गांधी ने सोचा, कहा और किया

गांधी ने सोचा, कहा और किया

13नवंबर, १९०९ को गांधी इंग्लैंड का अपना मिशन पूरा कर पानी के जहाज से इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटते हैं। अपने मिशन का कार्य पूरा करते समय भी उसके मन में भारत की स्वतंत्रता की भावनाएँ उठती रहती हैं। मस्तिष्क भारत की वास्तविक स्वतंत्रता की चिंता में डूबा रहता है। एक गहरा बोध और भारी बोझ उनके चैतन्य पर बना रहता है। चिंतन की दिशा में दौड़ते और भारतवर्ष की पराधीनता से मुक्ति के बाद ‘स्वराज्य’ को पाने की मद्धम आँच में तपता चित्त उन्हें थोड़ा अशांत और थोड़ा स्थिर किए रहता है। भारत और उसकी स्वाधीनता के अनेक प्रश्न, अनेक संदर्भ उन्हें मथते रहते हैं। ऐसी अवस्था में एस.एस. निल्दोनन कासल जहाज पर दस दिन और दस रात वे यात्रा करते हैं। जहाज के रद्दी कागजों, पर्चियों के कोरे भाग पर उन्होंने अपने चिंतन को शब्द-शब्द आकार दिया; वह ही ‘स्वराज्य की गीता’ बन गई है। उसी पुस्तक का नाम है, ‘हिंद स्वराज्य’।

‘हिंद स्वराज्य’ अहिंसा के द्वारा स्वराज्य पाने का पथ-निर्देश है। यह सत्याग्रह का उद्घोष है। वह भारतीय सभ्यता को मानवता की कसौटी पर परखती है। फिर उसका संकीर्तन करती है। यह पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहकर पुकारती है। यह प्रेम की बात कहती भी है और करती भी है। यह हिंसा से आत्मबलि को पावन मानती है। यह आत्मबल को पुष्ट करती है। यह आधुनिक सभ्यता को सृष्टि-विरोधी मानती है। यह जीवन में सत्य की ढिठाई से स्थापना और परिणति करती है। यह अहिंसा को अच्छी और पावन सभ्यता का मूल मानती है। यह देशसेवा का सत्यार्थ प्रतिपादित करती है। यह सत्य की खोज का संबल जगाकर प्रबल करती है। यह भारत का भला करनेवालों का वंदन करती है। यह पराधीन भारत में जाग और जोश पैदा करनेवाले पूर्वजों का स्मरण करती है। यह भारत में अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करती है। यह मातृभाषा को मन मंदिर में स्थापित करती है। यह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य करने हेतु तगड़ा पक्ष रखती है। यह गांधी के सपनों के स्वराज्य को संवादों में साकार करती है। यह धर्म की भी सच्ची व्याख्या करती है। यह निरंतर कर्म करते रहने का मंत्र देती है। यह पुस्तक गांधी का जीवन-दर्शन है। गांधी भारतवासियों के पूज्य पुरखे हैं। गांधी सत्य का आग्रही है। सत्य का शोधक है। सत्यानुरागी है। सत्य का पथिक है। वह धर्मनिष्ठ है। वह सनातनी हिंदू है। वह सच्चा हिंदू है। वह भारतीय सभ्यता का पुजारी है।

गांधी ने भारतीय सभ्यता को अनेक दृष्टियों से जाँचा-परखा है। इस सभ्यता की रीति, नीति, धर्म, मान्यता, विश्वास, अभिप्राय, मत, पंथ, आचार, व्यवहार, निष्ठा, सहजता, सीधाई, भलाई, श्रद्धा, सबूरी की जड़ों में पैठ कर इनके प्राण-रस का सविवेक दर्शन किया है। हमारे पुरखों द्वारा बोये गए बीजों से जो सभ्यता पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श बनी हुई है, उसका मूल कारण इसकी आंतरिक सज्जा है। इसकी मूल्य-धारिता शक्ति है। रोम, यूनान, मिस्र सब मिट गए, क्योंकि इन्होंने शरीर को सज्जित करने, भोग भोगने, मन की चंचल इच्छाओं को पूरा करने, नगर बसाने, शिक्षित चालाक पैदा करने, तलवारों के बल पर भरोसा करने, नीतिवान पुरुषों, ऋषि, मुनियों, साधु, संतों का निरादर करने, राजा को सर्वोच्च शक्ति मानने, भोग की वासना को तृप्त करने, मनुष्य की अनीति और अनास्था के बल पर ईश्वर को न मानने, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करने में ही मनुष्य जीवन का परम और सभ्यता का चरम माना है। गांधी बहुत चिंतन और समझ से सभ्यता को मनुष्य की आंतरिक शक्ति, आत्मबल, आत्मबलि, कर्त्तव्यनिष्ठा और इंद्रिय निग्रह के प्रकाश के रूप में अनुभव करते हैं।

