जैनेंद्र कुमार : रचनात्मकता का सत्य

जैनेंद्र कुमार : रचनात्मकता का सत्य

प्रेमचंद के जीवन काल में हिंदी में जो लेखकों की नई पीढ़ी उभरकर सामने आ रही थी, उनमें जैनेंद्र कुमार, बच्चन, रामकुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर मामले, भँवरमल सिंघी, जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’, सुदर्शन आदि की एक लंबी सूची दी जा सकती है। प्रेमचंद अपने लेखन-कर्म से बहुत बड़े लेखक थे, पर वे अपने समय की नई पीढ़ी को अपने साथ-साथ लेकर चलने और उन्हें प्रतिष्ठित करने के कारण भी बड़े लेखक थे। प्रेमचंद ने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ आदि पत्रिकाओं का संपादन किया तो नए-नए उभरते हुए लेखकों को खूब प्रकाशित किया और उनके साथ सहयात्री जैसा व्यवहार किया। इन सभी में जैनेंद्र कुमार से उनके लगभग दस वर्ष के संबंधों की जानकारी मिलती है। इन संबंधों में प्रेमचंद जैनेंद्र के निमंत्रण पर दिल्ली जाते हैं और होली भी खेलते हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में उनके साथ जाते हैं और उनके देहांत के समय उनके पास ही रहते हैं और रात को हुए संवाद को अपने संस्मरण में लिखते हैं और ‘हंस’ के कुछ अंकों का भी संपादन करते हैं। इन दोनों के ऐसे घनिष्ठ संबंधों के होते हुए भी जैनेंद्र ने प्रेमचंद का अनुकरण नहीं किया और अपनी रचनात्मकता से एक नई धारा की सर्जना की और प्रेमचंद ने उसका स्वागत भी किया। प्रेमचंद ने उन्हें ‘भारत का गोर्की’ कहा और मैथिलीशरण गुप्त ने उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर तथा शरत् के साथ रखा। प्रेमचंद के सम्मुख जैनेंद्र नई पीढ़ी के लेखक थे और स्वाभाविक था कि उनके निकट होकर भी वे अपना रास्ता अलग बनाकर अपने को स्थापित कर सके। यह प्रेमचंद के साहित्यिक मॉडल के विपरीत एक नई रचनात्मक चिंतन का प्रतिफल था कि जैनेंद्र ने प्रेमचंद की कथा एवं पात्र सृष्टि तथा उनकी सोद्देश्यता के साथ न चलकर कथा-किस्सागोई की उपेक्षा, पात्रों की सीमित संख्या, पात्रों की समाजोन्मुखता के स्थान पर उनकी निजता तथा समाज की समस्या के स्थान पर विचार को केंद्र में रखकर अपना एक नया सृजन-संसार बनाया और वे साहित्य में मनोवैज्ञानिक थारा के प्रवर्तक के रूप में स्वीकृत हुए। जैनेंद्र के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व में विचार प्रमुख है, बल्कि यह उनका और आलोचकों का मानना है कि उनके उपन्यास तथा कहानियाँ विचार से ही उत्पन्न होती हैं और कोई-न-कोई विचार ही रचना के उत्स का कारण होता है। इस संबंध में, जैनेंद्र ने अपने जीवन के संदर्भों को दूर रखने की बड़ी कोशिश की, लेकिन मुझसे बातचीत में उन्होंने माना कि ‘परख’ की कट्टो से उनकी मुलाकात माँ द्वारा संचालित बाल विधवा आश्रम में हुई थी और मैं उससे शादी करना चाहता था, पर माँ ने मामा भगवानदीन से इसकी शिकायत की और उस लड़की को विधवाश्रम से निकाल दिया। मैं उस महिला से मिला और उससे लिया इंटरव्यू ‘मैं जब ‘परख’ की कट्टो से मिला’ शीर्षक से प्रकाशित कराया और जैनेंद्र को दिखाया। उन्होंने कहा कि इसमें परख मेरी ही है कि मैं असफल हो गया। ‘त्यागपत्र’ मृणाल पर मैंने जब उनसे बात की तो वे बोले कि हाथरस में एक स्त्री थी, जिससे मेरे मधुर संबंध थे, पर मेरे आग्रह पर वे इसके स्वरूप को उद्घाटित नहीं करना चाहते थे। उनके उपन्यास ‘कल्याणी’ की नायिका डॉ. असरानी की तलाश डॉ. रमानाथ त्रिपाठी ने की और उस पर लेख भी लिखा जो जैनेंद्र ने देखा भी, लेकिन ऐसे लेखों को उन्होंने कभी अस्वीकार नहीं किया। अतः जैनेंद्र के कथा-साहित्य की रचना में विचार ही प्रेरक नहीं है, जीवन के निजी अनुभव भी हैं और जीवन की गहन और घनीभूत संवेदनाओं के बिना ‘त्यागपत्र’ की मृणाल का जन्म नहीं हो सकता था। जैनेंद्र में विचार और दर्शन का जो व्यापक चिंतन था, तथा वे बार-बार अपने विचार-सूत्रों से रचना के जन्म का आख्यान करते रहे, उसने उनके जीवन और साहित्य के निजी संबंधों की परतों को खोलने का अवसर ही नहीं दिया। यही स्थिति बच्चन की थी। उन पर काम करते हुए मैंने कहा कि आपकी आत्मकथा में आपके जीवन के अनेक अनुभव नहीं हैं तो उन्होंने माना कि मेरे कुछ गीतों में वे निजी अनुभव व्यक्त हुए हैं। जैनेंद्र ने भी माना कि उनकी आरंभिक रचनाओं में जीवन की झलक आ गई है। रचना जीवन के बिना बड़ी नहीं हो सकती।

