चिंता न करो भई!

बहुत चिंतित होते होंगे न आप? आप अर्थात् माननीय वरिष्ठ व्यंग्यकार जन! हमारे बाद व्यंग्य किसी अंधी ‘दिशा’ में भटक न जाए और भटकने से उसकी ‘दशा’ जैसी है, उससे कहीं और भी बदतर न हो जाए तो आप लोग किंचित् भी चिंता न करें।

आप कहेंगे, भला ऐसा क्या हो गया? तो जवाब है—चीन देश द्वारा मुफ्त में और जबरदस्ती हमें एक्सपोर्ट करके भेजी गई एक महामारी। वुड बी व्यंग्यकारों के एक हाथ में इस महामारी ने ऐसा स्वर्णिम अवसर लाकर पकड़ा दिया है कि क्या बयाँ करें! क्या छोड़ दें! वो कहते हैं न कि खाली दिमाग...। खाली दिमाग हमेशा शैतानी ही करे, ऐसा जरूरी नहीं, व्यंग्यकारी भी कर सकता है, कर क्या सकता है जी, बल्कि व्यंग्यकारी करने में पिल पड़ा है। विषय तो मिल ही गया है—वैश्विक महामारी। ऊपर से आश्चर्य यह कि इसने बिना अप्लाय किए अनिश्चितकालीन लंबी छुट्टियां भी दूसरे हाथ में इफरात से पकड़ा दी हैं। सो घर-घर में व्यंग्य का विषाणु २४×७ लॉक डाउन पीरियड धड़ाधड़ व्यंग्यकार पैदा कर रहा है।

वह एक दोहा है न—‘शुरू करो अंताक्षरी लेकर प्रभु का नाम।’ तो उसमें हम अंताक्षरी शब्द डिलीट कर व्यंग्यकारी शब्द एड किए दे रहे हैं।

व्यंग्य के इतिहास में ज्यादा पीछे न जाकर झाँकें तो हरिशंकर परसाईंजी और शरद जोशीजी हमारी पीढ़ी ने पढ़-पढ़कर इतने घोंट डाले थे कि क्या बताएँ! यह मुआ टी.वी., जो नहीं था उस वक्त। हमारी नाट्य मंडली ने जोशीजी के ‘अंधों का हाथी’ नाटक के मंचन का निर्णय लिया। अंधा दिखाने के लिए बाकी पात्रों के साथ हमारी आँखों पर भी काली पट्टी बाँध दी गई और हाथी का एक पाँव पकड़ा दिया गया था। उस मंचन के वक्त शरद जोशीजी को मंच के सामने प्रथम पंक्ति में पास की टाउनशिप के एक अभिजात्य परिवार से उधारी में लाए गए महँगे सोफे पर साक्षात् स्थापित किया गया था (तब सोफासेट भी दुर्लभ हुआ करते थे।) मंचन के बाद ऑटोग्राफ वाला ऐतिहासिक फोटू भी खिंचवाया गया। उनके हाथ में हमने ऑटोग्राफ डायरी जो थमा दी थी। अहा! वे भी क्या दिन थे! वे भी क्या तो महान्-वहान् व्यंग्यकार थे! क्षमा व्यंग्यकारो! मा. शरद जोशीजी की यादों की गहन-घाटियों में भटकने से लेख में जरा सा विषयांतर दोष आ गया।

विगत के उन दो महानुभाव व्यंग्यकारों के पुण्य स्मरण के बाद फट से अब वर्तमान पर आ जाते हैं। हमारे इस छोटे से नगर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए व्यंग्यकारों को गिनना चाहूँ तो हाथ-पैर दोनों की उँगलियाँ मिलाकर भी कम पड़ जाएँ।

