बुड्ढा सोता बहुत है...

बुड्ढा सोता बहुत है...

उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, नाटक, निबंध, आलोचना, संस्मरण इत्यादि गद्य की सभी प्रमुख एवं गौण विधाओं में इन्होंने अपनी विदग्धता का परिचय दिया है। उपन्यास शृंखला में ‘महासमर’, ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ तथा रामकथा पर उपन्यास चर्चित। इन्होंने प्रायः सौ से भी अधिक उच्चकोटि के ग्रंथों का सृजन किया है। ‘शलाका सम्मान’ सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत।

 

मेरी आँखें खुल गईं। नींद टूट गई थी या पूरी हो गई थी। शायद पूरी हो गई थी। तंद्रा का भी कोई लक्षण नहीं था। तो फिर बिस्तर छोड़कर उठ जाना चाहिए। नींद पूरी हो जाने पर भी बिस्तर पर लोट लगाना मेरे स्वभाव में नहीं था।...

लेटे-लेटे ही खिड़की से झाँककर देखा—बाहर उजाले की कोई किरण नहीं थी। अँधेरा था पूरी तरह। अरे...समय क्या हुआ है? आकाश पर बादल हैं क्या जो इतना अँधेरा है। भोर न हो गई होती तो मेरी नींद क्यों टूटती। घड़ी देखी। अरे, अभी तो तीन ही बजे थे।...तो फिर नींद क्यों टूटी। और ऐसी टूटी कि उनींदापन भी नहीं रहा। अब तीन बजे हों या चार, जब नींद पूरी हो गई है, तो उठना ही पड़ेगा।...पर उठकर करूँगा क्या? जब घर ही नहीं, नगर भर सो रहा हो, तो क्या मैं बाहर पहरा देते चौकीदार के पास जाकर बैठूँगा। उसके साथ बीड़ी पीऊँगा।...नहीं, प्रात: इस प्रकार नींद का टूटना भी एक संकेत है। मुझे राम-नाम जपना चाहिए या ध्यान करना चाहिए।...

मैं पालथी मारकर सुखासन में बैठ गया। अपने श्वास पर ध्यान टिकाने का प्रयत्न किया किंतु ध्यान था कि सारी सृष्टि में घूम रहा था। संसार भर में कोरोना का रोना था। इसने ऐसा घर में बंद किया था कि अपने घर के फाटक तक भी जाना वर्जित था।...उस दिन दाँत में ऐसा दर्द उठा कि डॉक्टर के पास जाना पड़ा। मुँह और नाक पर मास्क लगाया। पैदल जा सकता था, किंतु गाड़ी में गया, ताकि किसी प्रकार का कोई संक्रमण न हो जाए। डॉक्टर के यहाँ चार रोगी थे। उनसे दूर-दूर रहा।...किंतु डॉक्टर के निकट तो जाना ही था।...घर लौटा तो पुत्र ने कहा, “नहाकर कपड़े बदल लीजिए।”

“वहाँ मैं किसी के निकट भी नहीं फटका।” मैंने कहा।

“ठीक है, किंतु जिस कुरसी पर आप बैठे थे, उसपर पहले जाने कौन बैठा था।” वह ठीक कह रहा था। उसकी बात माननी ही चाहिए थी।

जाने यह चीन भी कैसी मुसीबत है।...पुराणों में राक्षसों के उत्पन्न होने की कथाएँ हैं। यह भी तो किसी राक्षस से कम नहीं है। कभी कोरोना फैलाता है, कभी पड़ोस के देशों की भूमि पर अपना अधिकार जमाता है। अपने देश को फैलाता है। पुराने समय के साहूकारों के समान निर्धन देशों को बंधक रखकर उनको ऋण देता है। १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया था। जिस भूमि पर आधिपत्य जमाया था, वह कभी लौटाई ही नहीं। सत्य तो यह है कि भारत की किसी सरकार ने धरती वापस माँगी ही नहीं। नेहरू ने तो उसी समय अक्साई चिन के विषय में कह दिया था कि वहाँ घास का एक तिनका तक तो उगता नहीं है। अर्थात् उनकी उस भूमि को लौटा लेने की कोई इच्छा ही नहीं थी। यह नेहरू भी विचित्र व्यक्ति था। तिब्बत चीन को भेंट कर दिया। देश को तो दो भागों में बाँटा ही, अपनी सेना को आगे बढ़ने से रोककर, कश्मीर का इतना बड़ा भू-भाग भी सायास पाकिस्तान को दे दिया। गोवा, हैदराबाद, जूनागढ़ कश्मीर...इन सबके विषय में उसकी नीयत साफ नहीं थी। वह तो सरदार पटेल थे, नहीं तो...मैं अपने-आप में लौटा। मैं तो ध्यान करने बैठा था।...