‘‘सभ्यता तो आचार-व्यवहार की वह रीति है जिससे मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का पालन करें। कर्त्तव्य-पालन और नीति-पालन एक ही चीज है। नीति-पालन का अर्थ है—अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना। यह करते हुए हम अपने आप को पहचानते हैं। यही ‘सुधार’ यानी सभ्यता है। जो कुछ इसके विरुद्ध है, वह ‘कुधार’ असभ्यता है।’’

गांधी ने हमारी भारतीय प्राचीन सभ्यता को कालजयी इसलिए कहा, क्योंकि यह प्रकृति के सान्निध्य में और उसके निर्देश-संकेत पर अपने कार्य की गति और स्थिति सुनिश्चित करती है। प्रकृति ने मनुष्य को कुछ ऐसा बनाया है कि उसे अपनी आवाजाही वहीं तक रखनी चाहिए जहाँ तक वह अपने हाथ-पाँव के बूते पर आ-जा सके। यह स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों दृष्टि से न्यायसंगत है। गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ सन् १९०९ में लिखी। तब उन्होंने कहा कि रेलों के द्वारा आवाजाही से महामारी और संक्रमणकारी बीमारियाँ फैलती हैं। इसलिए गांधी ने उस समय रेल का विरोध किया है। रेल को उन्होंने अंग्रेजों की कुनीतियों के विस्तार और भारत के घन को विदेश ले जाने में सहायक माना है। आज १११ वर्ष बाद सन् २०२० में कोरोना जैसी महामारी से बचाव में हमें संपूर्ण भारत में रेलों को बंद करना पड़ रहा है। रेलों के चक्के चार माह से थमे हुए हैं। यह भविष्य वाणी नहीं अपनी सभ्यता के चिंतन से निकला हुआ सत्य है। गांधी ने उस समय कहा, ‘हिंदुस्तान को रेलों, वकीलों और डॉक्टरों ने कंगाल बनाया है और उसकी दशा ऐसी हो गई है कि अगर हम वक्त से न चेत गए तो चारों ओर से विपत में घिर जाएँगे।’ गांधी के सामने भारत की परंपरित एक स्वस्थ-भोली समाज-व्यवस्था रही है, जिसकी अपनी आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था, कला-कौशल, आचार व्यवस्था और न्याय व्यवस्था रही है। वह सत्य, सौहार्द, उदारता, सर्वहित, सर्व संतु निरामया पर आधारित रही आई है।

गोस्वामी तुलसीदास सुंदरकांड का आरंभ ‘शान्तं शाश्वतम् प्रमेवमनघं’ से करते हैं। वे शांत स्वरूप शाश्वत का स्मरण करते हैं। शांति से ही गति है। प्रगति है। उन्नति है। शांति के बालक अहिंसा के आँगन में खेलते हैं। हिंसा के कोलाहल और उठा-पटक के मध्य शांति की मुरली नहीं बजती है। अहिंसा सत्य के आश्रम की बालिका है। वह सत्य द्वारा ही दीक्षित होती है। जीव मात्र के भीतर वह सत्य का प्रतिभास पाती है। सत्य धर्म का पाँव होता है। सत्य, तप, दान और दया धर्म के चार पाँव हैं। सत्य के पालन और निभाव में ही धर्म की धारणा निहित है। अतः शांति-अहिंसा-सत्य-धर्म यह क्रम बनता है। गांधी इस मूल्य का मोल अच्छी तरह जान चुकते हैं। वाल्मीकि राम को ‘रामो विग्रहवान धर्मः’ अनुभव करते हैं। राम के स्वभाव और कर्म में धर्म के चारों गुण-चरण रक्षित और संबंधित रहते हैं। गांधी के राम इन्हीं गुणों से विभूषित हैं। गांधी को वही राम प्रिय भी हैं। गांधी के वही राम संबल भी हैं। बहुत तगड़ी आस्था है गांधी को अपने राम में बंग-भंग का विरोध, नमक-कानून का विरोध, डांडी यात्रा, सत्याग्रह, असहयोग, सर्वोदय, उपवास, मौनव्रत, भूमि शयन, नित्य प्रार्थना, पदयात्रा, प्राकृतिक चिकित्सा, सत्यवचन, संस्कृतिनिष्ठा, राष्ट्रभक्ति आदि-आदि गांधी के सत्य धर्मपालन के ही निहितार्थ हैं। कार्य सिद्धि सत्य से ही होती है। गांधीजी ने कहा जीवन का उद्देश्य सत्य आलोकित होना चाहिए। सत्य तक पहुँचने की राह पर सही और पवित्र होना आवश्यक है। कार्य शुचि और साधन शुचि है, तो जीवन शुचि, समाज शुचि, राष्ट्र शुचि होता है। गांधी शुचितागय ‘स्वराज’ पाना चाहते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं, ‘धर्मेण धार्यते लोकः’। यह संसार धर्म और सात्विक कर्मों के कारण ही स्थिर है।

