विश्वास विधि हाथ

ज्योंज्यों छुट्टी का समय करीब आ रहा था, रीना की परेशानी बढ़ती जा रही थी। रीना बारहवीं की छात्रा है, प्री-बोर्ड की परीक्षा सर पर है। देखा जाए तो पढ़ाई के अलावे उसे और किसी चीज से मतलब नहीं होना चाहिए। पर संयुक्त परिवार की बेटी है, इसलिए उसके एक ही नहीं नंबर ऑफ गार्जियंस हैं। सभी की अपेक्षाओं और सलाह के केंद्र में रीना।

फिलहाल तो रीना की परेशानी घर के काम करने वाली मेड को लेकर है। वैसे तो यह परेशानी रीना की माँ शोभा की होनी चाहिए। आज तक ऐसा ही होता आया है। पर शोभा अब अस्वस्थ रहने लगी हैं तो गृहणी की जिम्मेदारी अनायास ही रीना पर आ पड़ी है। रीना बोर्ड की परीक्षार्थी है तो क्या हुआ, है तो लड़की। परिवार का मानना है कि सिर्फ पढ़ाई-लिखाई से कुछ नहीं होता, लड़कियों का गृह-कार्य में दक्ष होना आवश्यक है, सो पढ़ाई से अधिक घर का काम सीखना जरूरी है। वैसे रीना की माँ बेहद सुघड़ गृहणी हैं, पूरा घर सँभालती हैं, वह तो अभी महीने भर पहले रसोई में काम करते वक्त चक्कर खाकर गिर पड़ीं। ब्लड-प्रेशर जाँचने पर पता चला, लो है। घर में ऑटोमैटिक ब्लड-प्रेशर नापने की मशीन जरूर है, सभी का ब्लड-प्रेशर रीना ही नापती है, पहली बार शोभा का ब्लड-प्रेशर नापने की जरूरत पड़ गई। वैसे इस मशीन से शोभा का कोई लेना देना नहीं था, क्योंकि न तो दादी की तरह उसकी उम्र हो चली थी, न रीना के पिता की तरह उस पर दफ्तर और पूरे परिवार की दोहरी जिम्मेदारी थी। न ही शोभा रीना के चाचा की तरह हमेशा स्टेस में रहती थी, इसलिए शोभा का ब्लड-प्रेशर से कोई लेना-देना नहीं था। वैसे तो बी.पी. सभी का नाॅर्मल ही रहता था, बस शोभा का बी.पी. रीना के अनुसार उस दिन ‘लो’ हो गया। घर में जोरदार बहस हुई, फिर बात आई-गई हो गई। पिता बोले, “मैं तो पहले ही कहता था कि अपने खाने-पीने का ध्यान रखो, मैं अकेले क्या-क्या देखूँ।”

दादी बोलीं, “कुछ नहीं, बस नौकर हटा देने का नतीजा है, दो रोटी-सब्जी बनाने में ही बीमार पड़ जाती हैं आजकल की बहुएँ। हम अपने जमाने में कितना काम करते थे, तुम लोग सोच भी नहीं सकते, मजाल कि कभी बीमार पड़ जाएँ, घर कौन सँभालता?”

रीना के मन में आया कि कह दे, “दो रोटी नहीं, पूरी पैंतीस रोटियाँ बनती हैं पूरे कुनबे के लिए, भोजन में छप्पन भोग अलग और नौकर को भगा देने के बाद माँ उसका विकल्प होकर रह जाती हैं।” पर शोभा ने ही उसे रोक दिया।

रीना खून का घूँट पीकर रह गई। नौकर के भाग जाने की समस्या इस घर की स्थायी समस्या थी। कोई भी नौकर दो-चार महीने से ज्यादा नहीं टिकता। करीब दो महीने पहले इस बार भी नौकर निकाल दिया गया। नौकर शोभा के मायके का था, अतः परिवार निश्चिंत था कि देर-सबेर शोभा के मायके वाले फिर से नौकर भेजेंगे ही, नहीं तो परेशानी शोभा की ही है। नौकर को निकाल-बाहर करने के बाद उसकी गलती के लिए सभी ने शोभा को ही जिम्मेदार ठहराकर डाँटा था। नौकर गोधन की गलती यह थी कि उसने चाचा के लिए चाय बनाने में देर कर दी थी।

सुबह-सुबह चाचा के चिल्लाने की आवाज से ही रीना की नींद खुली—“अरे गोधना, कहाँ मर गया। एक घंटे से चाय माँग रहा हूँ, सुनाई नहीं देता।”

“वह मैं बड़े साब का पाँव दबा रहा था।”

“भोरे से यही कर रहे हो, कामचोर कहीं का।”

गोधन सर झुकाकर खड़ा रह गया। रीना बोल पड़ी, “पाँव दबाना और चाय बनाना एक साथ कैसे कर सकते हैं गोधन भैया।”

शोभा ने मुँह पर उँगली रखकर इशारे से उसे मना किया। रीना कमरे में चली आई।

“तुम कुछ कहती क्यों नहीं?”