छपने की गुणवत्ता जिसने हथिया ली, वह उतना ही बड़ा व्यंग्यकार। देखिए न! कोई तो ऐसी ऑटोमैटिक मशीन है कि अगर दिन-प्रतिदिन न छपें तो उन्हें भ्रम सताने लगता है—कहीं हम माला डली तस्वीर में तो नहीं चले गए! कोई ने वीकली ‘प्रकट दिवस’ मनाने की ठान ली है। कोई पखवाड़े-पखवाड़े अपनी जवानीवाले फोटो सहित छपकर स्वयं को देवानंद-कम-राइटर के रोल में प्रस्तुत कर अपनी जिंदगी को धन्य मानते हैं। कोई तो एक मासिक पकड़कर बरसो-बरस कुछ पन्नों पर कब्जा किए बैठे हैं। ये माननीय किसी मासिक का आजीवन सदस्यता शुल्क कभी अदा नहीं करते, वरन् उस मासिक के इंडेक्स में क्विक फिक्स से चिपके परमानेंट आजीवन व्यंग्यकार होते हैं। अंदर की रिपोर्ट ऐसी है कि शुल्क भरकर सदस्यता लेनेवाले प्रबुद्ध पाठक, उनके हथियाए पन्नों को अपने हाथों से तत्काल पलट दिया करते हैं। कुछ व्यंग्यकारों को छपने के लिए तीन महीनों का अज्ञातवास भोगना बहुत भाता है। उन्हें इस बात का गुमान रहता है कि वे क्वालिटी के व्यंग्यकार हैं, वे डेली सुबह-सवेरे छपनेवाले या स्वयं को छपानेवाले ऐसे-वैसे टुटपुँजिए व्यंग्यकार नहीं। कोई तो घोर आत्मसंतोषी होते हैं। वे सिर्फ, और सिर्फ सालाना दीपावली विशेषांकों में बड़े आदर के साथ विशेष आग्रह पर ही छपना पसंद करते हैं। यह हैं छपाई के काल पर आधारित व्यंग्यकारों के वो कुछ प्रकार, जो मेरी उड़ती नजर डाले बिना ही दर्शन लाभ दे जाते हैं।

देखिए न! कैसा-कैसा, क्या-क्या न लिखा-छापा-पढ़ा जा रहा है इन दिनों!

आभासी दुनिया तो अब यह आभास करा रही है कि इस खतरनाक महामारी ने व्यंग्यकारों की एक बड़ी भारी फौज ही तैयार कर दी है। एक-से-एक बढ़कर व्यंग्य चित्र, हास्य-व्यंग्य लेख, चुटकले, क्षणिकाएँ, वक्रोक्तियाँ, हँसिकाएँ, कुंडलियाँ, हाइकु, व्यंग्य कविताएँ रचकर दसों-दिशाओं में और सात समुंदर पार भी फॉरवर्ड की जा रही हैं। कुछेक को पढ़कर हम दंतावली निपोरते हैं तो कुछ को देख-पढ़कर हमें हरिशंकर परसाईंजी, शरद जोशीजी के गमन से हुई कभी न भरी जानेवाली क्षति का स्मरण हो आता है। आभासी एपों, आभासी मुखपुस्तक भित्तियों पर इन नवांकुरित अर्थात् एमैच्योर व्यंग्यकारों की कमान से छूटे व्यंग्य-बाणों को आप कब तक अनदेखा कर सकते हैं! यह बापड़े एक गंभीर चुटकी लेते हुए आज के इस मनहूस माहौल में हम जैसे कभी न मुसकराने वाले सूमड़ों को भी हँसाने का माद्दा रखते हैं। मुझे पता था कि आप चिढ़कर कहेंगे—‘वे भी क्या साहित्य है! हुँ!’ पूत के पाँव पालने में वाली कहावत में आपकी आस्था हो या न हो, पर मैं याद दिला दूँ कि जब हमने-आपने सबसे पहले साहित्य का ‘सा’ लिखने का शुभारंभ किया था, तब क्या साहित्य अकादमी के स्तर का लिख डाला था? नहीं न? तो फिर रफ्ता-रफ्ता ही तो रमेंगे न ये नए रंगरूट!

