रूपांतर

रूपांतर

दोपहर का सूरज अपना प्रभाव पूरी ताकत से दिखा रहा था। गरमियों के मौसम में चमड़ी को जला देने वाली प्रखर गरमी के बीच अहमदाबाद के गीता मंदिर के एस.टी. बस डिपो पर लोगों की भीड़ जमी हुई थी। कोई बैठा हुआ था, कोई सो रहा था, कोई बैठने की जगह न मिलने के कारण जमीन पर लोट रहा था तो कोई भाग-दौड़ कर रहा था। फेरीवाले बासी समाचारों को नए रंगरूप में ढालकर अपनी रोजी कमा रहे थे। कोई नई-नवेली दुलहन चार-पाँच वृद्ध पुरुषों और पाँच-सात थैलों के साथ लंबा सा घूँघट निकाले हुए पानेतर में बहुत सुंदर दिख रही थी। पास में ही कोई कॉलेज कन्या नेरोकट जींस तथा बिना बाँह के सफेद टी-शर्ट से अपनी काया को सुंदर बनाकर अपने पास खड़े पुरुष प्रेमी को ललचा-नचा रही थी। पानी के पाउच, गन्ने का रस, कुल्फी आदि चीजें बेचनेवाले लोगों की आवाजें एक-दूसरे को छेद रही थी। गरमी ज्यादा लगने के कारण मैं हवा खाने की तलाश में पंखे के नीचे जाकर खड़ा हुआ, लेकिन पंखा तो मात्र दिखावे के लिए ही अपने पंख घुमा रहा था। मैंने वहाँ से खिसकने का विचार किया तभी एक फटी हुई चड्डी और बिना बटन वाला शर्ट पहने एक आठ-दस साल के लड़के ने मेरे पैरों को छुआ। मैं एकदम से चौंक गया। मैंने उसकी ओर देखा। वह बोला, ‘साहब बूटपॉलिश?’ पहले तो मैंने मना कर दिया। फिर वह अपने पेट की तरफ इशारा करके प्रार्थना करने लगा। मुझे उस पर दया आई। मैंने हाँ कहा। अपने जूते निकालकर उसको दिए। उसने एक काँच की बोतल में से थोड़ा सा काला पानी निकालकर एक कपड़े में लेकर कपड़ा जूते पर घुमाया और ब्रश घिसकर जूते चमकाए। मैं मन-ही-मन हँसने लगा। वह पाँच रुपए लेकर आगे की तरफ चला फिर दौड़ने लगा। मुझे फिर हँसी आई और फिर उसके लिए मन में दया उत्पन्न हुई।

घड़ी में देखा तो दो बजने वाले थे। अब बस लगाई जाए तो अच्छा है। बस का समय हो चुका था। तभी लाउडस्पीकर में भारी और खोखरी सी आवाज सुनाई दी, “अहमदाबाद से सुदामडा लोकल बस चलने की तैयारी में है।” यह सुनकर मैं तुरंत दौड़ा। बस जानी पहचानी सी लगी। धक्का-मुक्की करते-करते मैं बस में चढ़ा और बैठने की जगह मिलते ही राहत की साँस ली। बस चली तो और ज्यादा राहत महसूस हुई। खिड़की में से थोड़ी-थोड़ी देर में आने वाली हलकी ठंडी हवा से शरीर को और भी राहत मिली।

