पाँच सौ का नोट

पाँच सौ का नोट

वाह! पाँच सौ रुपए का नोट। आज जैसे लॉटरी ही लग गई। अब तक तो माँ से एक-दो रुपए ही मिला करते थे, लेकिन जब आज बुआ और फूफाजी घर आए, तब उन्होंने चलते समय यह नोट चुलबुल को दिया था।

उसने नोट को उलट-पलटकर देखा। जब उसे तसल्ली हो गई कि नोट सच में असली है, फिर तो उसकी खुशी का पारावार न रहा। वैसे भी फूफाजी नकली नोट थोड़े ही देंगे। वैसे कभी नकली नोट तो मम्मी या पापा ने भी नहीं दिए। हाँ, मुहल्ले वाले राजेश अंकल की दुकान पर जरूर नकली नोट मिलते हैं, चिल्ड्रन बैंक वाले। अब उसे हम असली कहें या नकली, यह अलग बात है।

चुलबुल नोट को मुट्ठी में दबाकर चुपचाप अपने कमरे में गया। उसने गुल्लक में डालने के लिए जैसे ही नोट का अगला हिस्सा गुल्लक में उरसा, वह रुक गया। अरे, अगर मैंने इसे गुल्लक में डाल दिया तो फिर इसे निकालने के लिए मुझे गुल्लक तोड़नी पड़ेगी। जब गुल्लक टूटेगी तब हो सकता है, मम्मी या पापा इस नोट को ले लें। इस तरह मेरे अरमान तो अधूरे ही रह जाएँगे। उसने नोट को गुल्लक में डालने का विचार त्याग दिया।

फिर इसे कहाँ रखा जाए? नोट को पुस्तक की अलमारी में अखबार के नीचे रख देता हूँ। लेकिन वह जगह भी सुरक्षित नहीं। अगर भैया की नजर पड़ गई तो हो सकता है, वही माँग बैठे। अब जब भैया माँगेगा तो उसके साथ पूरा नहीं तो कम से कुछ हिस्सा तो बाँटना ही पड़ेगा। वैसे भी भैया अच्छा है। वह भी अपनी सभी चीजें मेरे साथ बाँटता है। किंतु यदि कोई चुहिया नोट को काट गई तो! अरे, फिर पूरा नोट ही बेकार हो जाएगा। चुहिया के विचार ने उसे चिंतित कर दिया। नहीं-नहीं अलमारी में नोट सुरक्षित नहीं।

इससे अच्छा है, नोट को गददे के नीचे छिपा दूँ। न कोई गद्दे को उठाएगा। न चुहिया वहाँ आएगी, और न ही भैया की ही नजर वहाँ जाएगी। हाँ, यह जगह सबसे ज्यादा ठीक है। ऐसा सोच उसने नोट को गद्दे के नीचे छिपा दिया। नोट को सुरक्षित रखकर उसने चैन की साँस ली, और गद्दे पर लेट गया।

चुलबुल के चिंतन की सुई अब और आगे बढ़ी। वह यह सोचने लगा कि वह इस नोट का क्या करेगा? पहले तो मैं अपने लिए एक बढ़िया सी चित्रों वाली पुस्तक खरीदूँगा। हाँ, वैसी ही पुस्तक जो उसने स्वप्निल के पास देखी थी। सभी स्वप्निल के आगे-पीछे पुस्तक देखने के लिए घूम रहे थे। जब क्लास के सारे बच्चे उसके आगे-पीछे घूमेंगे तो कितना मजा आएगा! वह यह सोचकर खुश होने लगा। लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि ऐसी झूठी शान के लिए पैसे क्यों बरबाद करना!

ठीक है, पुस्तक न सही, एक बढ़िया शर्ट खरीद लाऊँगा। जिस पर बढ़िया-बढ़िया कार्टूनों के चित्र बने होंगे। लेकिन शर्ट लेने के लिए मम्मी को साथ ले जाना पड़ेगा। इस तरह से उन्हें नोट का पता लग जाएगा। वैसे भी शर्ट ही क्या, तमाम कपड़े उसे मम्मी दिलाती ही रहती हैं। अभी पिछले महीने ही दीवाली पर माँ ने उसे दो शर्ट-पैंट दिलाई थीं। उन पर भी तो कार्टून और फूलों के चित्र बने थे। नहीं-नहीं, मैं शर्ट नहीं खरीदूँगा।

