बिखरने से पहले

बिखरने से पहले

सुपरिचित लेखिका। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संस्थापक एवं महासचिव ‘उदीषा’ साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था, कार्यकारी सदस्य ‘इंडियन ऑथर्स सोसाइटी’। विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य, कला, अभिनय, नृत्य, वाद-विवाद आदि प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत।

लो फिर चले आ रहे है तुम्हारे पापा, देखते हैं, आज क्या लेकर आते हैं—फूल, सीडी या फिर कोई फरमाइश। बालकनी में चाय पीते शिरीष ने चुटकी ली।

“तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? वे जो भी लाते हैं, मेरी सास के लिए ही तो लाते हैं।” मानसी चिढ़कर बोली!

“अरे, मेरी माँ पर डोरे डाल रहे है इस उम्र में, ठरकी कहीं के!”

“शर्म करो शिरीष, इतनी घटिया बात तुम्हें शोभा नहीं देती।”

“अच्छा! और तुम्हारे पापा को मेरी विधवा माँ से नजदीकियाँ बढ़ाना शोभा देता है?”

“शिरीष, इतने पढ़े लिखे होकर भी इतना संकुचित दृष्टिकोण है तुम्हारा? स्त्री-पुरुष की दोस्ती में बस एक ही कोण नजर आता है तुम्हें? माना मेरी मम्मी आज शरीर से उनके साथ नहीं हैं, पर उनके दिल में मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता। फिक्र मत करो, तुम्हारी माँ सुरक्षित हैं।” मानसी ने व्यंग्य कसा।

“ओहो! तो एक दिल में है और दूसरी नजरों के सामने होनी चाहिए, हैं न?”

“शिरीष, काश तुमने अपनी ही माँ के जीवन के खालीपन को महसूस किया होता, उन्होंने बताया था कैसे तुम्हारे बाबूजी ने उनके संगीत के शौक को गृहस्थी के नाम पर कुचल दिया था, माँ ने भी हमारे समाज की अन्य हजारों स्त्रियों की तरह अपने सपनों को रसोई, घर-गृहस्थी और बाबूजी के संग-साथ पर न्योछावर कर दिया था। अब एक ओर तो वे गृहस्थी की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो गई थीं और उधर बाबूजी भी चले गए। ऐसे में संगीत सुनने के शौकीन मेरे पापा उनके जीवन के रिक्त स्थान को उन्हीं के पीछे छूट गए संगीत से भरने की कोशिश कर रहे हैं तो तुम्हें तो खुश होना चाहिए। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद गुमसुम रहनेवाली, खाना-पीना लगभग छोड़ चुकी माँ वापस जिदगी के पास आ रही हैं। आज उनके पहलु में मेरे पापा नहीं, उन्हीं का कबाड़खाने से निकाला गया तानपुरा हैं। मुरझाने को तैयार दो फूल बस कुछ दिन और एक-दूसरे की बिखरती पँखुड़ियों को सँभालने की कोशिश कर रहे हैं, शिरीष।” मानसी का स्वर भीग गया था।

शिरीष निरुत्तर था, ड्राइंग-रूम से तानपुरे के साथ माँ के गाने की आवाज आ रही थी, “बोले रे पपीहरा...।”

—शोभना श्याम

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