वतन में बुजुर्गों ने गाँव के साधु, ब्राह्मण तथा पुजारियों को भोजन तथा दान-दक्षिणा देने का उत्सव रखा था। कल ही कोल आया था, उत्सव की सभी तैयारियाँ हो चुकी है, मुझे मात्र वहाँ उपस्थित होना है। मैं तुरंत ही वहाँ जाने के लिए निकल पड़ा। तेरह-चौदह साल तक वतन में बिताए हुए अपने बचपन के समय के चार-पाँच पक्के साथी कहे जा सके, ऐसे मित्र भी वहाँ थे। मन में उन सभी की अलग-अलग प्रकार की छवियाँ स्मरण होने लगी। वह गाँव, वह मुहल्ला, वह हनुमानजी का छोटा सा मंदिर, विद्यालय, बरामदा, खेत-बाड़ी, पनघट, दरवाजे, रास्ते, गोला, कुल्फी, पान-मसाला, इमली-पीपल, छुपम-छुपाई, खो-खो, मारपीट, रूठना-मनाना और न जाने ऐसी कितनी सारी यादें मेरे मन में दृश्य होकर चलने लगी और तभी रुकी, जब मेरी बगल वाली सीट पर कोई आकर बैठा। उनका शरीर भारी और चेहरा अरुची पैदा करें ऐसा था। हालाँकि उन्होंने जरा सा मुसकराकर मित्रता बनाने का प्रयत्न किया, लेकिन मैं अपने मनोरम्य आनंद को गुमाना नहीं चाहता था। इसी कारण उनकी तरफ मंद मुसकान दिखाने के बाद खिड़की खोलने के बहाने मैंने खिड़की की ओर देखा और बाहर की दुनिया को निहारने लगा।

सूरज एकदम सिंदूर के लाल रंग जैसा बना हुआ अस्तशिखर की तरफ आगे बढ़ रहा था। घड़ी छह बजे का समय दिखा रही थी। “अब तक तो सुदामड़ा आ जाना चाहिए था।” जरा सा खड़ा होकर देखा कि तभी बस की ब्रेक लगी। काले बोर्ड पर सुदामड़ा नाम पढ़ते ही मैं जरा सी धक्का-मुक्की के साथ नीचे उतरा और घर तरफ चलने लगा। एक-एक पल के साथ बचपन की यादें ताल से ताल मिला रही थी। कुछ जाने पहचाने लोग स्मित देते तो मैं भी उनके सामने उनको पहचानने का भाव दिखाते हुए सहज स्मित करता। अंत में अपने गली की तरफ मुड़ा तो सामने से कालिया आ रहा था। वह अपने नाम के हिसाब से जन्म से ही काला था। इसलिए नाम ढूँढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी। जन्म के बाद ही नाम रख दिया गया ‘कालिया’। मुझे अपने बारे में भी दादी की कही हुई बात याद आई, “तुम पूनम के दिन पैदा हुए थे, इसलिए तुम्हारा नाम पूनम ही रखने का विचार था, लेकिन उसी समय और उसी दिन पैदा हुई एक लड़की का नाम पूनम रख दिया गया, इसलिए हमने तुम्हारा नाम हर्षद रख दिया।”

मैं कालिया की तरफ ही देखता रहा। वह था उससे भी ज्यादा काला हो गया था। आधी उम्र में भी वह पूरा-पूरा वृद्ध व्यक्ति जैसा दिखता था। आँखें अंदर चली गई थीं और रूखी-सूखी और नीरस लग रही थीं। उसके एक हाथ में घी का खाली कटोरा था और दूसरे हाथ में माचिस की डिबिया थी। गंदे-गंदे कपड़ों में वह था। उसने मुझे पहचाना और गले मिलने के लिए आगे बढ़ा और तुरंत अटक गया। शायद शर्म-संकोच के कारण। लेकिन मैं खुद को रोक ही नहीं पाया और तुरंत ही उसे गले से लगा लिया। दोनों की आँखों में से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। बरसो-बरस बीत जाने के बाद का मिलन कृष्ण-सुदामा के मिलन जैसा लग रहा था। वह मेरे बचपन का साथी। उस वक्त भगवान् को नहीं जानते थे, लेकिन भगवान् से भी ज्यादा उसी के नाम का रटन होता रहता था और उसकी उपस्थिति से स्वर्ग जैसा सुख प्राप्त होता था। आलिंगन से छूटने के बाद वह रुकते अटकते हुए बोला, “हर्षद, तूने तो गाँव की माया ही छोड़ दी? इतने सालों के बाद फिर से गाँव की याद कैसे आई?” मैं रुदन भरे कंठ से थोड़ा स्वस्थ होकर बोला, “कालिया, यह तो हम कालक्रम के चक्करों मैं गोल-गोल घूम रहे हैं, मिलना-जुलना और दूर होना यह सब तो कुदरत के खेल है, लेकिन कालिया तेरी हालत तो एकदम बिगड़ी हुई सी, ऐसा तो क्या...” मेरी बात बीच में ही रोकते हुए वह बोला, “यहाँ माता सुन लेंगी, यहाँ रुकने का इरादा हो तो शाम को या फिर कल चाय-पानी करने आना। नए मुहल्ले में मकान बनाया है।” और वह चलने लगा।

