दीये का दीया

एक संत ने दीपावली पर माटी के दीये जलाने का सुझाव देते हुए पूछा, “इससे कितने परिवारों को मदद मिलेगी।” एक ने उत्तर दिया, “एक कुम्हार के परिवार को।” दूसरे ने उत्तर दिया, दो को “कुम्हार व तेली के परिवार को।” तीसरे से पूछा, उसका उत्तर था तीन, “कुम्हार, तेली व जुलाहे के परिवार को।”

“संत ने कहा, जवाब अभी भी अधूरा है, चौथे ने कहा, “उपरोक्त के अलावा किसान के परिवार को भी अप्रत्यक्ष रूप से मदद मिलेगी।”

संत बोले, अभी भी उत्तर में कसर बाकी है। पाँचवे ने कहा उक्त चार परिवार के अलावा “किसान के यहाँ कपास बोने वाले मजदूर परिवार, कपास के बीज बेचने वाले व्यापारी परिवार, कपास तोड़ने वाले मजदूर परिवार, कपास शहर ले जाने वाले गाड़ी मालिक एवं गाड़ी चालक के परिवार को यहाँ तक कि तेल के उद्योग से जुड़े सभी परिवारों को मदद मिलेगी।”

गहराई से सोचने पर पता चलता है कि एक दीपक कितने घरों में चूल्हा जलाने की क्षमता रखता है, अर्थात् दीया प्रज्वलित करने की इस दैवीय प्रथा से कितने परिवार लाभान्वित होते हैं। इसका लाभ अनंत रहेगा। संत खुश हो गए।

संत बोले, बिना सोचे हम भारत की सुप्रथाओं को बंद कर रहे हैं। विदेशी लेम्प जला रहे हैं। मिट्टी के दीये जलाने से दीये जलने वाले परिवार का अंधकार दूर होगा और देवता भी प्रसन्न होंगे।

अतः माटी के दीप जलाने की प्रथा जारी रखें, “दीये ने बहुत कुछ दिया है।” ये घर ही नहीं देश का अंधकार भी दूर कर सकता है। “लोकल दीये को वोकल बनाएँ।” स्वदेशी अपनाएँ—“वस्तुएँ भी संस्कार भी।”

साहित्य कुटीर,

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