एक दीये की दीवाली

एक दीये की दीवाली

गणेश किसी से हार मानने वाला नहीं था। मधुवनी के छोटे से गाँव के कोने में बसी दस झोंपडि़यों में से एक झोंपड़ी उसकी थी। उसका जीजा उसे शहर उठा लाया था। उमर होगी पंद्रह-सोलह की। यह तो हमारा अनुमान था। जब उसकी माँ को ही बेटा के जन्म की न तिथि, न महीना, न साल याद थे तो बेटा को क्या पड़ी थी अपना जन्मदिन याद रखने की! उसे कौन सा अपना जन्मदिन मनाना था और हर जन्मदिन पर मोमबत्ती की एक संख्या बढ़ानी थी!

‘गणेश, तुम कितने साल के हो?’ मेरे बेटे ने पूछा था।

‘हम...अ...अ...हम दस साल के हैं।’

‘चल हट! मूँछ निकलने को आईं और दस साल का है! झूठा कहीं का!’

वह रोनी सूरत बनाकर मेरे पास आ गया—‘मम्मी, मैं दस साल...’

‘हाँ-हाँ, तुम नौ साल के ही हो। जाओ, काम करो—डस्टिंग कर लो। गमलों में पानी डालो।’

वह बिहँसता हुआ अपने काम में जुट जाता। उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने के लिए मैं ही तो अकेली थी उस घर में। दिल्ली आए उसे छह महीने हो गए। जिस दिन उसका जीजा उसे मेरे पास लेकर आया था, उसे उठने-बैठने का भी सऊर नहीं था। अकसर बाहर बालकॉनी में जाकर खड़ा हो जाता। आसमान या सामने पार्क की हरी-भरी धरती पर निगाहें टिकाए पता नहीं क्या सोचता रहता।

‘गणेश, क्या कर रहे हो?’ चौंक उठता गणेश। उसके हाथ में घर की सफाई करने का जो भी हथियार उस वक्त रहा हो, उसे चलाने लगता। कभी पोंछा लगाते-लगाते बीच कमरे में ही खो जाता, पोंछा पकड़े अन्यमनस्क बैठे गणेश को मेरे घर का कोई सदस्य टोक दे—‘गणेश, सो गए क्या?’ तो उसका हाथ चलने लगता। काम के बीच में स्वेच्छा से मारे मध्यांतर के समय की क्षतिपूर्ति में हाथ की रफ्तार तेज हो जाती।

एक माह तक तो हम घरवाले अकसर आपस में चिंता व्यक्त करते—‘गणेश कुछ बोलता क्यों नहीं?’

स्वाति नक्षत्र की बूँद धरती पर पड़ते ही गणेश कंठफोड़ हो गया। और प्रतिदिन दो-चार-पाँच शब्दों से बढ़ाकर शहर में अपनी आयु के दूसरे महीने में प्रवेश करते ही जिस दिन पाँच सौ शब्द बोल गया, मेरे बेटे ने डाँटा—‘क्या बात है, हर समय बक-बक करते रहते हो?’

वह हाथ मटकाकर, सिर हिलाकर कहता, ‘हम कहाँ बक-बक करते हैं? हम कह रहे थे...।’ और उसका कहना कोई दूरदर्शन पर दिखाए गए सार्थक दृश्यों की तरह अल्पायु का नहीं होता था। गणेश का हर कथन कई-कई दिन चलनेवाली लोक-कथाओं की तरह जारी रहता।

हमें इतना अवश्य मालूम पड़ गया था कि छह महीने में छह क्षण के लिए भी गाँव, खेत-खलिहान-झोंपड़ी और माँ से उसका बिछोह नहीं हुआ था। अपने पीछे छोड़ आए गाँव और परिवेश के प्रति कोई हीन भाव भी नहीं था उसके मन में।

उस दिन बड़े मनोयोग से खीर बनाई थी मैंने। पूछा, ‘गणेश, खीर खाई? कैसी लगी?’ इस विश्वास के साथ कि गणेश की जिह्वा पर चार लीटर दूध में सौ ग्राम चावल और मेवेवाली खीर शायद पहली बार पड़ी होगी।

मेरी खीर की प्रशंसा कहाँ करता वह। वह तो अपनी माँ द्वारा बनाई एक पाव दूध, आधा किलो चावल, दो लीटर पानी और आधा किलो गुड़ में बनी खीर के स्वाद में डूब गया।

‘हे...अ...अ! मम्मी...अ...अ! हमरो माय खीर बन बइत रहे। बड़ा मीठ। मुँह से न छूटे। हे हमर बाबू...अ...अ खूब खाइत रहे खीर। पूरा थाली भर के। हे...अ...अ फगुआ (होली) के दिन भर थाली खीर देलक हमर माय हे...अ...अ...अ...अ।’

उसकी माँ ने भी होली के दिन अवश्य खीर बनाई होगी। पर मेरी खीर और उसकी माँ की खीर के रूप, रंग, स्वाद में अंतर का अनुमान तो मुझे था। गणेश ने हलके से भी मेरी खीर की प्रशंसा नहीं की। लगता है, मेरे द्वारा दी गई एक छोटी सी कटोरी में चार चम्मच खीर थामे वह अपने अतीत में पहुँच माँ द्वारा पूरी थाली भरकर परोसी गई खीर के स्वाद में डूब गया। मेरी खीर का स्वाद उसकी जिह्वा पर उतरा ही कहाँ!