मैं कुछ खाने-पीने की चीज खरीदूँगा। हाँ, कल सबसे पहले छोले-भठूरे खाने जाऊँगा। कितने दिन हो गए चमनलाल के छोले-भठूरे खाए हुए। उसके बाद गनपत के हाँड़ी वाले गरम-गरम गुलाब जामुन खाऊँगा। और हाँ, भैया को भी साथ ले जाऊँगा। वह भी हमेशा मुझे अपने साथ ले जाता है न। यह सोचते-सोचते उसने होंठों पर कई बार जीभ फिराई। कल्पनाओं के सागर में तैरते-तैरते कब उसकी आँख लग गई, उसे पता नहीं चला।

रात को जब भी उसकी नींद खुलती। वह गद्दे के नीचे नोट को जरूर देखता। ऐसा करने से उसे बहुत सुकून मिलता। सुबह उठते ही उसने एक बार तसल्ली के लिए फिर से नोट देखने की सोची। क्योंकि कमरे में भैया भी था, इसलिए उसने रिस्क लेना ठीक नहीं समझा। खामखाँ हाथ आई दौलत लुट जाए और उसका शाम का प्लान बरबाद हो जाए। वैसे भी अगर शाम से पहले भैया को पता लग गया तो वह उन्हें सरप्राइज भी नहीं दे पाएगा। यह सोचकर उसने थोड़ी देर के लिए मन को समझाया।

लेकिन जैसे ही चुलबुल तैयार हुआ। वह झट से कमरे में गया। उसने मौका देख नोट निकाला। उसने नोट को फिर से उलट-पलटकर देखा। नोट को ठीक-ठाक देख उसकी आँखों की चमक और बढ़ गई। उसने नोट को चूमा और वापिस गद्दे के नीचे रख स्कूल चला गया। यों वह स्कूल गया था पढ़ने के लिए, लेकिन उसका मन तो घर पर ही रह गया था। गद्दे के नीचे। नोट के पास। चमनलाल के छोले-भठूरे और गनपत के गुलाब-जामुन दिनभर उसके सामने नाचते रहे। छुट्टी होते ही वह तेजी से साइकिल लेकर घर की ओर भागा।

घर लौटकर उसने देखा कि माँ छत से गद्दों को इकट्ठा कर रही थी। ये क्या, माँ ने आज सारे गद्दे-रजाई धूप दिखाने के लिए डाल दिए। तो मेरा नोट? यह खयाल आते ही उसे भरी सर्दी में पसीना आ गया। उसका गला सूखने लगा। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे चमनलाल के छोले-भठूरे उसको मुँह चिढ़ा रहे हों, गनपत के गुलाब-जामुन वाली हाँड़ी भी उसे खूब ऊँची नजर आने लगी। लोमड़ी के अंगूरों की तरह।

वह झटपट साइकिल खड़ी करके अपने कमरे की तरफ भागा। उसने पूरे कमरे में यहाँ-वहाँ सभी जगह देखा। मगर नोट कहीं नहीं। उसने दुबारा, बारीकी से देखा, लेकिन नतीजा सिफर। जिसका डर था, वही हुआ। वह हड़बड़ाता-दौड़ता सीढ़ियों पर देखता हुआ छत पर पहुँचा। लेकिन न सीढियों पर न छत पर, कहीं भी नोट क्या कोई कागज का टुकड़ा नजर नहीं आया।

माँ ने पूछा, “क्या हुआ चुलबुल, कुछ खो गया?”

अब वह बेचारा कैसे बताता कि कुछ नहीं बल्कि सबकुछ खो गया। वह खुद को लुटा हुआ महसूस कर रहा था। मरता क्या न करता, उसने पूछा, “माँ, आपको कोई नोट मिला?”

“कैसा नोट?”

“पाँच सौ का नोट, जो कल बुआ ने मुझको दिया था।” गलती से उससे राज खुल गया।

“अरे, कल ऊषा दीदी ने तुझे पाँच सौ का नोट दिया।”

“हाँ माँ, वही आपको मिला क्या?”

“कहाँ रखा था?”