गांधी का ‘स्वराज्य’ और ‘भारत की सभ्यता’ एक ही राष्ट्रपुरुष की दो भुजाएँ हैं। गांधी जब कहते हैं, मनुष्य के पुरुषार्थ की हद ईश्वर ने उसके शरीर की बनावट में ही बाँध दी है; तब वे गीता के कर्म सिद्धांत का ही अनेक अर्थों में समर्थन और पुनर्प्रतिपादन करते हैं। कल (मशीन), वकील, डॉक्टर की आधुनिक कुप्रवृत्ति और लोभवृत्ति का विरोध वे अपनी स्वस्थ भारतीय सभ्यता की नर्मदा में डुबकी लगाकर ही अनुभव करते हैं। कल (मशीन) की अस्वीकृति के पीछे मनुष्य को निकम्मा बना देने, अतिरिक्त धनी बना देने की कुनीति आधार रही है। कल-कारखानों ने व्यक्ति को अपनी जमीन, अपने घर, गाँव से उजाड़ा है। उसके हाथ का काम छीना है। उसके कौशल की हत्या की है। उसे कर्म से असंलग्न और असंबद्ध किया है। उसे आत्मनिर्भर के आँगन से उठाकर परावलंबन की सड़क पर पटक दिया है।

गांधी ने अपने समय में यह सब देखा; अनुभव किया है। उद्योगों में काम करनेवाले मजदूरों-स्त्रियों की दुर्दशा को देखा है। आदमी इतना पोस्ती, आलसी एवं दरिद्र हुआ कि उसकी स्थिति ‘जल बिन मीन पियासी’ की सी हो गई है। वह शारीरिक श्रम से कट गया है। श्रम न करने के कारण नाना बीमारियों ने उसके शरीर में रोगों की डोंडी पिटवाना शुरू कर दी है। रोगी होने की स्थिति में आधुनिक शिक्षा प्राप्त चिकित्सकों की चाँदी हो गई है। भारतीय वैद्यकी और आयुर्वेद से यह डॉक्टरी अनेक अर्थों में अलग-थलग है। इसमें सेवा का भाव गधे के सिर से सींगों की तरह गायब है। गांधी कहते हैं, ‘वकीलों का धंधा ऐसा है, जो उन्हें अनीति सिखाता है।’ वह उन्हें लोभ के गड्ढे में गिराता है, जिससे थोड़े ही निकल पाते हैं। गांधी का सच्चा ‘स्वराज्य’ है—नीति आधारित ‘स्वराज्य’। भारत में पंच परमेश्वर हुआ करता है। न्याय को सत्य, नीति, धर्म, मर्यादा की खाट पर बैठा हुआ हमने भारत में पाया है। वकील, वैद्य सब नीति-नियमों के घेरे में खड़े हुए पाए जाते रहे हैं। लड़ाई-झगड़ा, टंटा-फसाद न करना ही साधारण नियम रहा है। साधारण जन सहज-सरल ढंग से अपना जीवन जीते रहे हैं। खेती-बाड़ी करते रहे हैं। अपने कौशल से प्रकृति से उपजी वस्तुओं से जीवनोपयी सामग्री बनाते रहते हैं। बारहों महीने काम करते रहनेवाली दिनचर्या वाले वे लोग रहे हैं। वे अपने नियमों, नीतियों, आस्थाओं, मान्यताओं, भोलेपन, सरलताओं, सत्याग्रहों, पारस्परिक संबंधों की मिठास और स्वदेशी वस्तुओं में फेरफार नहीं करते रहे हैं। उनके लिए तो सच्चा स्वराज्य वही है। गांधी कहते हैं—