गली में दो पंथ पड़ते थे। बाईं तरफ मेरा घर था और दाहिने तरफ उसका घर था। हालाँकि अब यह वाला घर उसके लिए पुराना घर था। मुझे इस तरफ जाकर देखने की इच्छा हुई और मैं जरा सा उस तरफ मुड़ा। वहाँ सबकुछ एकदम वीरान और सुनसान लग रहा था। चार-चार लंबे-लंबे कमरे और बरामदे के एक भी छत पर नरिये नहीं थे और सब लकड़ियाँ ऊँची-नीची, उल्टी-पूल्टी और बस गिरने की तैयारी में ही थीं। दीवारों पर से पपड़ी उखड़ गई थी और लिंपन की जगह पर गड्ढे बन गए थे और उन गड्ढों में कुत्ते पैर सिकोड़े सो रहे थे। कहीं-कहीं पर बबूल, बेर और मदार जैसे पौधे उगे हुए थे। सब देखते-देखते अंत में मेरी नजर माता रानी के मंदिर तरफ पहुँची। वह पूरी तरह सही सलामत और एकदम मजबूत था। लाल-लाल मशरू के कपड़े में सुशोभित आसमान के तोरन और नारियल के हार से मंदिर सुशोभित लग रहा था। भीतर मुलायम से रेशमी वस्त्रों में सजी हुई माताएँ सुशोभित लगती हुई मुसकरा रही थीं। कालिया जो दीया जलाकर गया था, वह अभी बस बुझने की तैयारी में ही हो, उस प्रकार भभूक-भभूक लबझब हो रहा था। मैंने बगल थैला जमीन पर रखा और दो हाथ जोड़कर आँखें बंद करके जरा झुककर दर्शन किए और फिर अपने घर की तरफ चल पड़ा।

शाम का खाना पीना खत्म करके कालू का घर ढूँढ़ने निकल पड़ा। इस तरफ घूमो, उस तरफ घूमो, सीधे जाओ, वो...वो रहा कालू का घर और घर दिखते ही बाहर खड़ा हुआ कालू भी दिखा। मेरा हाथ खींचकर इशारा करके घर में ले जाते हुए बोला, “हर्षद! यह है हमारी झोंपड़ी, तुम्हारी तरह बँगला तो हमारे पास...” और वाक्य को बीच में ही अटकाकर मैं बोला, “बँगला तो हमारे पास भी कहाँ है, मैं भी सोसाइटी में...” बाद में दोनों चारपाई पर बैठे। उसकी पत्नी शर्म का लंबा सा घूँघट निकाले पानी का लोटा दे गई। चमकते हुए पीतल के लोटे में से गाँव के कुएँ का अमृत समान पानी पीते-पीते मेरी आँखें उसकी आँखों की तरफ गई। घर का कोना-कोना गरीबी का सूचन कर रहा था। मैंने लोटा नीचे रखा और पूछा, “यह घर नया और वहाँ कोई...सभी...” कालू पैर के अँगूठे से जमीन को कुरेदता हुआ चुपचाप बैठा था। वह गहरी आह भरकर करीब मासूम होकर बोलने लगा।