“मैं नहीं कह सकती, बिटिया।” रीना को मनाते हुए बोली शोभा।

“तो चाचा को ही टोको, चाय चाची भी तो बना सकती हैं।”

“कैसे टोकूँ, वह डिप्रेशन में चले गए तो, कमजोर आदमी हैं।”

“और चाची।”

“उसके हाथों की तो मेहँदी भी अभी फीकी नहीं पड़ी।”

“साल भर से यही सुन रही हूँ।”

तब तक आँगन में आवाजें ऊँची हो गईं।

“भाभी ने इसका दिमाग खराब कर रखा है।”

“उसके नैहर का है तो क्या, खाना तो मेरा बेटा ही खिलाता है। काम का न काज का, ढाई मन अनाज का।” दादी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।

“अब तुमने गोधन भैया का दिमाग कैसे खराब कर दिया?”

“वो मेरे गाँव का है तो बातें भी मुझे ही सुननी पड़ेंगी।”

“तो मायके का नौकर रखती ही क्यों हो? तुम्हारे यहाँ से जो आता है, उसे ये लोग निकाल बाहर करते हैं। गोधन भैया पूरी रसोई सँभालते हैं, तुम्हें तो आराम है।”

“यही तो प्राॅब्लम है।”

“एक्जॉटली, दिस ईज द प्राॅब्लम। जब भी कोई नौकर एडजस्ट हो जाता है, पूरी तरह काम-काज सँभालने लगता है, इन्हें शिकायत हो जाती है।”

“धीरे बोल रीना।”

“क्यों, तुम कुछ कहती क्यों नहीं?”

“मेरे गाँव का है, उसका पक्ष कैसे ले सकती हूँ?”

“तो मायके से मत मँगाओ नौकर।”

“यह बात तो शादी से पहले ही इन लोगों ने स्पष्ट कर दी थी कि नौकर के हाथ का ये लोग नहीं खाते, भोजन तो बहू को ही बनाना पड़ेगा।”

“तो मानी क्यों यह बात?”

“क्योंकि मध्यम वर्गीय लोग विवाह से पहले लड़के वालों की सारी बातें मान लेते हैं, यह सोचकर कि बाद में सब ठीक हो जाएगा।”

“सब ठीक हो जाता है क्या?”

“थोड़ा-बहुत हो भी जाता है, जब तू पैदा हुई, सवा महीने की जब मैं तुम्हें लेकर आई तो पहली बार मेरी माँ ने जिद करके एक नौकर साथ में दिया, जिससे मुझे आराम मिल सके, पर साल बीतते-बीतते उसे भी निकाल दिया।”

“उसके बाद।”

“तेरा भाई राघव पैदा हुआ, फिर मैं मायके से नौकर लेकर आई, पर छह महीने से ज्यादा वह भी नहीं टिका।” लंबी साँस लेकर बोली शोभा।

“उसके बाद जाने कितने चुन्नू, मुन्नू, छोटू आते रहे और जाते रहे। गृहस्थी की गाड़ी चलती रही। कुछ-न-कुछ कमी उनमें भी रही, पर काम तो चलाना ही पड़ता है। परिवार में ही क्या सब परफेक्ट होते हैं।”

“गोधन भैया को मत जाने देना तुम।”

“वह मैं नहीं कर पाऊँगी रीना, पर तू चिंता मत कर, मैं सँभाल लूँगी सबकुछ।” और उसी सँभालने के चक्कर में लो ब्लड-प्रेशर की शिकार हो गई शोभा।

“तुम्हें आराम की जरूरत है, मम्मी।”

“वह भी कर लूँगी।”

पर हो नहीं पाया। शोभा फिर रसोई और घर के कार्य में व्यस्त हो गई। एक बात अवश्य हुई कि इस बार शोभा के गाँव से कोई नौकर नहीं आया। शायद शोभा ने ही मना कर दिया। रीना मम्मी के स्वास्थ्य को लेकर अवश्य परेशान थी। घर के कार्य के साथ-साथ शोभा एक काम और करती—दादी, चाची तथा अपनी साड़ियों में फॉल लगाने का काम। इस बार शोभा सुई-धागा लेकर बैठी तो रीना ने हाथ से डिब्बा छीन लिया, बोली, “अब यह काम मत करो, थोड़ा रेस्ट कर लो।”

“अरे-रे! अगले हफ्ते नवरात्र शुरू हो रहे हैं, साड़ियों की जरूरत पड़ेगी।”

“मैं लगवा दूँगी।”

“कहाँ?”