उसके द्वारा यही गति मेरे घर में बने अन्य व्यंजनों की भी होती। किचेन में बेसन की सब्जी, मक्की की रोटी, सूजी का हलवा बनाना प्रारंभ हो, गणेश शुरू हो जाता—‘हे...अ...अ हमरो माय बनवइत रहे अ...अ...अऽ’ और फिर अपनी माँ द्वारा उस व्यंजन के बनाने की कथा का श्रीगणेश कर वह इतिश्री भागवत कथा प्रथमोऽध्याय के लिए कहाँ थमता था।

निश्चय ही उसकी झोंपड़ी और दिल्ली में मेरे तीन कमरे के फ्लैट की तुलना में ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ कहावत का कद भी ओछा पड़ जाता। पर गणेश तो गणेश था। मेरे मार्बल पत्थर लगे फर्श पर पोंछा फेरता, अपनी माँ के गोबर-सने हाथों को समेट हृदय से लगा सराबोर हो जाता।

‘हे हमरो माय घर लिपता है। रोज-रोज। गोबर से...अ...अ।’

‘चुप कर। शुरू हो जाता है।’ अपने को कम आँकने की उसकी औकात नहीं थी। मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता था। गणेश की उम्र के बच्चों द्वारा अपनी माँ को सर्वोच्च साबित करना मुझे सुखकर लगता। पर मेरे बारह वर्षीय बेटे से उसकी अकड़ बरदाश्त नहीं होती। दोनों में अकसर ठन जाती। मुझे बीच-बचाव करना पड़ता। उसकी मैथिली में हिंदी घुलती जा रही थी। मेरे बेटे ने उसे पराजित करने के लिए अंग्रेजी बोलना प्रारंभ कर दिया। गणेश मुँह बिचकाता बोला, ‘हूँह! हमरो माय...अ...अ...अ।’

हम सब ठहाका मारकर हँस पड़े। वह चुप हो गया। पर चेहरे पर शर्मिंदगी नहीं थी। हम जैसे नासमझों को अपनी न समझा पाने की बेबसी अवश्य थी। जबरन हँसी रोकती मैं बोली, ‘क्या तुम्हारी ‘माय’ भी अंग्रेजी बोलती है?’

हम सबके बीच हँसी का एक और ज्वार उठा। पर गणेश हँसा नहीं। पहली बार गंभीर हो गया। दिन भर गंभीर ही रहा। शाम को उसे सहज बनाने के लिए मैंने पूछा, ‘गणेश, क्या बात है?’ ‘कुछ नहीं।’ मुँह फेरकर वह बालकनी में चला गया। मैं उसके सामने जाकर खड़ी हो गई। वह निर्निमेष आकाश निहार रहा था। आकाश ने भी निराश नहीं किया उसे। जल की दो बूँदें तैर उठीं उसकी गर्वीली आँखों में। नयन नम हुए थोड़ी देर के लिए ही सही।

‘गणेश! माँ की याद आई क्या?’ मेरे स्नेह के दो बोल उसे आश्वस्त कर गए। सदा की तरह अपनी बत्तीसी चमकाते हुए बोला, ‘हे...अ...अ! हमर माय अँगरेजी नई बोलती। हम जब दिल्ली आ रहे थे, हमर माय बोली—अँगरेजी पढ़ लेना। तभी दिल्ली में टिक पाओगे। वही हम कह रहे थे कि भैया से हम भी अँगरेजी सीखेंगे।’

‘ठीक है, ठीक है। अभी हिंदी पढ़ना शुरू किया है। हिंदी पढ़ लो, फिर अंग्रेजी भी सिखा दूँगी। अब झटपट दूध ले आओ और कपड़े सब उठाओ।’

मेरे स्नेहिल दो बोल से अधिक उसके मन की बात निकल जाने से उसके मन का मलिन धुल गया था। और मेरा मन निश्चिन्त हुआ था कि वह हर्षित होता दूध का डिब्बा उठाने किचेन में चला गया था।

नवरात्रि के दिनों में भी दिल्ली का दशहरा, देवी-पूजन तथा रामलीला के विधि-विधानों के ऊपर चढ़कर बोलता रहा उसके गाँव का देवी-पूजन मेला। लाल चमकौआ साड़ी पहनकर उसकी माय का मेला देखने जाना, मेले में पच्चास पैसे का गुब्बारा और एक रुपए का बतासा खरीदना। माँ के ललाट पर बड़ी सी टिकुली का चमकना। उसके पाँवों में पहली बार हवाई चप्पल का पड़ना। और न जाने क्या-क्या!