“वहाँ माता को सिकुड़न पड़ती थी, उन्हें हमें वहाँ से निकालना था तो सभी घरों में से एक-एक को उठाने लगी। शुरुआत में रमन काका, फिर परभु, फिर जगादादा, फिर समजु माँ और फिर...” यह सभी एक-एक नाम सुनते-सुनते मानो जैसे मेरे ऊपर बिजली सी गिर रही हो, ऐसा लगने लगा। कालिया के जितना ही लाड़, प्यार, स्नेह देने वाले वे सभी लोग समय के साथ चले गए? उतने में ही कालू की पत्नी एक हाथ में चाय की केतली और दूसरे हाथ में दो पीतल की रकाबी लेकर आई, मैंने रकाबी पकड़ी, कालू ने उसमें चाय डाली, एक रकाबी उसने भी पकड़ी, मैंने चाय मुँह को लगाई, वही उसने बात आगे बढ़ाई—“हम सभी के घरों में से एक-एक व्यक्ति चला गया तो हमारे मन में शंका हुई कि पक्का कोई बाधा अड़चन रूप बनी हुई है। माता हमसे रूठ गई है। और कहीं हमें भी...पंच के आगे प्रार्थना करने लगे और उन्होंने गाँव के बाहर हमें मकान बनाने के लिए जगह दी और यहाँ हमने अपने मकान बनाएँ।” मेरी आँखों में से टप-टप बहते आँसू चाय में घुल गए और जैसे-तैसे करके मैंने चाय पेट में उतारी। वह अभी भी सन्निपात हुआ हो, उस प्रकार बात आगे बढ़ रहा था, “अब कुछ समय से किसी की मृत्यु हुई नहीं है और दीया-बाती तो करनी ही पड़ती है न। हम खाते-पीते हैं तो माँ को भी...हम चारों घरों ने बारी-बारी से माँ के मंदिर में दीया-बाती करने का फैसला किया। अभी मेरी बारी चल रही है, माता है, आज रूठी है तो कल मान भी जाएगी, और सबकुछ सही करेंगी, दीया करने के लिए घी न हो तो उधारी करके भी...बाकी हम सब तो सूखी रोटियाँ ही...” वह अपने आप को मेरे सामने पूरा-पूरा उगल देता, अगर उसकी पत्नी ने उसे रोका न होता तो। वह चाय की पत्तियाँ छलनी में से दीवार तरफ फैंकते हुए बोली, “छोड़ो भी अब माँ की बातें, आपके मित्र इतने सालों बाद आए हैं तो कोई अच्छी बात कीजिए न।” उसके बाद कुछ गाँव-परगाँव, खेती, बरसात, तालाब, विद्यालय और ऐसी-ऐसी बातें करके मैंने उसके घर से बिदा ली।

घर आकर पानी पीकर चारपाई में लेटा, घड़ी में बारह बजने की घंटियाँ सुनाई दीं। आँखें बंद करके सोने का प्रयत्न किया, लेकिन अंदर की तड़फड़ाहट सोने नहीं दे रही थी। कालू की वेदना से भारोभार छलनी हुआ मैं झपकियाँ ले-लेकर जग जाता था। कालू और मैं दो जिस्म एक जान। घर के बीच दीवार मात्र कहने के लिए ही थी। उसका घर-मेरा घर, मेरा घर-उसका घर। बचपन के उस स्वर्ग समान समय में विद्यालय से घर आकर माता का मंदिर साफ-सुथरा करते। माताओं की मूर्तियाँ हाथ में ले के नहलाते, कपड़े पहनाते, हाथ में त्रिशूल लगाते, उनके स्थान पर सजाते, कभी-कभार उनके साथ बातें भी करते। कभी-कभार गृहकार्य बाकी रह जाने पर मास्टरजी की मार खाने से बच जाते तो आधे-आधे पैसे निकालकर नारियल चढ़ाते। धूप-दीया पूरे मुहल्ले में घुमाते। छुपम-छुपाई खेलते-खेलते माता के मंदिर में छिप जाते और माँ की तरफ देखकर मुसकराते। कभी-कभार उसी माँ की कसम भी खाते, लेकिन सच्ची कसम। उस समय माँ से डर नहीं लगता था, बल्कि माँ प्यारी लगती थी।

