कला-संस्कृति के संरक्षण को समर्पित अमीरचंदजी

कला-संस्कृति के संरक्षण को समर्पित अमीरचंदजी

माननीय अमीर चंदजी से मेरा संबंध दशकों पुराना है। हमारे इस आत्मीय संबंध की धुरी पूर्वोत्तर ही थी। उस समय तक मेरे कई रेडियो धारावाहिक पूर्वोत्तर की रामायण एवं लोककथाओं पर प्रसारित हो रहे थे। अचानक एक दिन भाईजी हमारे घर पधारे और हमें कला और संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन को समर्पित ‘संस्कार भारती’ की पूर्वोत्तर शाखा से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया। मैं उनके व्यवहार को देखकर चमत्कृत थी, क्योंकि तब तक मैंने किसी भी संगठन के पदाधिकारी को अपने जैसे साधारण से व्यक्ति तक स्वयं पहुँचकर इस तरह आमंत्रित करते नहीं देखा था। साहित्य और कला क्षेत्र से जुड़े कला-साधकों के प्रति उनकी आत्मीयता और अपनेपन के भाव को उनके साथ काम करते हुए, मैंने हर क्षण निकटता से देखा है। सुदूर जनजातीय क्षेत्र के नन्हे बच्चों के हाथों से बने हुए अनगढ़ से चित्र हों या कला मर्मज्ञ विद्वज्जनों की अप्रतिम कृतियाँ, सभी को सम्मानित करना हमने उनसे सीखा है। भाईजी हर छोटे-बड़े से कुटुंबी सा निकट संबंध बना लेते थे।

मैं हमेशा हैरान होती रही हूँ कि आत्मप्रशंसा से ग्रसित आज के युग में भी श्रद्धेय अमीरचंद भाईजी अपने साथ काम करते हुए हर कार्यकर्ता के सुख-दुःख की चिंता, उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं का समाधान इस तरह चुपचाप, बिना कोई ढिंढोरा पीटे करते रहे कि जब तक लाभार्थी स्वयं नहीं बोलता, तब तक किसी को पता ही नहीं चलता।

सदा सरल, सौम्य और मृदुभाषी तथा बच्चों के बीच बच्चों से और बड़ों के बीच गंभीर व्यवहार करने वाले भाईजी काम के समय किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता रंचमात्र भी सहन नहीं करते थे। कार्यक्षेत्र में नियमों का उचित ढंग से परिपालन वे स्वयं भी करते और हम सबसे भी उनकी यही अपेक्षा रहती थी। ‘पूर्वोत्तर की सांस्कृतिक यात्रा’ में ६ घंटे की खड़ी चढ़ाई के बाद १४ अक्तूबर, २०२१ को उषा वेला में नागालैंड की ‘जुको घाटी’ में शाखा का संचालन करते माननीय अमीरचंदजी। उनके साथ गए समूह के सुरों में संघ की प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिंदुभूमे सुखम् वर्द्धितोऽहम’ के सामूहिक उद्घोष की पावन स्मृतियाँ हम सबको हमेशा हर काल, हर स्थिति में नियमों के, निष्ठा से पालन की प्रेरणा देती रहेंगी।

कला और संस्कृति के प्रति उनका दृष्टिकोण समसामयिक और प्रगतिशील था। ‘संस्कार भारती’ के विविध आयोजनों की आधारभूमि उनका यही दृष्टिकोण रहा है। पिछले सभी प्रयोगों के साथ-साथ कोरोना काल का दंश झेल रहे कला-साधकों की पीड़ा के प्रति उनकी संवेदनशीलता से जन्मा ‘पीर पराई जाने रे’ कार्यक्रम भी इसी शृंखला से जुड़ा है। इस कार्यक्रम की परिकल्पना के संदर्भ में विरोध के कई स्वर भी उठे थे, पर सब की अनदेखी कर उन्होंने समाज की इस विकट चुनौती के समाधान के जोखिम भरे काम का दायित्व निर्द्वंद्व भाव से उठाया। हम सब जानते हैं, यह आयोजन समाज और कलासाधकों के बीच कितनी सकारात्मकता लेकर आया है।