‘उनमें ही कोई गौतम होगा, उनमें ही कोई होगा गांधी’ की तर्ज पर क्या इनमें भविष्य के परसाईं या जोशी नहीं हो सकते? आशा ही जीवन है भई! नहीं क्या?

आज के व्यंग्य के मार्केट में यत्र-तत्र-सर्वत्र न जाने कितने व्यंग्यकार छितरे पड़े हैं। साफ-साफ कहें तो हर छोटा-बड़ा लेखक रिक्त पड़े व्यंग्य क्षेत्र में येन-केन-प्रकारेण एनक्रोचमेंट करने पर आमादा है। चलते-फिरते कोई टकरा ही जाए और मेरे दुर्भाग्य से पूछ भी डाले तो प्रोत्साहन के लिए यह कहना तो हमारा फर्ज बनता है न—‘अरे! आपने तो कमाल का व्यंग्य लिखा है!’ फिर तो उनका बासी-मुरझाई लौकी सा मुखड़ा पीतांबरी से चमके चकाचक लोटे सा चमचमाने लगता है। अब चापलूसी की आदत तो हमें है नहीं, अगर दो मीठे शब्द बोलने से किसी का दो-चार रत्ती खून बढ़ जाता है तो रक्तदान का कुछ पुण्य तो संचित हो ही जाएगा न हमारे खाते में! अस्तु!

व्यंग्यकार सखियो! बुरा मत मान जाना कि आपको संबोधित नहीं किया। अब संबोधन उभयलिंगी होते जा रहे हैं। माननीय महिला स्वयं को राष्ट्रपति कहलाकर खुश है तो एक्ट्रेस भी अब एक्टर कहलाती है। इसी तर्ज पर हमारी इस प्राचीन पीढ़ी के बाद की महिलाओं के लिए देखिएगा, एक दिन कवयित्री शब्द की जगह कवि शब्द प्रयुक्त होकर रूढ़ हो जाएगा। अत: आप कृपया व्यंग्यकार में ‘ही-शी’ दोनों लिंग समाहित समझें।

हाँ, तो मैं कह रही थी कि यह ‘नया खून है, नई उमंगें’ लेकर मैदान मारने आ चुका है। अब आभासी दुनिया के ये उभयलिंगी नवजवान एकदम न्यू ब्रांड भाषा में व्यंग्य लिखने की तैयारियों में मशगूल हो चुके हैं। आपने अपने क्षेत्र रक्षण की तैयारियाँ तो कर लीं न?

आप? यानी कौन? तो उसका भी खुलासा जरूरी है। आप अपने यहाँ के व्यंग्य क्षेत्र में सिंहनाद के लिए ख्यात हों या मॉरीशस रिटर्न्ड अंतरराष्ट्रीय हस्ती हों, ज्ञान के भंडार हों, हँसी-ठिठोली के केंद्र-उपकेंद्र हों या अभा व्यंग्य सम्मेलन के पितृपुरुष की आगामी पीढ़ी हों, सबके ‘सावधान!’ हो जाने का शंखनाद हो चुका है।

आश्चर्य कि ‘वैश्विक महामारी’ जैसे गंभीर मसले को मसलकर नया खून व्यंग्यकारी से सजे लाल कारपेट पर कैट वाक के लिए रिहर्सलें करना आरंभ कर चुका है।

मुझे प्राचीनकाल (मेरे कहने का मतलब है—वरिष्ठ) के आप व्यंग्यकार जन की चिंता सताने लगी तो उसकी सांत्वना में व्यंग्य पर यह सब लिखने को कटिबद्ध हुई—व्यंग्यकारो! चिंता न करो! सिंहासन कभी खाली नहीं रहता! कोई एब्सेंट हो तो सिंहासन पर उनकी पूज्य चरणपादुकाओं का प्रतिष्ठापन भी तो हुआ है न भारत के इतिहास में! इति।

‘श्रीप्रमोदस्थान’, ५६९-बी, सेठीनगर,

उज्जैन-४५६०१० (म.प्र.)

दूरभाष : ९४०६८८६६११

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