“वो अपनी सोसाइटी के बाहर एक टेलर बैठती है न, पेड़ के नीचे गले में कपड़ा नापने का फीता लटकाकर, उसी से।”

“तू उसे जानती है?”

“रोज स्कूल से आते-जाते देखती हूँ उसे, गले में फीता लटकाकर तो ऐसी शान से अपनी मशीन पर बैठती है कि क्या कोई डॉक्टर अपने गले में आला लटकाकर बैठेगी? मुझे वह बहुत अच्छी लगती है।”

शोभा हैरान रह गई, उसकी नकचढ़ी बेटी किसी की तारीफ करे, यह अनोखी बात थी। उसने चुपचाप साड़ियाँ उठाकर दे दीं।

अगले दिन अपने स्कूल बैग के साथ-साथ साड़ियों को झोले में भरकर ले गई रीना, स्कूल से आकर बोली, “दो दिन में वह खुद दे जाएगी, मैं घर का पता दे आई हूँ।”

“पैसे कितने लेगी?” चाची पूछने लगी।

“यह मैंने नहीं पूछा, जो भी लेगी, दे देंगे।”

“तू देगी, अपने बाप की मेहनत की कमाई बरबाद करेगी और क्या?” दादी बोल उठीं।

“तो आगे से चाची से लगवा लेना।” दो टूक बोली रीना।

दादी को जवाब नहीं सूझा और चाची तुरंत अपने कमरे में चली गई।

दूसरे दिन शाम को वह लेडी टेलर साड़ियाँ लेकर घर आ गई, बोली, “साड़ी सब ले आए हैं, मलकिन। कल्हे दिदि दे गए थे।”

बोलने का लहजा कैसा तो जाना-पहचाना लगा कि शोभा रसोई से निकल आई। तब तक रीना पूछने लगी, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“नाम हुआ हमारा ललीता। जिल्ला दरभंगा, बिहार।”

ठेठ उत्तर बिहारी लहजा, अनजाने ही शोभा की आँखों में चमक आ गई, रीना बोल उठी, “अरे मम्मी! यह तो तुम्हारे यहाँ की निकली।”

“हँ मलकिन, तुम्हू दरभंगे की हो क्‍या?”

“साड़ियाँ ले आई।” शोभा तब तक थोड़ा सँभल गई, अनजान लोगों से मेल-जोल बढ़ाना ठीक नहीं। पर रीना को कौन टोके, बोली, “दरभंगा से यहाँ कैसे आ गई?”

“बियाह हो गया न दाय, आना ही परा।” एकदम दीदी से दाय, दादी को ललिता की यह आत्मीयता एक आँख नहीं भाई। वह जानती थीं कि मिथिला क्षेत्र में लोग बहन को बड़े प्यार और मान से ‘दाय’ बोलते हैं। हस्तक्षेप करना पड़ा, बोलीं, “तुम्हारा ससुराल है यहाँ, लखनऊ में।”

“अरे नहीं माँजी, हमरा घरवाला काम करता है ईहाँ, नखलौ में।”

“क्या करता है?”

“ऊ चौमीन का ठेला लगाता है।”

“चौमीन वो क्या होता है भाई।” चाची अबोध की भाँति बोल उठीं, “चाऊमीन चाची।” रीना ने जानकारी दी।

“पैसे कितने हुए?”

“अब ई त अपना ही घर हुआ मलकिन, हिसाब किया करे, जो लगे दे दो।”

“नहीं-नहीं, पैसा तो लेना ही पड़ेगा।” दादी का अधिकार भाव जाग उठा।

मुश्किल से ललिता ने पैसे लिये। शोभा का मन था एक कप चाय पूछने का, पर चुप रह गई। क्या करे वह भी, औरत को तो मायके का कौआ भी प्यारा होता है। लेकिन रीना स्कूल आते-जाते ललिता से बातें करने लगी। हफ्ते भर बाद आकर बोली, “कल से मेड आ जाएगी खाना बनाने के लिए, घर के बाकी काम भी कर देगी।”

“मेड, वह कहाँ मिल गई?” शोभा चौंक उठी।

“अरे अपनी ललिता की छोटी बहन है सोना, वही।”

“अपनी ललिता, यह ललिता तेरी अपनी कब से हो गई?” दादी का पारा चढ़ना उचित ही था।

“यही प्राॅब्लम है, तुम लोगों के जेनरेशन की, सभी को अपना समझ लेती हो।” चाची को भी अनुभव था।

“जो भी हो, कल से मेड आ जाएगी।”

रीना के दृढ़ स्वर में कभी-कभी उसके पिता का लहजा कौंध उठता है और दादी चुप रह जाती हैं।