जैनेंद्र से मेरे घनिष्ठ संबंध प्रेमचंद जन्म शताब्दी (1980) के आने पर हुए, यद्यपि उससे पहले मेरा उनसे तथा परिवार से संबंध बन चुका था तथा उनसे अनेक बार उनके जीवन एवं साहित्य पर चर्चा होती रही और वह मेरे कुछ लेखों के रूप में प्रकाशित भी हुई और शेष मेरी शीघ्र आने वाली पुस्तक ‘जैनेंद्र कुमार को याद करते हुए’ में सम्मिलित होगी। जैनेंद्र को मैंने एक विचारवान, प्रज्ञावान तथा प्राचीन दार्शनिकों एवं आचार्यों के समान गंभीर चिंतक, प्रश्नकर्ता तथा जिज्ञासु और मन की गुत्थियों और द्वंद्वों की उलझनों से टकराते और सुलझाते हुए पाया। मैंने अपने जीवन में उन जैसा विचारवान व्यक्ति नहीं देखा। प्रेमचंद युग-चिंतक थे और जैनेंद्र मानव-मन के चिंतक थे और व्यक्ति की निजता और संबंधों के अंतर्सूत्रों को निरावृत करना उनका साहित्य-कर्म था। प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर मैंने एक राष्ट्रीय समिति बनाई, जैनेंद्र उसके अध्यक्ष तथा मैं उसका संस्थापक महामंत्री तथा जैनेंद्र के आग्रह पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उसकी संरक्षक बनीं। हमने फिक्की सभागार, नई दिल्ली में राष्ट्रीय सम्मेलन किया, उसकी अध्यक्षता उपराष्ट्रपति ने की और प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय ने मेरी पुस्तक ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ का लोकार्पण किया। जैनेंद्र दो बार इंदिरा गांधी से मिले, पर उन्हें अपने साथ मुझे ले जाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई और इसका परिणाम हुआ कि हम केंद्रीय सरकार से कुछ मदद न ले सके। यहाँ तक कि केंद्रीय मंत्री प्रकाशचंद सेठी ने टाल्सटाय मार्ग, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली में एक भवन ‘प्रेमचंद जन्म शताब्दी राष्ट्रीय समिति’ को अलाॅट कर दिया, लेकिन जैनेंद्र ने उसका कब्जा नहीं लिया। लगभग इसी समय ‘त्यागपत्र’ पर फिल्म बनी और उसका प्रीमियम शो फिक्की सभागार, नई दिल्ली में हुआ, प्रधानमंत्री चरणसिंह (28 जुलाई, 1979-14 जनवरी, 1980) ने अध्यक्षता की और मैंने इसका संयोजन किया। प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह, जैनेंद्र तथा मैंने साथ बैठकर फिल्म देखी और तब किसी प्रसंग में यूनाइटेड नेशन की चर्चा हुई और बाद में प्रधानमंत्री ने जैनेंद्र को यूनाइटेड नेशन में मानवाधिकार आयोग के भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाकर भेजा और जब जैनेंद्र न्यूयाॅर्क पहुँचे तो उनका मुझे प्रेमचंद समिति के संबंध में पत्र मिला। प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर जैनेंद्र उमाशंकर जोशी, महादेवी वर्मा, अमृतराय तथा इंदिरा गांधी के होने पर भी यह समिति कुछ नहीं कर पाई और मैं आज तक इसका सही कारण नहीं समझ पाया कि क्यों जैनेंद्र एवं इंदिरा गांधी के होते हुए भी सहयोग नहीं मिला।