अब दीपावली की बारी थी। इधर मेरे घर की रँगाई-पुताई, साफ-सफाई प्रारंभ हुई, उधर गणेश की माँ की झोंपड़ी के झाड़-पोंछ, लिपाई-पुताई का आँखों देखा हाल मेरे घर रूपी आकाशवाणी के स्पेशल गणेश कथा चैनल पर प्रसारित होता रहा। मुझे यह तो अँदेशा था ही कि दिल्ली की दीपावली को भी उस चैनल का उद्घोषक फीका ही करार कर देगा। समय का इंतजार था।

दीपावली के दो-तीन दिन पूर्व से ही प्रारंभ हुए बम-पटाखे की आवाज उसके कानों में पड़ते ही पूछ बैठा—‘ई क्या हुआ, मम्मी? ई कैसी आवाज है?’

‘दीवाली आ रही है न! बच्चे पटाखे और बम फोड़ रहे हैं।’

‘अभी क्यों? आज तो दीया-बत्ती नहीं है न!’

अब मैं कहाँ उसके साथ झक-झक करती। ‘यहाँ सब दिन दीवाली होती है। जा, अपना काम कर। अभी कितना काम बाकी है।’

‘हे मम्मी! हमरो माय अपन टीनवाला पेटी धोयले होतई। है...अ...अ वही पेटारी में माय के चमकौआ साड़ी और एक दो...।’

‘चुप कर न। समझ गई, तुम्हारी माँ के पास पेटारी भी है, अच्छी साड़ी भी। तुम्हारे घर में सब चीजें हैं। अब इन चारों गोदरेज की अलमारियों को तो साफ कर। सारी दीवार अलमारियों, किचेन के ऊपर खाने में पड़े पचासों पीतल, काँसे और स्टील के बरतन बाकी हैं।’

मैं स्वयं उसके साथ साफ-सफाई में हाथ बँटाती, काम के बोझ से दबी जा रही थी। पर गणेश था कि न मेरी भरी अलमारियों, न ढेर बरतनों के बोझ तले दबने को तैयार। मुझे भी कहाँ पड़ी थी उसकी स्मृतियों को काटने-छाँटने की!

‘हे मम्मी! हमर माय...अ...अ दीया-बत्ती के रात...।’

‘चुप कर न! अभी दीवाली बीत जाने दे। फिर सुनाना अपनी माय द्वारा मनाई गई दीवाली-वृत्तांत। आराम से बैठकर सुनूँगी।’

वह चुप कहाँ हुआ। किचेन में मिठाइयाँ बनाती, अल्पना करती, दीया जलाती मैं उसे चुप कराती रही। वह कहाँ मानने वाला था। रात्रि के दस बजे के बाद वह अचानक चुप हो गया। पटाखे छोड़ने, बम फोड़ने मेरे बेटे के साथ नहीं गया। मेरे बेटे के अनुग्रह पर भी नहीं।

मेरे बेटे ने कहा, ‘चल न, गणेश! छत पर चल। बम फोड़ेंगे। मैं तुम्हारे ‘माय’ की दीया-बत्तीवाली कहानी सुन लूँगा। चल न!’

उस मनुहार का कोई असर न हुआ उसपर। छत के कोने में जाकर खड़ा हो गया। पटाखों की आवाज सुनता रहा। शायद रात भर। सुबह हमारी आँखें भी देर से खुलीं। मैंने आवाज लगाई—‘गणेश! गणेश!’ वह नहीं आया। मैं छत पर गई। वह एक कोने में दुबका बैठा नींद खींच रहा था।

मैंने डाँटकर कहा, ‘क्या जागता रहा रात भर?’ उसका मुँह लटका हुआ था। निस्तेज, हारा-थका। रात भर जलकर बुझे मेरे पूजाघर के दीये जैसा। सड़कों पर ठंडे पड़कर ढेर हुए बम-पटाखों और फुलझडि़यों के अवशेष जैसा। मैंने उसका वह रूप नहीं देखा था। चिंतित होती उसे नीचे उतार लाई। चाय पीते हुए मैंने पूछा, ‘क्यों गणेश, अब सुनाओ। तुम्हारी माय की दीया-बत्ती कैसी होती है?’

वह चुप था। सिर नीचा किए हुए। माय का नाम सुनकर भी गणेश का निःशब्द रहना मुझे अचंभित कर गया। मेरे बेटे के झकझोरने पर टंकी में पानी खत्म हो जाने पर टैप खोलने की भाँति उसके कंठ से कथ्य रिसने लगा—‘हमर...माय...रात भर...एगो...दीया...जलते...छोड़ देइत रहे।’

करोड़ों रुपए फूँककर मनाई दिल्लीवालों की दीपावली के नीचे उसकी माय की दीया-बत्ती कितनी छोटी पड़ी थी, इसका न आश्चर्य, न गम था मुझे। उसकी स्थिति देखकर गम था तो उसकी ‘माय’ का मम्मी के आगे छोटी पड़ने का। मैं कभी नहीं चाहती थी, उसकी माय मम्मी से पराजित हो जाए। गणेश की माय तो माय थी। उसके लिए अपराजिता। उसने एक ही दीये की दीपावली मनाई तो क्या!

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