मिथिला का लोक-पर्व सामा-चकेवा

मिथिला का लोक-पर्व सामा-चकेवा

धर्म और संस्कृति के इंद्रधनुषी रंग बिखेरती मिथिला की सुभाषित और पावन भूमि अपने विभिन्न सांस्कृतिक अनुष्ठान, लोकरंजन और सामाजिक महोत्सव के लिए सुविख्यात है।

जट-जटिन, रमखालया, किर्तिनियाँ, डाक-डाकिनी, करमा-धरमा, बिदापत नाच, हिरना-हिरनी जैसे सांस्कृतिक लोक विरासत में सामा-चकेवा अद्वितीय है। गीतों की स्वर सुधा में बेसुध हो शरद चाँदनी की दूधिया रात, गीत-सरिता में गुलजार करती ग्रामबालाएँ, कार्तिक मास का मनभावन मौसम चारों दिशाओं को जैसे अपनी ओर आकर्षित करता है। आसमान में बनहांस, खंजन फिल्ला, सिल्ली मुर्गाबी, बनमुर्गी दहियक, लालसर, हरदा ललमुनिया आदि अनेक किस्म के पक्षी झुंड में आकाश में उछालें भर रहे हों, तब सामा-चकेवा के आगमन का संदेश लेकर उतरते हैं और देखते ही देखते ग्रामबालाएँ पक्षियों के स्वागत में गाए जाने वाले गीत ‘औरियवन’ गाने लगती हैं। इसके बाद उतरती हैं सामा-चकेवा की मनभावन जोड़ी, तब ग्राम बालाएँ और बहुएँ हुलस कर गा उठती हैं—

देखे में जो आवे सखियाँ,

बाग रे बगइचा कि पोखरी,

मंडिलव कि नदिया रामा ऊँची रे महालिया,

से देखु-देखु ना कहाँ बाग के रखवरवा से पूछि लेहु ना,

कहाँ भैया रे माहलवा से पूछि लेहु ना

हमरा सामा के पिरितिया से न्योत देहु ना।

महिलाएँ बाग के रखवारे को फल फूल देकर मनाती है, ताकि वे सुख पूर्वक निर्विघ्न अपने सामा-चकेवा और अन्य पक्षियों को उनके बाग में चरने दे। नदी के मल्लाहों का पान-सुपारी, दूब, धान, फल-फूल से मनुहार कर स्त्रियाँ सामा-चकेवा को आदर से न्योत लेती हैं और तब शुरू हो जाता है महोत्सव का आयोजन।

यह महोत्सव लोक मूर्ति-कला और संस्कृति का जीवंत रूप है।

भाई-बहन के स्नेहिल रिश्ते के प्रति नमन करती स्त्रियाँ सामा-चकेवा को न्योता देकर अत्यंत खुश होती हैं। मिट्टी का सामा, मिट्टी का चकेवा और छोटे-छोटे अनेक किस्म के पक्षियों के पुतले-सतभैया (सप्त ऋषि), जुगल (चउक), खिड़लिच, पौती, पिटारी, डोली, कजरौटा, धूप-दीप, वृंदावन बनाने में स्त्रियाँ लीन हो जाती हैं। अंदी धान के चावल का पिठार घोलकर प्रत्येक पुतले को पोता जाता है और उस पर रंग-बिरंगे, लाल, हरे, नीले-पीले, गुलाबी, जामुनी, बैगनी, सुगापंखी आदि रंगों की सुंदर नक्काशी की जाती है। इतना ही नहीं इन डालियों में खंजन चिरैया रंगीन पूंछ वाली ललमुनिया, सामा-चकेवा चराई करने वाले स्थल वृंदावन को छोटे-छोटे मिट्टी के कीट-पतंगे से करीने से सजाए जाते हैं।

मिट्टी के स्तंभ में नय सहरी की मूठ रोप कर वृंदावन का प्रतीकात्मक रूप तैयार किया जाता है। इन सभी पुतलों में चुगला का पुतला सर्वाधिक दर्शनीय होता है। डेढ़ हाथ लंबे मिट्टी के पुतले में एक शरीर दो चेहरे बनाए जाते हैं। एक चेहरा सफेद और आँख काली और दूसरा चेहरा काला और आँखें सफेद। जीभ लंबी सी होठ के बाहर लटकी हुई, जो उसके शिकायतें प्रवृत्ति का परिचायक होता है। दंत पंक्ति में एक दाँत लंबा सफेद तो दूसरा काला। सिर पर पटसन की लंबी से चुटिया और पटसन की ही कमर तक लटकती लंबी दाढ़ी-मूँछ। कुल मिलाकर हास्यास्पद रूप होता है, जो गहरे चटक रंगों की नक्काशी के बाद और भी हास्यास्पद बन जाता है।