जैनेंद्र की प्रखर मेधा और उनके अगाध ज्ञान ने मुझे सदैव प्रभावित किया। उनकी मेधा इसी से समझी जा सकती है कि उनका लगभग आठ हजार पृष्ठों का साहित्य लिखकर नहीं बोलकर लिखवाया गया है। उन्होंने अपने हाथ से पत्र तो लिखे हैं, पर कोई उपन्यास, कहानी या निबंध उन्होंने लिखा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, और लिखने वालों में गोपाल प्रसाद व्यास, वीरेंद्र कुमार गुप्त तथा उनके छोटे भाई योगेश गुप्त की जानकारी मिलती है। इनमें अंतिम दो लेखकों से तो मेरी निजी बातचीत हुई थी और ‘समय और हम’ तो वीरेंद्र कुमार गुप्त ने ही लिखा था और उसके प्रकाशन पर गुप्त से मनमुटाव भी हुआ था। जैनेंद्र की प्रतिभा तथा प्रेमचंद की कथात्मक प्रवृत्तियों से भिन्न रचना-पथ की ओर कदम रखने का प्रमाण उनकी पहली कहानी ‘खेल’ (1927) तथा प्रथम उपन्यास ‘परख’ (1929) से समझा जा सकता है। इस संबंध में जैनेंद्र की प्रेमचंद से हुई बातचीत से ही उनके भिन्न-भिन्न रास्तों का ज्ञान होता है और इसका भी कि प्रेमचंद इस युवा लेखक के प्रथम उपन्यास ‘परख’ का कुछ असहमति के साथ स्वागत करते हैं। जैनेंद्र की प्रेमचंद से पहली मुलाकात जनवरी, 1930 में होती है और प्रेमचंद कहते हैं कि बंगाली साहित्य में स्त्री भाव अधिक है, जो मुझमें काफी नहीं है। प्रेमचंद संकल्प में भावना का काठिन्य चाहते हैं, क्योंकि हिंदी का रास्ता यही है, भावना की कोमलता का नहीं। जैनेंद्र का रास्ता भी स्त्री प्रधान तथा कोमलता-तरलता का था। जैनेंद्र का प्रथम उपन्यास ‘परख’(1929) आया तो जैनेंद्र प्रेमचंद से उस पर समीक्षक नहीं उस्ताद की हैसियत से उसके मूल्यांकन की मांग करते हैं और जेल में रहकर भी बराबर याद दिलाते हैं। प्रेमचंद ‘परख’ की समीक्षा करते हैं और ‘हंस’ के फरवरी, 1931 के अंक में छपती है। प्रेमचंद लिखते हैं, “जैनेंद्र कुमार की रचनाएँ थोड़े ही दिनों से प्रकाशित हो रही हैं। ‘परख’ तो उनका पहला उपन्यास है, पर जो कुछ लिखा है, बहुत ही सुंदर लिखा है। भाषा, चरित्र, चुटकियाँ, सभी अपने ढंग की निराली हैं। उनमें साधारण सी बात को भी कुछ इस ढंग से कहने की शक्ति है, जो तुरंत आकर्षित करती है। उनकी भाषा में एक खास लोंच, एक खास अंदाज है। इसके साथ ही वह उन रियलिस्टों में नहीं हैं, जिन्हें नग्न चित्रों में ही आनंद आता है। ‘सुंदर’ को वह कभी हाथ से नहीं जाने देते। ‘परख’ है तो छोटी किताब, पर हिंदी में एक चीज है। भाषा इतनी सजीव, शैली इतनी आकर्षक, चरित्र इतना मार्मिक कि चित्त मुग्ध हो जाता है, मगर यह नई विवाह प्रथा हमारी समझ में नहीं आई। जैनेंद्र की पहली कहानी ‘खेल’ भी, इस नए लेखक की मनोरचना और रचनात्मकता तथा भविष्य के जैनेंद्र का चित्र उपस्थित कर देती है। ‘खेल’ कहानी दो बच्चों की कहानी है, जो गंगा नदी किनारे रेत से, पहले बालिका सुरबाया और बाद में मनोहर भाड़ बनाते हैं और पहले मनोहर सुरबाया (सुर्खी) का बनाया भाड़ तोड़ता है और फिर सुरबाया और उनकी इस क्रिया में बालपन की हँसी, उत्फुल्लता, गुस्सा, नाराजगी और मनाना आदि सभी होता है। इस प्रकार यह वात्सल्य की मनोरम कहानी बन जाती है, परंतु जैनेंद्र इसे सृष्टि और जीवन की संरचना की दार्शनिकता के उद्घाटन के लिए करते हैं। कहानी का नेरेटर भाड़ को ‘ब्रह्म‍ांड का संपूर्ण तथा सबसे सुंदर वस्तु’ कहता है और जब मनोहर सुर्री का भाड़ तोड़ देता है तो वह दार्शनिक बनकर बालकों को समझाता है, जो वास्तव में पाठकों को जीवन-सत्य समझना चाहता है। जैनेंद्र अपनी पहली कहानी से ही अपने पाठकों का भी एक अलग वर्ग बनाते हैं जो उनके दार्शनिक लेखक के साथ-साथ चल सके और भाड़ बनाने और तोड़ने की मात्र घटना से सृष्टि का सत्य समझने को उद्यत हो। इसीलिए जैनेंद्र विशिष्ट वर्ग तक सीमित हैं और प्रेमचंद सार्वजनिक लेखक हैं, जो सबको आमंत्रित करते हैं। जैनेंद्र का यह वैशिष्ट्य ही उन्हें आरंभ से ही विशिष्ट बनाता है, प्रेमचंद उनकी रचना को नई चीज कहते हैं और ‘परख’ पर उन्हें प्रेमचंद और प्रसाद की रचनाएँ होने पर भी ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ मिलता है और इस प्रकार साहित्य-संसार भी अपनी मोहर लगा देता है।