इस अप्रत्याशित सूचना के साथ एक और आश्चर्य घर की महिलाओं की प्रतीक्षा कर रहा था, सुबह-सुबह साक्षात् आश्चर्य उपस्थित था। साइकिल की घंटी के साथ दरवाजे पर से आवाज आई, “रीना दीदी हम आ गए।”

रीना जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी, उत्साह से बोली, “सोना, अंदर आओ न, साइकिल वहीं खड़ी कर दो।” सोना अंदर क्या आई, घर की बाकी महिलाओं की बोलती बंद हो गई, उनके मन में चौका-बरतन करने वाली की जो छवि थी, सोना का उनसे कोई मेल नहीं था। गुलाबी रंग की लेडीज साइकिल, हाथ में मोबाइल फोन, कान में ईयरफोन, पहनावे में संडे मार्केट से खरीदा गया लोअर और कुर्ता। और तो और आधार कार्ड की फोटोकापी के साथ पुलिस वेरिफिकेशन की काॅपी भी लाई थी। चाची की आँखें चौड़ी हो गईं, “पुलिस वेरिफिकेशन, वो कहाँ करा लाई?”

“लो, यहीं थाने में तो कैंप लगा था, आपको नहीं मालूम।”

“मुझे क्या करना है मालूम करके।”

सोना, लेकिन चिकना घड़ा, चाची का कटाक्ष उसके ऊपर से पानी की बूँद की तरह ही फिसल गया। उसकी मुसकराहट में कोई फर्क नहीं पड़ा। घर की महिलाएँ चौका-बरतन, झाड़ू-पोंछा से उसका संबंध नहीं जोड़ पाईं। रीना ने बात शुरू की, “माँ, यह है सोना, आज से तुम्हारा सारा काम कर देगी।”

शोभा ने ध्यान से देखा, ललिता से करीब दस-ग्यारह साल छोटी होगी, दुबली-पतली, रीना के शब्दों में ललिता से ज्यादा स्मार्ट। बोली, “खाना बना लेती हो?”

“हाँ दीदी, सब बना लेते हैं, जो नहीं आता है, बता देना हमको।”

“पैसा कितना लोगी?” दादी ने पूछा।

“अब देखो एक आदमी का खाना बनाने का हजार रुपैया बनता है, सो घर में जेतना आदमी, ओतना हजार।”

“घर में सात लोग हैं।”

“कौनो बात नहीं, हम सब कर लेंगे।”

“सात हजार लोगी।”

“हाँ बरतन, झाड़ू-पोंछा का दो हजार अलग से।”

“नाश्ता भी बनाना पड़ेगा।” रीना बोली।

“चलो दीदी, नाश्ता का पंद्रह सौ दे देना।”

“साढ़े दस हजार, बाप रे!” चाची अवाक् थीं।

शोभा चुप रही, आज तक नौकर दरभंगा से आते रहे, कभी तनख्वाह देने की नौबत ही नहीं आई।

खाना-कपड़ा ही बहुत था। शोभा के पिता ने किसको क्या तनख्वाह दी, न शोभा ने पूछा न उन्होंने कभी बताया।

“ई तो बहुत महँगा है रे रीना।”

“यह ही रेट है माताजी, हमको भी तो घर चलाना है। और हाँ, महीने में चार छुट्टी भी बनता है।”

“छुट्टी, उ कौन देगा?” रीना को लगा कि सोना को रखने से पहले ही उसे निकाल न दें कहीं, उसने बात सँभाली, बोली, “पहले से बता के छुट्टी लेना, न हो तो अपनी जगह किसी को भेज देना, हम उसका पैसा अलग से दे देंगे।” रीना पहले ही ललिता से पूरी छान-बीनकर चुकी थी।

दादी समझ गई कि माँ-बेटी की मिली-भगत से बात हाथ के बाहर जा रही है, बोल उठीं, “चार छुट्टी और साढ़े दस हज्जार। लूट है क्या?”

“रेट पता कर लीजिए न माताजी, इससे कम में कौनो मेड नहीं मिलेगी।”

शोभा समझ गई कि सोना ललिता से थोड़ी अधिक होशियार है। रीना नई जेनरेशन की लड़की है, काम-से-काम रखने वाली, दो टूक बोलने वाली। सास और देवरानी का मुँह देखकर रीना के कान में धीरे से बोली, “हम सोचकर देखते हैं।”

रीना का स्वर तीव्र हो उठा, “बी प्रैक्टिकल मम्मी।”

“बहुत पैसा लग जाएगा।” चाची चिंताग्रस्त हो उठीं।

“तुम चिंता काहे करती हो, छोटे से मत कहना, ऊ बेकार परेशान हो जाएगा।”

