं यह कहकर घर से निकल गया था कि अभी आता हूँ। भोजन करते हुए मैंने पूरी कहानी सुना दी। तो वह बोली, ‘आपके साथ यह सब क्या होता रहता है।’ मैंने मुसकराकर ऊपर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘यह तो वही जाने।’

बहरहाल मैंने सारे कागज एक फाइल में रखे। कार में पेट्रोल आदि चेक कर लिया, ताकि सुबह सीधे यू.जी.सी. जा सकूँ। और सोने चला गया।

अगले दिन सुबह ठीक दस बजे यू.जी.सी. पहुँचकर मैंने चरणदासजी के हाथ में अपने आवेदन-पत्र का फोल्डर थमा दिया।

चरणदास ने बड़ी प्रसन्नता से एक बात कही, ‘सर, मैं नहीं जानता क्या होगा, लेकिन आज तक के इतिहास में मैंने १७-१८ घंटे में किसी का भी आवेदन लेकर मीटिंग में प्रस्तुत नहीं किया है। मैं इसे अभी आज की मीटिंग की कार्यसूची में शामिल करके भेज देता हूँ। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।’ मैंने चरणदासजी को उनकी सदाशयता के लिए धन्यवाद कहा और निश्चिंत भाव से घर लौट आया। फिर कॉलेज में कक्षाएँ लेने के लिए चला गया। शाम तक यह भूल ही गया कि पिछला दिन और आज की सुबह किस तरह भागम-भाग भरी हो गई थी। मैं अपने कामधाम में लग गया। रात को मैं सपरिवार अपने पैतृक घर विवेक विहार गया और कुछ देर से घर लौटकर हम सभी लगभग ११ बजे तक सो गए।

मैं बेहद गहरी नींद में सो रहा था कि अचानक लगा कि कहीं फोन की घंटी बज रही है। चूँकि फोन बाहर ड्राइंग रूम में रखा होता था तो एक बारगी नींद की खुमारी में लगा कि मुझे वहम हुआ है कि फोन की घंटी बजी थी। तभी फोन फिर से बजने लगा। मैं उठकर ड्राइंग रूम में आया तो विश्वास हो गया कि मेरा ही फोन बज रहा है। आप तो समझ ही सकते हैं कि बेवक्त आया फोन कुछ भय भी पैदा करता है कि पता नहीं क्या समाचार होगा। ऐसी ही आशंका के साथ मैंने फोन उठाया और ‘हैलो’ कहा।

उधर से आवाज आई, ‘मैं गाजियाबाद से प्रो. सारिकवाल बोल रहा हूँ। कैसे हैं?’

मैंने थोड़ी चैन की साँस की ली और बोला, ‘अरे! आप और इस वक्त, सब खैरियत तो है?’ मैं उनसे परिचित था।

वे हँसने लगे और बोले, ‘प्रो. ऋतुपर्ण, मन नहीं मान रहा था तो सोचा कि तुम्हें बता ही दूँ कि तुम्हारी अमेरिका जाने के लिए ट्रैवल ग्रांट स्वीकृत हो गई है।’

मैं आश्चर्यचकित होकर बोला, ‘लेकिन आपको कैसे पता? मैं तो आज सुबह ही आवेदन देकर आया था। क्या आप उस कमेटी में थे?’

वे बोले, ‘अरे नहीं, मैं नहीं था। हमारे परममित्र डॉ. लालजी वहाँ संयुक्त सचिव हैं। वे प्रो. लक्ष्मन्ना और हमारे लँगोटिया यार हैं। वे तुम्हें सिर्फ नाम से ही जानते हैं, क्योंकि प्रो. लक्ष्मन्ना और हम लोग अकसर तुम्हारा नाम लिया करते थे कि हमारे एक मित्र दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं और वे ट्रिनीडाड में लक्ष्मन्ना के साथ एक डिप्लोमैट के रूप में भी कार्य कर चुके हैं। उन्होंने जब मीटिंग में तुम्हारी एप्लीकेशन देखी तो वे एकदम समझ गए कि यह ऋतुपर्ण कौन है। तुम्हारा भारी-भरकम बायोडाटा भी लगा ही था, बस तुम्हारी एप्लीकेशन स्वीकृत हो गई।’

मैंने कहा, ‘सारिकवाल साहिब, आभारी हूँ इस शुभ समाचार के लिए। लेकिन सुबह हो जाने देते। अब तो मैं पूरी रात सो भी नहीं सकूँगा।’

वे जोर से हँसे और बोले, ‘अरे मुझे डॉ. लालजी नहीं सोने दे रहे थे। बोले, तुमने सुरेश ऋतुपर्ण को समाचार दिया है या नहीं। तुम्हारा नंबर उनके पास नहीं था और न मेरे पास। मैंने फिर हैदराबाद फोन करके प्रो. लक्ष्मन्ना से तुम्हारा नंबर लिया और यह समाचार तुम्हें दिया है। हमारी सबकी बधाई लो और सिर ढककर सो जाओ।’

मैं अवाक् वहीं बैठा रह गया और सोचने लगा कि पिछले ३० घंटे में यह सारा घटनाक्रम कैसे घूम गया। मैं यू.जी.सी. नहीं जाना चाह रहा था, लेकिन कोई अदृश्य प्रेरणा मुझसे कह रही थी कि जाओ। मैं गया तो पता चला कि तीन महीने में निर्णय होगा तो आवेदन लौटा दिया। फिर किसी अदृश्य शक्ति ने अगली सुबह आवेदन देने की प्रेरणा दी। अगली सुबह १० बजे आवेदन दे दिया, यह सोचकर कि यह बड़ी असंभव सी बात है। मैं किसी को जानता भी नहीं था। अतः सबकुछ अनिश्चित था और अब रात को ही उसका निर्णय भी आ गया। और वह भी किस तरह दिल्ली हैदराबाद-गजियाबाद से घूमते-घामते आधी रात को आ पहुँचा।

आज इतने सालों बाद भी जब यह सब याद आता है तो रोमांचित हो जाता हूँ। मेरे प्रारब्ध में क्या लिखा है। मैं नहीं जानता, शायद कोई भी नहीं जानता, लेकिन कोई ऐसी अदृश्य शक्ति अवश्य है, जो हर क्षण आपके लिए सोचती है और प्रेरित करती है। यदि हम उसके अनुरूप कर्म करें तो उसके परिणाम हमारे लिए शुभ ही होते हैं। तुलसी बाबा ने क्या ही अच्छा लिखा है—‘होहिए वहीं जेहि राम रचि राखा।’ रामजी की रचना विलक्षण है। उपरोक्त घटना मेरे लिए इस विश्वास को प्रमाणित करने का एक अच्छा उदाहरण है।

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