“सच्चा स्वराज्य अपने मन पर राज्य करना है। उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल अथवा प्रेमबल है। इस बल से काम लेने के लिए बनना जरूरी है। मैंने उसे जैसा समझा है वैसा ही समझाने का यत्न किया है। और मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य प्राप्त करने के लिए मेरी यह देह समर्पित है।”

बेरोजगारी को लेकर भारत और विश्व में चिल्लाचोट होती रहती है। गांधी ने श्रम और कौशल आधारित विकास का ‘स्वराज्य’ प्रस्तुत किया है। वर्तमान में भारतवर्ष में एक सौ तीस करोड़ लोग-लुगाई, छेरा-छोरी, बच्चे-बूढ़े हैं। इनकी रोज-रोज उपयोग में आनेवाली और जीवनोपयोगी वस्तुएँ यदि कल से न बनाई जाकर मानव हाथों के श्रम और मानव- मस्तिष्क के कौशल तथा अपने आसपास प्रकृति द्वारा दी गई चीजों से बनाई जाएँ, तो एक भी व्यक्ति बेरोजगार न रहे। इतने लोगों के लिए कपड़े, बूट, तोबरी, पावड़ी, पगड़ी, साफा, अँगोछा, दुपट्टा, घाघरा, लुगड़ा पोलका, सारे आभूषण बासन-भाँड़ा, घड़ा-मटका सारे कृषि उपकरण, सारी भवन सामग्री, सारे बीज संधारण और अनाज भंडारण की वस्तुएँ अनेक प्रकार के व्यंजन, दालें, सत्तू, बड़ी, पापड़ बच्चे के खिलौने, तीज-त्योहार, पर्व-उत्सव से जुड़ी वस्तुएँ, पूजा-अर्चन-विहार, कला, साहित्य, खेती-बाड़ी, बैल, गाय, भैंस, वन, नदी, पहाड़ उपवन, जप, तप, दान, धरम आदि-आदि से संबंधित सीधी-सरल वस्तुएँ यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता, कौशल, चतुराई, लगन, समर्पण के साथ बनाता रहता, तो आज हाथ-पर-हाथ धरकर बैठे रहने की नौबत नहीं आती। भारत अपने अतीत और अपने वर्तमान जीवन में ऐसी सभ्यता की खेती करता रहा है। गांधी ऐसी ही सभ्यता सुस्मित ‘स्वराज्य’ चाहते हैं। गांधी का चिंतन और स्वराज्य एकदम सौ टका शुद्ध और पवित्र लगता है।

आज मेरे गाँव में पशुधन और दुधारू गाय-भैंस उतनी संख्या में नहीं है। जितना आज से सौ-दो-सौ वर्षों या दस पंद्रह वर्षों पहले रहता है। जितने भी अल्पसंख्या में पशु बचे हैं, मेरे गाँव से उनका दूध इकट्ठा होकर खंडवा जाता है खंडवा से इंदौर जाता है। इंदौर से वही दूध लोणी-घी रहित होकर एक-दो दिन बाद प्लास्टिक की थैलियों में बंद होकर वापस मेरे गाँव लौटता है। कम भाव में बिकता है। महँगा खरीदा जाता है। ताजा दिया जाता है। बासी लिया जाता है। थरी, घी, लोणी युक्त भेजा जाता है। गुणहीन और चिकनाई रहित लौटता है। कम कीमत में गाढ़ा पौष्टिक दूध गाँव से जाता है। ज्यादा कीमत में पतला गुणहीन दूध गाँव वापस आता है। मेरी बुद्धि चकराती है। मैं चकरघिन्नी खाकर धम्म से नीम के नीचे बने ओटले पर बैठ जाता हूँ। यह कैसा स्वराज्य है। गांधीजी को याद करता हूँ। गांधी बहुत याद आते हैं। अपने पुरखों को याद करता हूँ। हमारे पुरखों ने कितनी सुंदर समाजार्थिक व्यवस्था बनाई है। उसे अंग्रेजों की नकल और औद्योगिक कुगति के कारण हमने तिनके की तरह तोड़ दिया। गांधी ने पश्चिम सभ्यता को ‘शैतानी’ सभ्यता ठीक ही कहा है। पर हमारी अक्कल पर भी तो बज्र पड़ गया है।