उन्होंने जब हमें कोई योजना बनाने को कहा, तब अपना यह विचार बहुत स्पष्ट रूप में रखा कि हम जब भी अपनी योजनाओं में जनहित पर ध्यान केंद्रित करके उनका क्रियान्वयन करेंगे तो संगठन का हित अपने आप हो जाएगा। संस्कार भारती कला के माध्यम से जनहित के लिए इसी का अनुसंधान सकती है। हमारा लक्ष्य इसी का अनुसंधान, इसी की निरंतर खोज होना चाहिए। अपनी लक्ष्यसिद्ध‌ि के लिए हमें कलाकारों को जोड़ने नहीं, उनसे जुड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना होगा, क्योंकि कोई भी साधक किसी से नहीं जुड़ता, वह तो केवल अपनी कला से जुड़ता है। लोग स्वयमेव उनसे जुड़ जाते हैं। ऐसे ही लोग ऋषियों की तरह जनहित के लिए समर्पित रहते हैं।

कला-संस्कृति के प्रति उनके दृष्टिकोण की बात करते हुए मैं उनके जीवन के अंतिम दिन के अंतिम व्याख्यान का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक मानती हूँ। अपने इस व्याख्यान में कीर्तिशेष अमीर चंदजी ने अरुणाचल प्रदेश के बोमडिला उत्तर कमेंग के लामाई परंपरा के १२वें लामा द्वारा स्थापित गोम्जे गेदेन राब्ग्ये लिंग मठ (Gomse Gaden Rabgye Ling Monastery) में १६ अक्तूबर, २०२१ को भोर की वेला में वहाँ के भिक्षु प्रमुख, सचिव एवं अन्य अधिकारियों ने अरुणाचल क्षेत्र के जनजातीय विश्वासों पर मँडरा रहे सांस्कृतिक आक्रमणों की समस्याओं को भाईजी के सम्मुख रखा था, उनके समाधान के लिए माननीय भाईजी ने अपने विचार रखते हुए एक बहुत महत्त्वपूर्ण समाधान दिया, जो मेरी दृष्टि में इस क्षेत्र में काम करनेवाले कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन वर्तमान में भी और भविष्य में भी करेगा। उन्होंने कहा, “मुझे लगता है समय के अनुसार यदि परंपराओं में परिवर्धन किया जाए तो यह अच्छा है। हमारी आने वाली पीढ़ियों को यह न लगे कि यह हमारे लिए नहीं है। यह तो संयासियों के लिए है। यह तो केवल मठों में ही चलेगा, जीवन में नहीं चल सकता। हमें इस दिशा में काम करना चाहिए। सुजाता की खीर का उदाहरण लीजिए। यदि चित्रकार ने चित्र में इस घटना को न दिखाया होता, इसकी कोई नाट्य प्रस्तुति न होती तो सुजाता की खीर को कौन जानता? यह सब कलाओं के माध्यम से लोगों तक पहुँचा है। हमें समाज के सामने कला और संस्कृति के माध्यम से आना चाहिए। इस तथ्य पर गंभीर विचार करना चाहिए।”

वास्तव में समाज के सामने उभरकर आने वाली हर समस्या और विसंगति को श्रद्धेय अमीरचंदजी कला और संस्कृति के माध्यम से दूर करने के पक्षधर रहे हैं। जीवनपर्यंत वे इस सत्य को मानते रहे कि भारत की समृद्ध संस्कृति ही समग्र विश्व को प्राणवायु देने का कार्य कर सकती है।

१६ अक्तूबर, २०२१ को सेला दर्रे के निकट सीमा सड़क संगठन (BRO) द्वारा सड़क निर्माण किया जा रहा था, इस कारण ४० मिनट तक अवरुद्ध हुए मार्ग ने कला और संस्कृति के पुरोधा एवं भारतीयता की विरासत को नई पीढ़ी तक पहुँचाने वाले कर्मशील मार्गदर्शक के प्राण बचाने के क्रम को अवरुद्ध कर दिया। आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी को उनके महाप्रयाण का दिन! सभी प्रकार के दैहिक, वाचिक एवं मानसिक तापों पर अंकुश लगाने वाली पापांकुशा एकादशी का दिन ‘मौन व्रत’ के महत्त्व से जुड़ा है, परंतु अमीरचंद भाईजी ऐसा मौन व्रत लेकर स्वयं ही उस परमसत्ता में समाहित हो जाएँगे, ऐसा हम नहीं जानते थे।

अमीरचंद भाईजी की परिकल्पनाओं को साकार करने में अपनी भागीदारी निभाकर मैं अपने अत्यंत आत्मीय ‘भाईजी’ को सदा स्मृतियों में जीवंत रखना चाहती हूँ।

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