“तो पैसा कौन देगा?” चाची सावधान थीं।

“ऑफकोर्स पापा देंगे, यह भी कोई पूछने की बात है। सोना तुम चलो अंदर, मम्मी काम समझा देंगी।”

रीना ने बात खत्म कर दी, नौकर के भाग जाने की तरह ही चाचा का स्ट्रेस और डिप्रेशन भी इस घर की स्थायी समस्या थी। बचपन से ही रीना देखती आई है, साल भर नहीं पढ़ेंगे, परीक्षा के समय स्ट्रेस से बीमार हो जाएँगे और परिणाम आने से पहले डिप्रेशन में चले जाएँगे। पूरा घर खैर मनाता रहता कि पास या फेल होना मायने नहीं रखता, पर छोटा डिप्रेशन में न जाए। खाना-पीना छोड़ देंगे, रात में सोना छोड़ देंगे। डॉक्टर से पंद्रह-बीस दिन सोने की दवा लेंगे, भूख लगने की दवा लेंगे और बात पुरानी होते ही रीना के शब्दों में—“ऑल ईज वेल।” चाचा फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। गिरते-पड़ते ग्रैजुएट हो गए। भगवान् की असीम कृपा मानते हुए बड़े भाई, यानी कि रीना के पिता ने अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके किसी एन.जी.ओ. में काम दिलवा दिया, सो अब तक तीन एन.जी.ओ. बदल चुके हैं रीना के चाचाजी। जिम्मेदारी पड़ने से सुधर जाएगा, यह सोचकर विवाह कर दिया, तो पत्नी उनसे भी अधिक तथाकथित भावुक निकली। घर का कोई भी काम करने में उसकी आँखों में आँसू भरने में एक पल नहीं लगता, कहती, “हाँ, कमजोर की पत्नी हूँ न, कमासुत की पत्नी थोड़े ही हूँ, मायके में तो कभी पानी का गिलास उठाकर नहीं पीना पड़ा।”

दूसरी तरफ रीना है, खुद तो पानी का गिलास उठाकर पीती ही है, पूरे घर को भी पानी वही पिलाती है। पानी के लिए हर कोई उसे ही आवाज देता है। और जब से गोधन चला गया, तब से पानी के साथ-साथ चाय भी पिलाती है। कभी-कभी शोभा की तबीयत नरम रहने पर नाश्ता और भोजन भी बना लेती है। सोना के आ जाने से शोभा के साथ-साथ रीना भी बेफिक्र हो गई।

सोना ने घर का काम बखूबी सँभाल लिया। चाची उसे ‘हाई-टेक मेड’ कहती थी तथा दादी ‘फैशनेबुल।’ सिर्फ शोभा उसे ‘सोना’ कहकर बुलाती, मीठे स्वर में कहती, “जरा यह काम कर दे बचिया।” सोना सब काम छोड़कर शोभा का काम सबसे पहले करती। आते ही उसने रसोई में कई परिवर्तन कर दिए। पहले दिन ही बोली—

“क्या दीदी, तुम चक्कू से तरकारी काटती हो, चौपर नहीं है।”

“चौपर।”

“हाँ, उससे जल्दी कट जाता है।”

“अच्छा, मँगा दूँगी।”

“हम ले आएँगे संडे मार्केट से, सौ रुपय्या लगेगा।”

धीरे-धीरे वह कई चीजें ले आई। सब्जी धोने के लिए रंग-बिरंगी जालीदार टोकरियाँ, प्लास्टिक की आधा दर्जन चाय छन्नी। कहती, “दिन भर चाय बनता रहता है, बार-बार छन्ना कौन धोए, एक्के बार धो लेंगे।”

दादी कहतीं, “क्या स्टैंडर है, साइकिल, फोन, पैंट, शर्ट। कौन कहेगा काम करने वाली बाई है, क्या जमाना आ गया।”

सोना फिर एक दिन छोटे-बड़े वाईपर ले आई, बड़े से हैंडिल वाले पोंछे के साथ, जिसके एक सिरे में फोम लगा था, मशीन में खुशबूदार फ्लोर क्लीनर डालकर चट घुमाती पट पोंछा तैयार हो जाता। चलते-फिरते बड़ी अदा से पूरे घर में पोंछा लगा देती। रीना कहती, “कितनी स्मार्टली वाईप करती है यह सोना, जैसे ४/२८ नंबर मकान में नहीं, इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर काम कर रही हो।”

झुककर घुटने के बल पोंछा लगाने वाली बाई की निरीहता सोना में कहीं दिखाई नहीं देती। रीना कहती, “ललिता और सोना जो भी करती हैं, पूरी शान से करती हैं, क्या टेलरिंग क्या क्लीनिंग और कुकिंग?” दादी जरूर नाराज हो जातीं, कह देतीं, “एक सोनमा और एक उसका संडे मार्केट, खर्च का घर हो गया है।”