जैनेंद्र ने विपुल साहित्य की रचना की, बल्कि यह कहना उचित होगा कि उन्होंने बोलकर भी काफी मात्रा में साहित्य रचा और साहित्यिक गतिविधियों तथा राष्ट्रीय सरोकारों में भी बराबर हिस्सा लिया और जीवन का बहुत सा हिस्सा शतरंज के खेलने में व्यतीत किया, बल्कि एक बार तो रेडियो के कार्यक्रम में जाने की स्वीकृति के बाद भी जब शतरंज खेलते रहे तो उनकी पुत्रवधू विनीता (बिन्नी) उन्हें बुलाने पहुँची, पर वे तब भी नहीं उठे तो सामने बैठे साथी गोपीनाथ अमन ने ही शतरंज की बाजी उलट दी और रेडियो स्टेशन जाने का आदेश देते हुए कहा कि बहू सामने खड़ी है और तुम उठ नहीं रहे हो। जैनेंद्र की ऐसी प्रवृत्ति उनके चिंतन की एकाग्रता, तल्लीनता और बाहरी दुनिया से असंपृक्त होने का ही प्रमाण है, जो उन्हें मानव-मन की गहन गुफाओं और चंचल लहरों में रमने और उनके रहस्यों को चेतनावस्था में शब्दों में व्यक्त करने की क्षमता और बेचैनी उत्पन्न करता है। जैनेंद्र की प्रतिभा का इससे अंदाज हो सकता है कि उन्होंने कुछ कहानियाँ किसी से एक वाक्य सुनकर उस पर पूरी कहानी ही लिख दी और इस तरह सुनते ही उनकी सृजन-प्रक्रिया तुरंत गतिशील हो जाती थी। ऐसी लेखन प्रतिभा का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