इस पर्व से जुड़े कई कहानियाँ, कई किस्से मशहूर हैं। कुछ लोग इसे उत्तर बिहार के कृषि-कर्म से रिश्ता जोड़ते हैं तो कुछ धर्म से। अधिकांश लोक-नाटकों की तरह सामा-चकेवा भी उल्लिखित है।

पुराणों में कई स्थानों पर इस महोत्सव से संबंधित जिस कथा सूत्र का उल्लेख हुआ है, वस्तुतः वहीं इस पर्व-महोत्सव का मूल आधार है। सामा-चकेवा लोक पर्व है, जिसमें कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता। पद्मपुराण में इसकी कथा का वर्णन है। पद्मपुराण में चकेवा की बहन खिड़लिच का कहीं भी जिक्र नहीं है, जबकि कथा-गायन के समय स्त्रियाँ बहन के नाम पर खिड़लिच का ही नाम लेती हैं। मिथिला की महिलाएँ आज भी इसे महापर्व मानकर संपन्न करती हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की पंचमी को रात्रि के प्रथम पहर से आरंभ होकर पूर्णिमा के अंतिम प्रहर तक यह महोत्सव चलता है। गीत प्राय: दो प्रकार के होते हैं—शुरुआत और अंत ‘सामा झूमर’ से होता है और दूसरा ‘सामा-गीत’, जो कथानक से संबंद्ध होते हैं, बीच में गाए जाते हैं। रात्रि का प्रथम पहर शुरू हुआ नहीं कि ‘सामा झूमर’ सबों को बेसुध करने लगती है—

डाला ले बहार भेली बहिनी से खिड़लिच बहिनी,

चकवा भैया लेल डाला छीन सुनु राम सजनी।

सिर पर डाला लिए मिथिला की प्रत्येक देहरी से स्त्रियाँ झुंड बाँधकर ग्राम परिक्रमा को निकल पड़ती है। गाँव की प्रदक्षिणा करने के उपरांत वे किसी उपवन, तालाब, नदी, खलिहान, खेत कहीं भी गोलाकार में बैठ जाती हैं। अपना-अपना डाला बीच में रखती हैं। इसके पश्चात् धान की हरी दूध भरी बालियों और फल-फूल का भोग लगाकर काजल पारती (बनाती) हैं। सामा और खिड़लिच को काजल लगाने के बाद वह स्वयं लगाती हैं। फिर चुगला का गाल उसी कालिख से पोतती हुई विविध अपशब्द के साथ उसे कोसती हैं। इसके पश्चात् सामा-चकेवा के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं के आधार पर गीत गाती हैं—

सामा चरावे गेल हम सभे भैया के बगिया हे,

सामा हैराय गेल हो भैया वही बगिया है,

पैया तोरा पडू हो भैया पैरों पखारब हे,

छोड़ी देहूं सामा मोरा रामा छोड़ी देहूं हे।

एक गीत समाप्त हुआ नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है। सभी गीत भाई-बहन के जीवन के कथांश और पक्षियों के आगमन की खुशी में, खेतों की हरियाली के उल्लास में गाए जाने वाले गीत होते हैं। गाथा-गायन के पश्चात् वह वृंदावन में आग लगाती हैं। आग लगाते और बुझाते समय स्त्रियाँ स्वर में गा उठती हैं—

वृंदावन में आग लागल केयो ना बुझावे हे,

हमरा के सामू भैया घोड़ा चढ़ी आवे से,

हमरा से सभे भैया दूध से बुझावे हे।

इसके बाद वह चुगला की दाढ़ी और मूँछ में आग लगाती हुई उसका उपहास उड़ाती हैं और तरह-तरह से उसे कोसती है—

तोरे करनवा रे चुगला तोरे करनवा ना,

जरल हमरो बिनरा वनवां रे तोरे करनवां ना।

चुगला की शिकायती प्रवृत्ति और उसके कुटिल स्वभाव के कारण स्त्रियाँ उसे जला-जलाकर दंड देती हुई खुशी से ताली बजा-बजाकर नाचती हैं और सामा-चकेवा की शाप मुक्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। तब सामा फेरने की बारी आती है और स्त्रियाँ कितने आगे की डलियाँ अपनी दाईं ओर बैठी स्त्रियों की ओर बढ़ाती हैं और बाईं ओर से आती हुई डलिया वे स्वयं ले लेती हैं। डाला फेरने के समय सामा-चकेवा और अन्य पक्षियों को अगले वर्ष पुनः आमंत्रित करती हुई वे उनसे अनुनय विनय करती हैं—