कभी-कभार माता की पूजा भी होती, वह तीन-तीन दिन तक चलती, लोगों की भारी भीड़ जमा होती और तांत्रिक जब हाजिर होते, तब माता का मंदिर और माँ डरावनी सी लगती। रात को छत पर खिड़की के पास सोता और कालिया बार-बार बुलाया करता, लेकिन उन तीन दिनों तक मैं उस तरफ बिल्कुल भी नहीं जाता। आधी रात को कालू कसम देकर ले जाता। मैं उसके पास ऊँचे पैर रखकर ही बैठता, ताकि भागने में ज्यादा समय न लगे। चारों तरफ एकदम लाल-लाल मंडप बँधा होता, मंदिर के अंदर तांत्रिक बैठे होते और लंबे से घूँघट में अलक-मलक की बातें होती रहती। धूप की और तीस नंबर खाखी वीडियो के धुएँ की गंध एक-दूसरे में घुल-मिलकर चारों तरफ अपना प्रभाव दिखाती। बीच-बीच में चुस्कियाँ लेते हुए चाय भी पी जाती। विविध वाद्य बजने शुरू होते और थोड़ी ही देर में आँखें बंद करके बैठे हुए तांत्रिक के शरीर में कंपन शुरू होते ही आँधी में जैसे पेड़ डोलने लगते, उस प्रकार वह डोलते। वह हु... हा...हीईई...हीईई की चीखे निकालते, जुबान बाहर निकालते, तलवार बिंधते, जंजीर घुमाते और भी ज्यादा डरावने लगते। छोटे बच्चे अपनी माँ के आँचल मैं और भी ज्यादा अंदर छिप जाते। कोई रोने लगता, एक के बाद एक स्त्री-पुरुष खड़े होकर उनके सामने अपना दुख व्यक्त करते। कोई घर, कोई पति, कोई संतान माँगते। तांत्रिक खम्मा-खम्मा कहकर वचन देते और लेते। अजब गजब की उलझने और उपाय उस समय भी मुझे समझ में नहीं आते थे और आज भी वह सब मेरी समझशक्ति की पहुँच से बाहर ही हैं। अंत में तकिया आँखों पर दबाकर करवट बदली और न जाने कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।

पूरा दिन उसी उत्सव में खत्म हो गया। कालू सुबह से ही मेरे साथ ही रहा था। उसकी पत्नी भी घर के कामों में बिना कहे ही लग गई थी। बहुत आग्रह करने के बाद बड़ी मुश्किल से दोनों ने खाना खाया और फिर चले गए। कालू ने यह मुहल्ला छोड़ा तो यह बात उससे ज्यादा मुझे सता रही थी। यही विचारतंतु टूटता-बँधता हुआ मेरे मन में बारबार घूम रहा था। “दीया-बाती करे उसे ही दुःख? घर में तेल की बूँद भी दुर्लभ और माँ झिलमिल! मनुष्य का घर, आँगन, छत, सब खुला और मनुष्य भी जीते जी मर जाए, फिर भी माता का मंदिर तेजोमय चमक-धमक! इनसान दुःख के मारे रो-रोकर रोना भी भूल जाए, पर माता का तेजोमय प्रकाश वैसा-का-वैसा ही! कालू की श्रद्धा को बेशक सलाम करने का मन हो जाए, लेकिन श्रद्धा की भी कोई-न-कोई तो सीमा होगी न!” अलग-अलग कार्य खत्म करते-करते मन समक्ष कालू का रुदन भरा चेहरा और माता का हास्य स्मित भरा चेहरा बार-बार आर-पार एक-दूसरे को बींध रहे थे। शाम तक तो माता का मंदिर कोई संग्रहस्थान और माँ की मूर्ति किसी शिल्पी ने पत्थर में से बनाई हुई शिल्प की प्रतिमा में परिवर्तित हो गई। इसी कारण शहर तरफ वापस जाते वक्त उस तरफ मेरे पैर जरा से घूमे, फिर तुरंत वापस घूम गए और उल्टा घूमकर मैं वहाँ से चलने लगा!

गाँव-भलाणा, तालुका-हारीज,
जिला-पाटण-३८४२५५ (गुजरात)

दूरभाष : 9537897795

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