जैनेंद्र की हिंदी कथा साहित्य में प्रसिद्धि उनके ‘परख’ (1929), ‘सुनीता’ (1935) तथा ‘त्यागपत्र’ (1937) से हुई और उनका स्त्री-दर्शन तथा स्त्री की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता एवं पत्नी के साथ प्रेमिका के उनके विचारों ने साहित्य में बड़ी हलचल पैदा की और उनकी विशिष्टता, प्रेमचंद के साहित्य-दर्शन से विलोम तथा अपने चिंतन एवं सृजन की अलग राह बनाने की रचनात्मकता को मान्यता मिलती चली गई और वे विशेष रूप से स्त्री जीवन के मनोवैज्ञानिक कथाकार स्वीकृत होते चले आते। जैनेंद्र के अधिकांश उपन्यासों का केंद्रीय भाव स्त्री है और उसमें भी स्त्री-पुरुष के संबंध और उसमें स्त्री की स्वतंत्र सत्ता और निजता ही प्रधान बन जाती है। इसलिए उनकी कथा भी सीमित होती है और पात्र भी सीमित।

जैनेंद्र के उपन्यास साहित्य में ‘परख’ (1929) से लेकर ‘दशार्क’ (1985) तक उनके कुल बारह उपन्यास मिलते हैं—‘परख’, ‘तपोभूमि’, ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘कल्याणी’, ‘सुखदा’, ‘विवर्त’, ‘व्यतीत’, ‘जयवर्धन’, ‘मुक्तिबोध’, जिसे साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया, ‘अनंतर’, ‘अनामस्वामी’ तथा ‘दशार्क’, जो ‘सारिका’ में छपा। ‘परख’ में विधवा कट्टो है, बिहारी और सत्यधन है। कट्टो में स्त्रीत्व की भावनाएँ हैं और सत्यधन से प्रेम है, सत्यधन उसे छोड़कर गरिमा से विवाह करना चाहता है तो वह कहती है कि मैं अपने कारण उन्हें चिंताग्रस्त नहीं रखना चाहती और बिहारी से शादी हो जाती है। यह सत्यधन की ही परख है कि वह विधवा से प्रेम करके भी विवाह नहीं करता और इसी कारण जैनेंद्र ने मुझसे कहा था कि सत्यधन मैं ही हूँ और यह मेरी ही परख थी, जिसमें असफल रहा।

जैनेंद्र के शेष उपन्यासों में ‘कल्याणी’, ‘सुखदा’ से लेकर ‘दशार्क’ तक अधिकांशतः प्रेम, विवाह, पति-पत्नी एवं प्रेमिका के संबंधों आदि पर ही और कहीं-कहीं राजनीतिक प्रसंगों के साथ रचना के सूत्र जोड़े गए हैं और जैनेंद्र की औपन्यासिक सृष्टि इन्हीं प्रश्नों तथा संबंधों की समस्याओं में उलझी-सुलझी रही है। जैनेंद्र के उपन्यासों में जो भी कथा-प्रसंग हैं तथा जो भी स्त्री पात्र हैं, वे प्रेम, प्रेमी, विवाह तथा अन्य पुरुष के साथ संबंधों के ताने-बाने में उलझे हुए ऐसा रास्ता चुनते हैं, जो पाठकों को हतप्रभ करता है, चौंकाता है।

जैनेंद्र की कहानियों का संसार बड़ा है और उनकी लगभग सौ से अधिक कहानियों के पात्रों की संख्या उनके कुल उपन्यासों के पात्रों से अधिक है और उनमें एक रूपात्मकता नहीं है। मुझे कहानीकार जैनेंद्र उपन्यासकार जैनेंद्र से बड़े लगते हैं, क्योंकि उनकी संवेदना में वैविध्य है और पात्रों की दुनिया बड़ी है, यद्यपि अपनी कहानियों में भी जैनेंद्र का उपन्यासकार तथा विचारक अनुपस्थित नहीं रहता। एक लेखक की रचनात्मकता विभिन्न विधाओं में बँटकर भी समग्रता में एक रूपात्मक तथा संश्लिष्ट होती है और वह एक नदी की विभिन्न धाराओं के रूप में बँटी होती है। जैनेंद्र की कहानियों का संसार उनकी पहली कहानी ‘खेल’ से शुरू होता है और यह किसी नौसिखिये लेखक की कहानी प्रतीत नहीं होती। यह लेखक ने 22 वर्ष की आयु में लिखी थी और प्रेमचंद ने 27 की उम्र में पहली कहानी ‘सांसारिक प्रेम और देश प्रेम’ लिखी थी।