साम चको-साम चको अइह हे-अइह हे

कूड़ खेत में बसिह हे-बसिह हे।

कार्तिक पूर्णिमा की रात सामा विसर्जन की रात होती है। पूर्णिमा की शांत स्निग्ध, दुग्ध-धवल रजनी, इधर स्त्रियाँ उदास हैं, आज सामा अपनी ससुराल चली जाएगी। पर वह ऐसे नहीं जाएगी, जाएगी भाई के दीर्घ और स्वस्थ सुखी जीवन की प्रार्थना करती हुई। भाई, सामा-चकेवा का डाला अपने सिर पर रखकर नदी की ओर बढ़ता है और पीछे-पीछे समदौनी यानी विदाई गीत की करुण धारा में भींगती स्त्रियाँ। सभी की आँखों में विदाई की पीड़ा के भरे जल कण हैं—

बाबा मोरे आ रे सामा, आ-आ नदिया बहाई गिले,

नदिया में फूले पुरइन फूल आ रे सामा नदिया भरायब दूध,

घुरी जाऊ फिरी जाऊ आरे हंसा रे चकेवा,

हमसे आंगन भेल सून।

अधजले चुगला व वृंदावन को स्त्रियाँ राह में कहीं फेंक देती हैं। नदी या तलाब तट पर पहुँचकर वह पाँच-छह विदाई गीत और गाती हैं। फिर केले के थम से बनी सँजी-सँवरी सुंदर डोली चारों कोने पर दीप जलाकर रखा जाता है। भाई इस डोली को अपने सिर पर रख पानी में थोड़ी दूर तक जाता है, फिर उसे जल में प्रवाहित कर देता है। प्रवाहित करते हुए पानी में जोर-जोर से हिलकोरा देते हुए कहता है—

जहाँ के पंछी तही उड़ि जा अगला बरस फिर से आ।

नदी घाट पर सामा प्रवाहित करने वालों का मेला सा लग जाता है। शरद चाँदनी की ललाम धारा में तैरती डोलियाँ, उसमें झिलमिलाती दीपमालाएँ एक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती है। जल प्रवाह देने का अर्थ उन्हें सादर ससुराल भेजना है। सामा ससुराल जा रही है। स्त्रियों का हृदय वियोग-वेदना से फटा जा रहा है। लहराती, हहराती नदी धार में दूर जाती डगमगाती डोली को देख वे विकल हो उठती हैं—

गहरा ई-ई नदिया या-या अगम बहे धारा अकिरा,

मारे कि सामा रे चकेवा मोरा डूबियो न जाए,

धीरे-धीरे जाऊँ आहे भईया रे मलाहवा,

कि सामा रे चकेवा मोरा भसियो न जाए,

रोई रोई मरली ई-ई मिथिला के सखी सब,

कि अआरे रामा सामा मोरा घुरि फिरी आऊ।

डोली जब तक आँखों से ओझल नहीं हो जाती तब तक वे उन्हें अगले वर्ष के लिए आमंत्रित करती हुई उसके सकुशल यात्रा के लिए शुभकामनाएँ देती हुई गाती रहती हैं।

वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ. उषा वर्मा कहती हैं, मिथिलांचल में लोक पर्व सामा-चकेवा भाई-बहन के प्यार और प्रेम के प्रतीक के रूप में मनाया जाता हैं और यह भाई-बहन के अटूट प्रेम को दरशाता है।

इस संबंध में एक कथा यह है कि सामा भगवान् श्रीकृष्ण की बेटी थीं। किसी कारणवश भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे शाप दे दिया। फलस्वरूप वह चिड़िया बन गई। तत्पश्चात् सत्यभामा के अनुरोध पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि पृथ्वी पर उनकी पूजा होगी, जिससे भाई की आयु बढ़ेगी।

वस्तुतः यह एक सामाजिक पर्व है। इस अवसर पर गाँव की महिलाएँ एकत्र होकर आपस में मिलती-जुलती हैं और आनंद मनाती हैं।

व्योम, पी.डी. लेन,
महेंद्रू, पटना-800006 (बिहार)

दूरभाष : 9304455515

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