“दुनिया की ऐसी कोई चीज नहीं है, जो इसके संडे मार्केट में नहीं मिलती।” चाची भी टिप्पणी कर देतीं।

इतना ही नहीं, शाम में आती तो साइकिल में कुछ-न-कुछ लटका लाती, कहती, “हम धनिया पत्ता ले आए हैं दीदी, भोर में खत्म न हो गया था। दस रुपैया लगा।”

धीरे-धीरे साग-सब्जी और रसोई का अन्य सामान भी लाने लगी, चायपत्ती, चीनी, मसाले आदि। रीना की पसंद का वह खूब खयाल रखती मैकरोनी, पास्ता वगैरह न सिर्फ बना देती, अपितु खरीद भी लाती। महीने भर से घर में एक लय सी आ गई थी।

पर कल सुबह-सुबह झमेला हो गया, दीवाली आने वाली थी, काम करने वाली को उपहार देने की परंपरा थी, गृहणियाँ अपने मन से साड़ी, शॉल आदि दे देतीं। पर सोना तो अनोखी थी, बोल पड़ी, “हमको सारी-वारी मत देना, दीदी।”

“चल, सूट ले लेना।”

“उ त बहुत है हमरे पास।”

“फिर क्या लेगी, बोल।

“हौट केस, हमको एगो हौट केस वाला डिब्बा दे देना।”

“हॉट केस का क्या करेगी?” रीना को उसका ठेठ उत्तर बिहारी हिंदी बोलने का लहजा बहुत भाता।

“अरे दिदिया, रोटी बना के रखेंगे, अउर क्या, आजकल हमरे घरवाला को गरम रोटी खाने का धुन सवार हुआ है, सो उसमें एक्के बार बना के रख देंगे तो हमको हरदम नहीं न बनाना पड़ेगा।” सोना बोल उठी।

सोना और रीना को मिलकर हँसते देखकर दादी की भृकुटी तनना एकदम सही था। सोना के जाते ही बोली, “ये तू उसके साथ ही-ही, ठी-ठी मत किया कर ज्यादे, तेरा भी दिमाग खराब कर देगी।”

“हाय दादी, कितनी स्वीट तो है।”

“अरे क्या स्वीट, खुद को घर की मालकिन समझने लगी है, तेरी माँ ने उसे सिर चढ़ा रखा है।”

बात घूम-फिरकर शोभा पर आ गई। रीना ने बात सँभाल ली “अपना खून क्यों जलाती हो दादी, चेहरे पर झुर्री पड़ जाएगी। सुंदर कैसे लगोगी?”

“चल हट, सुंदर लग के क्या करना है?”

“क्या करना है, मेकअप करके सबको इंप्रेस नहीं करना है।”

“चल पागल, कुछ भी बोलती है।” दादी को गुस्सा थूकना पड़ा।

पर सोना भी एक ही थी। सुबह हॉट केस वाला झमेला खत्म हुआ नहीं कि शाम को फिर टप से बोल पड़ी, “देखो दिदी, इस बार धनतेरस में तुम चार बरनर वाला चूल्हा ले आओ, हाँ।”

“अरे सोना, ठीक तो है, दो बर्नर में बुराई क्या है।”

“क्या दिदी, अब सब लोग रखते हैं, समय केतना बचता है। अब देखो, एक तरफ दाल चढ़ा है, दूसरा तरफ तरकारी और हम खाली हाथ खड़े हैं। अब तक रोटी बना लेते और कुकर में भात भी बन जाता।”

“अरे तो कौन सी ट्रेन छूट रही है।”

“नहीं माताजी, ट्रेन काहे छूटेगा, पर हमारा काम तो छूट जाएगा, हमको लेट जो हो जाता है।”

“अरे तो कौन से हम मुफ्त में काम कराते हैं तुझसे।”

इससे पहले कि बात बढ़ जाए, रीना ने सोना का हाथ पकड़ा और अपने कमरे में खींच ले गई।

“क्यों ओल्ड लेडी को गुस्सा दिलाती है?”

“अरे दिदी, हम तो अपना घर समझकर बोल देते हैं।”

“हाँ तो, मम्मी या मुझसे बोला कर न, ओल्ड लेडी से क्यों उलझती है?”