हजारों-हजार वर्षों पहले द्वापर युग में ही गोपालक यशोनंदन ने गोपियों को गोकुल का दूध-माखन-दही मथुरा ले जाने से रोका है। गाँव का उत्पाद गाँव में रहे। गाँव की वस्तु सीधे उपभोक्ता को मिले। कोई बिचौलिया-दलाल न हो। कोई मिलावट-मक्कारी न हो। गाँव भरे-पूरे हों। गाँव के हाथों में दो पैसा भी हों। उसकी लूट न हो। पश्चिमी सभ्यता की जमावट और नकल ने नगर, महानगर बसाए। हाथों का काम छीना। कलों-मशीनों की खटर-पटर से भारत का आकाश भर गया है। इस सभ्यता से नगर बसे। गाँव उजड़े। महानगर सघन हुए। गाँव विरल हुए। नगर-महानगर धनवाले हुए। गाँव धनहीन हुए। कुछ लोग संपन्न हुए। अधिसंख्यक विपन्न हुए। स्वावलंबन खत्म हुआ है। परावलंबन की सुरसा का मुँह बढ़ता ही जा रहा है। आत्मबल वैशाख-ज्येष्ठ में सूख जानेवाली नदियों की तरह सूख रहा है। झूठ और चालबाजी का बल प्रबल हो रहा है। हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं। यह यात्रा तो लगता है—वनस्थली से चलकर मरुस्थली की ओर जानेवाली हैं। भारतवर्ष गाँवों का देश अब भी है। गांधी के चिंतन-केंद्र में गाँव है। विकास की सबसे छोटी किंतु तगड़ी और सभ्य इकाई है, जिसे गाँव कहते हैं। ‘विलेज’ नहीं। कोई संत अब भी पुकारता है, ‘चेत रे मन चेत रे, थारो चिड़िया चुग गई खेत रे।’

हमारी सभ्यता ने हमारे घर-गाँव, खेती-बाड़ी, वन-उपवन, घाटी-मैदान, नदी-नद-सर, में ही इतने काम खोल रखे हैं कि रात-दिन के उदय-अस्त पर भी खत्म न हों। पर हम तो अपने मूल को छोड़कर निर्मूल को पकड़ने के लिए बेतहाशा-बेखबर दौड़ रहे हैं। काटन, बाँधन, गाहना, उगाहना, पछोरन, छिपकन, तोड़न, बीनन, सुखावन, भिगोवन, दूहन, तपावन, जमावन, बिलोवन, पीसन, लाटन, तलन, परसन, परछान, वादन, गायन, बजावन, बुनन, पेरन, ओढ़न, बिछावन, हलन, बखरन, बोवन, चलन, विश्रामन, भजन, कीर्तन, लिखन, पढ़न आदि-आदि से नाता रखनेवाली इतनी शारीरिक भंगिमाएँ क्रियाएँ हैं कि आदमी को जक नी मिले। पर आधुनिक सभ्यता ने डेंडलाते बिस्तर-तोड़ आदमी पैदा किए। पोस्ती (आलसी) लोगों के झुंड-के-झुंड खड़े कर दिए हैं। हमारे बच्चों के हाथों से घी-लोणी (माखन) छीना गया है। हमारे बच्चों के मुख से दूध-दही-मही पोछा गया है। हरित क्रांति से घर आनाज से भले ही संपन्न हैं। पर मन विपन्न है। नीति कहीं कंदराओं-शिखरों की यात्रा पर चली गई है। राजनीति, कूटनीति, कुनीति, अनीति की धजाएँ अपने-अपने रंग-ढंग से सभ्यता के आकाश में बेखटके फहरा रही हैं। गांधी इस सभ्यता को अधर्म कहते हैं। वे यह भी कहते हैं, ‘अपने ऊपर अपना राज्य हो, यही तो स्वराज्य है। और यह स्वराज्य तो अपने हाथ में ही है।’