“गद्दे के नीचे।”

“अरे, गद्दे के नीचे! ये भी कोई जगह होती है? गुल्लक में डाल देता या मुझे ही दे देता। मैं क्या खर्च थोड़े ही कर लेती, और अगर करती भी तो तेरे लिए ही तो खर्च करती।”

बेचारा चुलबुल, क्या करता। उसे पहले इन सब बातों में खतरा दीख रहा था। उसे क्या पता था कि ऐसा हो जाएगा। वह यह सोचकर और परेशान था कि नोट का पता लगे न लगे, लेकिन जब माँ, पापा को बताएँगी, तब पापा ठुकाई जरूर लगाएँगे। “हे ईश्वर! यदि नोट मिल जाए तो कभी गद्दे के नीचे नहीं रखूँगा।” उसने मन-ही-मन प्रार्थना की। लेकिन आज शायद ईश्वर भी उसके साथ नहीं थे।

माँ ने सारे गद्दे-रजाई दुबारा खोलकर देखे। रजाई के कवर अंदर तक खँगाले गए, क्या पता कहीं इनमें ही अंदर घुस गया हो। चुलबुल की निगाहें तेजी से गद्दे-रजाईयों के बीच खोजबीन कर ही रही थीं। लगभग एक घंटा तलाश चली, मगर नतीजा वही, नौ दिन चले अढ़ाई कोस।

अब तो चुलबुल रुआँसा हो आया। उसकी आँखों के कोनों में आँसू दिखने लगे। और ये क्या, मोटे-मोटे आँसू उसके गुलाबी गालों पर सरकते हुए टपकने लगे। माँ ने उसे बहुत समझाया, लेकिन माँ के समझाने से उसकी लुटी दौलत वापस नहीं मिलने वाली थी। उसे अपने आप पर भी गुस्सा आ रहा था।

वह आँसू बहाते हुए नीचे आया। उसको रोता देख उसके दादू ने पूछा, “क्या हुआ चुलबुल, कैसे रो रहे हो?”

पीछे से आ रही माँ ने दादू को पूरी बात बताई।

“बस, इतनी सी बात!”

“दादू यह आपको इतनी सी बात लग रही है? आपको क्या पता, मेरा कितना बड़ा नुकसान हो गया!”

“अच्छा-अच्छा, ये बताओ, तुम उस नोट का करते क्या?”

“चमनलाल के छोले-भठूरे और गनपत के गरम-गरम गुलाब-जामुन खाता...।” चुलबुल के मुँह से नोट का बाकी सच भी निकल गया।

“गुलाब-जामुन...कौन से हाँड़ी वाले?”

“हाँ दादू, लेकिन अब तो हाँड़ी फूट गई।” वह फिर रो पड़ा।

“लेकिन ये सब तुम अकेले ही खाने वाले थे?” दादू बड़े इत्मिनान से सवाल पूछ रहे थे।

“नहीं, भैया को भी ले जाता।”

“और मुझे नहीं ले जाते?”

अब चुलबुल दादू से झूठ कैसे बोलता, सो चुप हो गया।

“शायद तभी नोट गायब हो गया होगा।” दादा मुसकराकर बोले।

“अरे नहीं दादू, अगर नोट होता तो मैं आपको भी साथ ले जाता। पाँच सौ में तो बहुत से छोले-भठूरे और गुलाबजामुन आते न! लेकिन अब क्या हो सकता है।” चुलबुल आँखें मलते हुए धीरे से बोला।

“क्यों, अब क्यों नहीं हो सकता? बुआ का दिया न सही, पर दादू के पास तो अपने रुपए हैं। आखिर हमारी भी पेंशन आती है। चलो, जल्दी से सब तैयार हो जाओ। आज हम सब चमनलाल के छोले-भठूरे और गनपत की हाँड़ी के गुलाब-जामुन खाएँगे।”

चुलबुल आँसू पोंछते हुए तैयार होने के लिए अपने कमरे की ओर चल दिया। लेकिन अपने पाँच सौ रुपए के नोट खोने का गम उसे अब भी था।

शाम हो जाने के कारण कमरे में अँधेरा हो गया था। चुलबुल ने लाइट जलाई। गलती से उसके हाथ से पंखे का स्विच भी ऑन हो गया। जैसे ही पंखा चला, वैसे ही पाँच सौ का नोट पंखे की पँखड़ी से लहराता हुआ नीचे आने लगा। इससे पहले कि नोट फर्श पर गिरता, चुलबुल ने उसे अपने हाथ में लपक लिया। अपनी दौलत पाकर वह फिर से अमीर हो गया था।

‘शारदायतन’, पंचनगरी, सासनीगेट,
अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)

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