उस वक्त तो बात आई-गई हो गई। चर्चा छिड़ी सोना के जाने के बाद, दादी दो टूक बोली, “बात-बात में जबान लड़ाती है, यह सोनमा, कल ही इसे निकाल बाहर करना पड़ेगा।”

“जाने दो न दादी, मैंने उसे डाँट दिया है।”

“टप-टप बोलती रहती है, तेरी माँ ने उसे सर जो चढ़ा रखा है।”

“जिज्जी के गाँव की है न।”

“गाँव की है तो मुझे जवाब देगी।”

“नहीं देगी, मैं समझा दूँगी उसे, महा मूरख है वो माँ, उसकी बात को मन पर क्या लेना।”

“तुमने कह दिया और हो गया, अरे हम दो चूल्हा रखें कि चार रखें, उससे मतलब।”

“आप सही कह रही हैं माँ।”

“पर चार बर्नर वाला चूल्हा रखने में हर्ज क्या है?” रीना बोल उठी।

“देख, तू उसकी बात में मत आ।”

“और क्या, मैगी, पास्ता बना-बनाकर उसने पटा रखा है रीना को।” चाची का मत था।

“आने दे उसे सुबह, मैं उसका हिसाब कर दूँगी।” दादी बोली तो शोभा परेशान हो गई, रीना का प्री-बोर्ड सर पर है।

सुबह सोना के आने से पहले वह स्कूल के लिए निकल गई, पर अब परेशान थी। दादी ने उसे निकाल दिया होगा, त्योहारों का टाईम है, कोई मेड नहीं मिलेगी। मम्मी को मेड का विकल्प मान लिया है सबने, किसी की दिनचर्या नहीं बदलती रीना और शोभा को छोड़कर। मम्मी बोलना कब सीखेंगी, पहली बार रीना को गुस्सा आ गया अपनी मम्मी पर।

भारी मन से वह घर लौटी, देखा, सोना की साइकिल दरवाजे पर खड़ी है, डूबते को तिनके का सहारा मिला। अंदर आई तो वातावरण शांत था। दादी गुस्से में और चाची कमरे में थीं। शोभा किताब पढ़ रही थी और सोना रसोई में थी। काम खत्म करके सोना जाने लगी तो शोभा सामान्य भाव से बोली, “जा शाम को समय से आ जाना।”

“हाँ दिदी, आ जाएँगे।”

सोना के जाते ही दादी शोभा से मुखातिब हुईं, “तुम तो कह रही थी कि जब आज तक का पैसा देनी ही है तो आज काम कर लेने दीजिए, फिर शाम को क्यों बुलाई?”

“जाने दीजिए न माँ, काम तो ठीक ही करती है। हाँ, बोलने का ढंग नहीं उसे, पर यह लोग ऐसी ही होते हैं।”

“तो कौन सुनेगा उसका, क्यों सुनेगा?”

“मैंने समझा दिया है उसे, अब पलट के नहीं बोलेगी। फिर अच्छी मेड आजकल मिलती कहाँ हैं।”

“अरे एक ढूँढ़ो, पचास मिलती हैं।”

“वे सब भी ऐसी ही होती हैं छोटी।”

“आपके गाँव की जो है। आप तो उसी की साईड लेंगी।”

“ठीक है, सोना को हटा दो, फिर रसोई की जिम्मेदारी तुम लो।” पहली बार शोभा बड़ी बहू की हैसियत से बोल उठी। स्वर की मिठास कहीं खो गई, मानो खरे सोने का सिक्का बज उठा।

“मैं, भला मैं कैसे ले सकती हूँ यह भार?” चाची आसमान से गिरी।

“तो काम कैसे चलेगा?” स्वर फिर खनक उठा, “यह भला मैं कैसे कह सकती हूँ, माँ की भी उम्र हो चली है। फिर जिसके दो-दो लायक बेटे हों वो भला।” चाची ने बड़ी आशा से दादी की तरफ देखा। वे अभी शोभा के लहजे से अचंभित गाल पर हाथ रखे बैठी थीं।

“वैसे तो जिसके बेटे नालायक हों, उम्र उस माँ की भी होती है। मेरा राघव महानालायक है तो क्या मेरी उम्र ठहर गई।” टकसाली स्वर फिर बज उठा।

“वो अभी बच्चा है शोभा।” शोभा के स्वर की मिठास दादी के स्वर में घुल गई शायद।

“पर मैं तो बच्ची नहीं रही।”

“अरे इतनी बड़ी बेटी है तुम्हारी, हाथ बँटाएगी न।”

“अभी मुझे उसका हाथ बँटाना है, बोर्ड की परीक्षा है उसकी।”

“तो क्या तुम उसे पढ़ाओगी।” स्वर की मिठास जाती रही।

“नहीं उसके साथ रहूँगी, वह पढ़ेगी तो मैं उसके आस-पास रहूँगी। रात में जगकर पढ़ेगी तो मैं उसे चाय-काॅफी के साथ कंपनी भी दूँगी।” वही खनकता स्वर।