गांधी ने अस्त्र-शस्त्र के बल से दया और प्रेम के बल को अधिक शक्तिशाली अनुभव किया है। उसे जीवन में क्रियान्वित भी किया है। हथियार उठाने में तो संकट है। दया और प्रेम करने में कोई हानि नहीं है। अच्छा फल पाने के लिए साधन भी अच्छा होना चाहिए। भारत को स्वराज्य पाना है, तो भारतीय सभ्यता के मूल्य-मानकों को आत्मबल और राष्ट्रबल बनाकर स्वतंत्रता और स्वराज्य पाना है। ऐसा गांधी सोचते हैं। कहते हैं। करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है। पर गांधी का स्वराज्य भारत को नहीं मिल सका है। सत्याग्रह या आत्मबल ही पुरुषार्थ की असली शक्ति है। गांधी बहुत गहरे में जाकर सोचते हैं। पाते हैं कि विश्व शस्त्र-अस्त्र के बल पर परिचालित नहीं हो रहा है; बल्कि इसके संचालन की असल ताकत सत्य, दया और आत्मबल है। बड़े-बड़े युद्धों के बाद भी दुनिया कायम है। हैजा, प्लेग, फ्ल्यू, अकाल, बाढ और कोरोना जैसी महामारी के आक्रमण-संक्रमण के बाद भी दुनिया गतिमान है। अतः इसका आधार सत्यबल, आत्मबल या जिजीविषाबल है। यह बल आत्मा को सँभाले और शरीर को कसे बिना नहीं आता है। थोड़ा सा भी अनुचित और अनपेक्षित घट जाने पर गांधीजी उपवास करने लगते हैं। उपवास तप का ही एक रूप है। तप धर्म का एक चरण है। शरीर का तप सत्य का आग्रही होता है। उससे आत्मा सबल होती है। मन दृढ़ होता है। ब्रह्मचर्य भी एक महाव्रत है। यह विकारों की रस्सियों में मन के द्वारा मजबूत गाँठ लगाने का काम करता है। सत्य का बल आता है। अभय हो जाता है।

‘‘अभय के बिना तो सत्याग्रही की गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती है। उसे सब प्रकार और सभी बातों में निर्भय होना चाहिए। धन-दौलत, झूठा मान-अपमान, नेह-नाता, राजदरबार, चोट-मृत्यु सबके भय से मुक्त हो जाए, तभी सत्याग्रह का पालन हो सकता है।’’

गांधी ने धर्मनिष्ठ व्यक्ति, सत्यनिष्ठ समाज और नीतिनिष्ठ स्वराज्य के विषय में संस्कृतिनिष्ठ चिंतन किया है। वाणी में उसे उद्भासित किया है। कर्म में परिणत किया है। इसीलिए मनुष्य ने बनानेवाली शिक्षा-सभ्यता को श्रेष्ठ मानते हैं। वे प्रोफेसर हक्सले द्वारा कही गई शिक्षा संबंधी बातों से बहुत हद तक सहमत होते हैं, जिसमें शरीर को साधने, कर्त्तव्य को निभाने, बुद्धि को शांत, शुद्ध, न्यायदर्शी बनाने, इंद्रियों को वश में करने, अंतर्वृत्ति को पवित्र करने और प्रकृति के नियमों के अनुसार चलने की सीख दी गई है। गांधीजी मैकाले की शिक्षा को हमारी गुलामी नींव डालना मानते हैं। आज हम उस अँग्रेजी शिक्षा का प्रभाव और उससे निपजी असभ्यता को विवश-मौन होकर देख रहे हैं। गांधी कहते हैं, ‘‘प्रत्येक राष्ट्र की एक वाणी होती है। जिस राष्ट्र की अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं होती। वह राष्ट्र गूँगा होता है। इसलिए हर हिंदुस्तानी को अपनी मातृभाषा का ज्ञान होना चाहिए। हिंदी तो सभी को आनी चाहिए।’’

गांधी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ माना, क्योंकि वह सत्य, आत्मबल और कर्मनिष्ठा पर आधारित है। धर्म की आँख से वह देखती है। नीति और कौशल के पाँवों से चलती है। कहती-सुनती है। आत्मबल और सत्याग्रह उसके सबल-निर्मल हाथ हैं। वह स्व के अधीन रहकर जगत् हित करती है। यही उसका सच्चा ‘स्वराज्य’ है। गांधी इसी स्वराज्य के उपासक और आराधक है। सत्य के 

आजाद नगर,

खंडवा-४५०००१ (म.प्र.)

दूरभाष : 9425342748

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