दो बालकथाएँ

दो बालकथाएँ

मुझे तो चाहिए ही

आपको जब भी कोई काम पड़ता है तो कामवाली जीजी से या फिर पड़ोस के सनी भइया को बुलाकर करवाती हैं, मुझसे क्यों नहीं करवातीं?” निशू ने कारण पूछा।

“तुम अभी छोटे हो, तुम्हें मार्केट कैसे भेज सकती हूँ।” माँ ने समझाया।

“कभी कहती हो...तू बड़ा हो गया है...कभी कहती हो छोटा।” निशू ने अपनी नाराजगी व्यक्त की।

“तू जब छोटी बहन उन्नू से लड़ता है, तो बोलती हूँ न, तू बड़ा है, मान जा।” सफाई देते माँ ने कहा।

कुछ दिन बीते। पड़ोसी बच्चों को तिपहिया साइकिल चलाते देख निशू ने भी जिद पकड़ ली, “छोटा हूँ तो दिलवा दो साइकिल, जो छोटे बच्चे चलाते हैं...रक्षाबंधन पर या फिर जन्मदिन पर।”

“ठीक है! दिलवा देंगे।” कहकर माँ अपने काम में व्यस्त हो गई।

कुछ महीने भी नहीं बीते कि निशू की टाँगें तिपहिया साइकिल में फँसने लगीं। इस पर उसने साइकिल सीढ़ियों के नीचे पटक दी, “इसे किसी छोटे बच्चे को दे दो, खुश हो जाएगा। मुझे तो दो पहिये की साइकिल चाहिए।”

उसने दादी को भी फुसलाने की कोशिश की, “आपका काम भी बड़ी साइकिल पर करके आ जाऊँगा, दूसरों से मिन्नत नहीं करनी पड़ेगी।”

दो पहिया साइकिल के आने पर पढ़ाई को छोड़कर निशू का शेष समय साइकिल चलाने में और माँ का हिदायतें देने में बीतने लगा।

निशू के पड़ोसी साथी कुछ महीनों बाद ही रंग-बिरंगी और कीमती साइकिलें ले आए। निशू को यह बिल्कुल भी गवारा नहीं था कि वह मीडियम क्वालिटी की साइकिल चलाए और उसने मित्र चमचमाती रंगीन और महँगीवाली। दोस्त भी जानबूझकर उसके सामने अपनी-अपनी नई साइकिलों की तारीफ के पुल बाँधते। अब निशू भी रुआँसा होकर माँ से उनके जैसी नई साइकिल की जिद करने लगा।

“तुम इतनी जल्दी-जल्दी साइकिल बदलोगे, तो पुरानी का क्या करें? जंव्रडंसाइकिल को कम-से-कम इतना तो चलाओ कि उसकी कीमत वसूल हो जाए।” माँ उसे समझाते हुए बोली।

इसका सामाधान भी निशू ने पलभर में ही पेश कर दिया, “जैसे पुरानी तिपहिया साइकिल उन्नू ने चलाई, वैसे ही ये वाली भी उसे ही दे देना।”

उन्नू बीच में चिल्लाते हुए बोली, “मैं क्या हमेशा पुरानी साइकिल ही चलाया करूँगी? नई क्यों नहीं?” उन्नू ने गुस्से में निशू की साइकिल को लात मारकर गिरा दिया और इस बात पर दोनों गुत्थमगुत्था हो गए।

माँ ने इस बार हाथ झटक दिए, “अब तुम्हें कुछ चाहिए तो पापा की अदालत में अरजी दो, मुझसे इस विषय में कोई बात करोगे, तो देख लेना।”

स्कूल से रिजल्ट लेकर जब अपने पापा के साथ निशू लौट रहा था, तो उसे लगा इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता पापा को पटाने का।

“पापा, आपको लगता था न मैं फेल हो जाऊँगा, पर मैं तो अच्छे नंबरों से पास हो गया!”