अब दादी को कोई शक न रहा, इस भोजन बनाने वाली सोना ने जरूर शोभा को नमक पढ़कर खिला दिया है। आज तक इतने नौकर आए-गए, कभी तो बहुरिया कुछ नहीं बोली, आज क्या बौरा गई है शोभा।

“अरे छोटी बहुरिया भी तो है न, काहे चिंता करती हो।”

“मैं, भला मैं क्या करूँगी, उनकी जो हालत रहती है।” चाची का पुराना राग बज उठा।

“इसलिए सोना को हटा देना बुद्धिमानी नहीं। बी प्रैक्टिकल लेडीज।”

“हमको क्या, तुम माँ-बेटी मिल के जो मन आए सो करो।” दादी वैराग्य भाव से बोलीं।

“हाँ भाई, जिज्जी के गाँव की है, कौन कहे।” चाची हमेशा की तरह कमरे में घुस गईं।

“लगता है, आज जिज्जी का ब्लडप्रेशर लो की जगह हाई हो गया है।” भुनभुनाना जारी था। महिलाओं की सभा बर्खास्त हुई। रीना बोल उठी शोभा से, “वेल डल माॅम, तुमने सोना को रोक लिया।”

“रोकना ही था। तुम्हारा ट्वेल्थ है, राघव का टेंथ। अभी मैं सिर्फ तुम दोनों को अटैंड करूँगी।”

“मुझे लगा, तुम्हारे मायके की है, कहीं तुम फिर चुप न रह जाओ।”

“मायके की तो है ही।”

“पर गोधन भैया को क्यों नहीं रोका, उस समय क्यों नहीं बोली?”

“गोधन क्या मैं तो चुन्नू, मुन्नु, छोटू के लिए कभी नहीं बोल पाई।”

“तो बोलना चाहिए था न।”

“पहली बार कोशिश की थी। छोटू को रोकने के लिए बोली थी। तू साल भर की थी।”

“फिर”।

“तेरे चाचा बोले, “क्या बात है भाभी, आपको बड़ा लगाव हो गया है छोटू से।”

“अरे यह क्या बात हुई, मनुष्यता भी तो कोई चीज है।”

“उसके लिए औरत को मनुष्य की कैटेगरी में शामिल करना होगा।”

“तो क्या औरत मनुष्य नहीं है।”

“नहीं औरत केवल औरत है।”

“मैं नहीं मानती।”

“मुझे मानना भी न पड़े, ईश्वर से यही प्रार्थना है।”

“किसी ने चाचा से कुछ नहीं कहा।”

“कैसे कहते, चाचा डिप्रेशन में जो चले जाते। सभी ने चुपचाप सुन लिया, आखिर मौन सहमति का ही लक्षण होता है।”

“उन्हें डिप्रेशन में जाना आता है, इसलिए वे कुछ भी कह सकते हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं बोल सकता।”

“नहीं ही बोल सकता।”

“फिर आज कैसे बोली?”

“क्योंकि सोना औरत है न।” इस घर के सन्नाटे में जैसे स्टील का बड़ा बरतन फर्श पर झनझनाकर अचानक गिरा, आवाज देर तक गूँजती रही।

रीना के साथ-साथ दादी और चाची के भी कान बज उठे, शोभा ने तीव्र स्वर में दोहरा भी दिया, “सोना औरत जो है।”

“मतलब?”

“मतलब कि हर बात हर किसी के लिए नहीं कही जा सकती, लड़की बनकर जब धरती पर जन्म लिया है तो इतनी सी बात समझ ले।”

“कमाल है, आखिर विश्वास भी कोई चीज है।”

“है न, औरत के लिए हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश की तरह विश्वास भी विधि के हाथ में ही होता है। अविश्वास अपयश का ही पर्यायवाची है।”

“गजब, विश्वास विधि के हाथ में क्यों होगा? पापा क्या तुम पर विश्वास नहीं करते।”

“बिल्कुल करते हैं, पर तुम्हारे पापा जैसे आदर्श पुत्र और भाई के लिए पत्नी के प्रति विश्वास ‘गूँगे के गुड़’ के समान है। बस खाए जाओ और मुसकराए जाओ। बोलने की सामर्थ्य कहाँ होती है।” घर के सन्नाटे में दुबारा स्टील की बड़ी थाली ऊँचाई से गिरी, देर तक झनझनाती रही।

“क्या बात है, आई लव यू मॉम। मेड रुक गई। दैट्स आॅल।” रीना जब खुश होती है तो मॉम बोलती है।

“यस ऑल ईज वेल।” आज तो शोभा भी रीना के ही सुर में बोल उठी।

दोनों माँ-बेटी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। सन्नाटे में इस बार मंदिर की पवित्र घटियाँ टुनटुना उठीं।

 

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