जैनेंद्र की कुछ अन्य कहानियों के रचना-संसार से उनके इस वैशिष्ट्य को देखना-समझना जा सकता है। उनकी कहानी ‘फोटोग्राफी’ को कुछ आलोचक उनकी पहली कहानी मानते हैं और ‘खेल’ कहानी को देखते हुए यह लगता भी है। ‘खेल’ की तुलना में यह कमजोर कहानी है और किसी नौसिखिए लेखक की लगती है।

जैनेंद्र की ‘जनता में’, ‘पत्नी’, ‘तत्सत्’, ‘पाजेब’ तथा ‘पढ़ाई’ आदि कहानियों में कुछ नए कथा प्रसंग हैं। ‘जनता में’ कहानी रेल के तीसरे दर्जे के डिब्बे में यात्रा करने का अनुभव है। इसमें भी एक बालक है, जो दस यात्रियों के आकर्षण का केंद्र है, पर लेखक अंत में हिंदू-मुसलमान का प्रश्न उठा देता है। ‘पत्नी’ कहानी में पत्नी की सेवा, विवशता तथा भारत माता की स्वतंत्रता के लिए हिंसा या अहिंसा के रास्ते पर मित्रों में बहस होती है। कालीचरण का मत है कि आतंक विवेक को कुंठित करता है और उसके मित्रों का मत है कि बाघ को मारने के लिए आतंकवाद जरूरी है। लेखक ने दो भिन्न कथा-प्रसंगों को जोड़कर कहानी का प्रभाव कम कर दिया है। ‘तत्सत्’ एक दार्शनिक कहानी है, जो आदमी तथा जंगल के वृक्षों तथा जानवरों के माध्यम से कही गई है। बड़ दादा नायक है और सभी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वह ही अर्थात् ब्रह्म‍ ही सर्वत्र है। यहाँ ‘खेल’ कहानी का ही दर्शन है। ‘पाजेब’ कहानी में फिर बालक है, आठ वर्ष का है और उस पर पाजेब चुराने का अपराध लगाया जाता है। वह बालक है तथा सत्य नहीं कह पाता और अंत में मालूम होता है कि पाजेब बुआ के साथ चली गई थी। ‘पढ़ाई’ कहानी भी एक बालिका नूनी की है। माँ उसे पढ़ने के लिए दबाती है, गुस्सा करती है, क्योंकि उसे उसकी शादी की चिंता है, पर पिता खेलकूद से ही उसे शिक्षित करना चाहता है। अंत में माँ की जीत होती है और नूनी अब खेलती नहीं, पिता से किताब के मायने पूछती है।

जैनेंद्र की यहाँ कथा साहित्य की चर्चा हुई है, परंतु वे एक संपूर्ण लेखक हैं, बस उन्होंने कविता नहीं लिखी। जैनेंद्र ने उपन्यास, कहानी तो लिखी हीं और उनकी ख्याति भी कथाकार रूप में ही हुई, लेकिन उन्होंने विचार साहित्य बहुत लिखा—नाटक लिखा, आलोचना, संस्मरण, ललित-निबंध, यात्रा, बाल-साहित्य भी लिखा और अनुवाद एवं संपादन भी किया। इतने विपुल तथा वैविध्यपूर्ण साहित्य के रचयिता होने पर भी जैनेंद्र को कथा और विचार साहित्य से ही प्रतिष्ठा मिली, लेकिन यह उनकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य है कि वे कथा के साथ विचार का तथा अपने जीवन-दर्शन का संगम कर देते हैं। उनके उपन्यासों-कहानियों की कथा उनके दर्शन से समृद्ध होती हैं और अन्य सहयात्री लेखकों की तुलना में विशिष्ट बनाती हैं।

जैनेंद्र के साहित्य का वैशिष्ट्य है, जैसे प्रेमचंद का अपना वैशिष्ट्य है। जैनेंद्र ने भी अपना नया मार्ग बनाया और उनकी व्यक्ति केंद्रित मनोवैज्ञानिक धारा को अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी आदि ने आगे बढ़ाया भी, किंतु उनका अनुकरण संभव न हो सका। ‘दशार्क’ के फ्लैट पर सही लिखा है, “हिंदी के पास दूसरा जैनेंद्र या जैनेंद्र का विकल्प कोई नहीं है।” जैनेंद्र अपनी इस विशिष्ट एेकांतिकता के कारण हिंदी साहित्य में सदैव स्मरणीय तथा पठनीय बने रहेंगे और उनका यह योगदान समादृत रहेगा।

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