पापा ने खुशी जाहिर करते कहा, “तभी तो हम मिठाई की दुकान पर चल रहे हैं, जो तुम्हें पसंद हो, ले लेना।”

“मुझे मिठाई नहीं चाहिए। मुझे तो वैसी वाली साइकिल चाहिए, जैसी मेरे दोस्तों के पास है।”

पापा अपने दायित्व से यह कहकर मुकर गए, “पहले दादी से परमिशन तो लो, मुझे उनकी डाँट थोड़े ही खानी है।”

दादी को चलती गाड़ी से ही मोबाइल लगाया गया। दादी ने भी परमिशन दे दी। दादी की स्वीकृति पाते ही हिप-हिप हुर्रे करते हुए वह वैन में ही नाच उठा।

नई साइकिल आते ही निशू उसे वक्त-बेवक्त चलाने लगा, किंतु जब उसे कोई काम बताया जाता, तो वह थकने का बहाना बनाता। उसने साइकिल पाने के लिए माँ को जो लालच दिए थे कि वह बाजार के काम भी कर दिया करेगा, वे सारे वादे भी निशू भूल गया। किसी को कॉपी चाहिए होती तो किसी को प्रोजेक्ट का सामान, पर वह सबकी बात अनसुनी कर देता।

“चाची, इसने तो आपको बेवकूफ बना दिया। झूठ बोलकर साइकिल भी ले ली और आपका कोई काम भी नहीं करता।” निशू की चचेरी बहन ने चाची को भड़काना चाहा।

पता ही नहीं चला और समय साइकिल के पहिए की तरह आगे बढ़ गया। निशू अब किशोर हो चुका था। वह अपनी साइकिल को घूरता और कहता, “अब तो बड़ा हो गया हूँ। साइकिल चलाते-चलाते थक जाता हूँ, इसलिए मुझे अब एक्टिवा चाहिए। चलाते-चलाते थकूँगा भी नहीं और आप लोगों के दूर के काम कर दिया करूँगा।”

इतना सुनते ही दादी ने कहा, “एक्टिवा ला देने से क्या फायदा? इसे लाकर देंगे, तो कहेगा—बरसात में भीग जाता हूँ और धूप में तपना पड़ता है। इससे तो अच्छा है, इसे फोरव्हीलर लाकर दे देते हैं, कम-से-कम एक एक्टिवा का खर्चा तो बचेगा।”

निशू की गाड़ी बदलने की रफ्तार तो बढ़ती जा रही थी, पर काम की रफ्तार धीमी होकर थम गई थी।

दस कितने बजे बजेंगे

पड़ोसी बिट्टू की डॉक्टर मम्मी ठीक आठ बजे ड्यूटी पर निकल जाती थीं और मैं ठीक दस बजे स्कूल के लिए। तबीयत ठीक न होने के कारण उस दिन मैं घर पर थीं।

बिट्टू ने मुझे देखा तो सवाल किया, “आंटी! दस कितने बजे बजेंगे?”

यह कैसा अटपटा सवाल! क्या जवाब दूँ, अभी सोच ही रही थी कि इतने में बिट्टू ने फिर सवाल किया, “आंटी! दस कितने बजे बजेंगे?”

मैं असमंजस पड़ गई, “दस? दस दस बजे बजेंगे।” अटपटे सवाल का मैंने भी अटपटा जवाब दे डाला।

सुनकर वह थोड़ी देर तो चुप रहा। फिर वही प्रश्न, “नहीं आंटी! ‘दस’ कितने बजे बजेंगे?” अबके ‘दस’ शब्द पर उसने कुछ ज्यादा ही जोर दिया।

जीवन में आज पहली बार मुझ बी.एड. डिग्रीधारक को एक बच्चा निरुत्तर किए हुए था।

इतने में उसके पास खेलने आए चार वर्षीय उसके मित्र ने बड़ी सरलता से बिट्टू को समझाया, “जब आंटी स्कूल जाएँगी न, दस तब बजेंगे।”

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