मुझे अपने बड़े भाई स्मरण हो आए। उनकी नींद टूट जाती थी तो वे भाभी को भी जगा देते थे।...मैं भी अपनी पत्नी को जगाऊँ क्या? कोई बात करने को तो हो जाएगा।...पर यदि उसने कल रातवाली बातें आरंभ कर दीं तो...उसे मेरे परिवार का इतिहास याद आने लगता है। कल कह रही थी कि मेरे पिता कैसे व्यक्ति थे, जो अपने पुत्र के विवाह पर एक पैसा भी खर्च करने को तैयार नहीं थे।...कोई ऐसा भी करता है क्या? उसे कितनी ही बार बता चुका हूँ कि मेरे पिता के पास न कोई जमा पूँजी थी और न ही उनकी कोई आय थी। पचास रुपए पैंशन थी उनकी, उसमें क्या होता? वे तो अपने पुत्रों पर निर्भर थे। हमारे यहाँ तो परंपरा यही है कि पुत्र अपने परिवारों को पालें और माता-पिता की भी देख-भाल करें।...पता नहीं बहुओं को क्यों यह समझ में नहीं आता कि ऐसे ससुर भी हो सकते हैं, जिनके पास धन न हो। पिछली पीढ़ी में तो ऐसे अनेक परिवार थे। बेटे बड़े होते थे और माता-पिता का पालन-पोषण करते थे। पुत्र ही उनका वेतन होते थे, वे ही उनकी पैंशन होते थे, वे ही भविष्य निधि और वे ही उनका जीवन बीमा होते थे। ससुर नाम का जीव सदा धन्ना सेठ नहीं होता...छोड़ो, पत्नी को क्या जगाना।

जाने क्या बात है कि आँख खुलते ही कोरोना की याद हो आती है। एक ऐसा रोग, जो सारे संसार में महाकाल के समान उपस्थित है। दिखाई देता भी है और नहीं भी दिखाई देता। प्रत्येक व्यक्ति शत्रु सा लगता है। जाने वह कहाँ-कहाँ गया होगा, किस-किस से मिला होगा। कहाँ से कैसा संक्रमण ले आया होगा। सब लोग एक-दूसरे के लिए अछूत हो गए हैं।...और फिर टिड्डी दल का आक्रमण हो रहा है। जाने कोई खेत बचेगा भी या नहीं। फिर आग है, बाढ़ है, भूकंप है, दुर्घटनाएँ हैं।...मैं काँपकर उठ खड़ा हुआ।...ऐसे में तो मैं ध्यान नहीं कर सकता। कितनी बार समझाया है स्वयं को कि जिसने यह सारा संसार बनाया है, वह यदि उसे नष्ट भी करना चाहता है, तो उसे कोई कैसे रोक सकता है।...संभव है, वह इसका पुनर्निर्माण करना चाहता हो। और वैसे भी मुझे अब और कितना जीना है। बहुत होगा तो दो-चार वर्ष।...पर मैं इस परिवेश में मरना भी नहीं चाहता। लोग कोविड से संक्रमित व्यक्ति के पास नहीं फटकते। और यदि कोई उससे मर जाए तो श्मशानवाले उसका अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते।...कोई कोविड से न भी मरे, किंतु आजकल को किसी के मरने-जीने पर सांत्वना देने के लिए भी कोई पास नहीं फटकता। बहुत हुआ तो फोन पर ‘सॉरी, सॉरी’ कह दिया और मन में मान लिया कि वह तो मर ही गया है। हम क्यों मरने को जाएँ।

मैं अपने पुत्र के विषय में सोचता हूँ...यदि मैं इन दिनों मर गया तो बेचारे को कितनी कठिनाई होगी। कोई सहायता के लिए भी नहीं आएगा। वह क्या-क्या करेगा। कहाँ ले जाएगा मुझे? हे प्रभु! जाना तो मुझे है ही। किंतु थोड़ी प्रतीक्षा कर लो। यह कोरोना-वोरोना समाप्त हो जाने दो, फिर खुले परिवेश में बुला लेना। कम-से-कम डॉक्टर, अस्पताल और श्मशान का काम तो ढंग से हो जाएगा।...इन दिनों कितने समाचार आए हैं। कोई कोरोना से मरे या किसी और रोग से, हम तो कहीं किसी की सहायता करने नहीं गए। वैसे ही लोग करेंगे...यह सब सोचने का क्या लाभ? इससे तो अच्छा है, नहा-धो लूँ। घर के मंदिर में चला जाऊँ। किसी भी काम में लग जाऊँगा तो यह कोरोना और मरना-जलाना तो भुला पाऊँगा। तब तक कुछ उजाला भी हो जाएगा। अभी पिछले महीने तक तो पाँच बजे, अच्छा खासा उजाला हो जाता था। यह अगस्त का महीना क्या आया, समय का ठीक पता ही नहीं चलता है। कभी सूर्य नहीं निकलता, कभी मेघ छाए होते हैं।

भादों मास है तो यह तो होना ही है। रक्षाबंधन भी हो गया, जन्माष्टमी भी, स्वतंत्रता दिवस भी। बाहर निकलना ही नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि किसी ने बंदी कर रखा है। कोरोना के भय से घर के फाटक तक जाना भी वर्जित हो गया है।...मैं अपने लिए तो डरता ही हूँ, अपने परिवार के लिए भी डरता हूँ। मैं नहीं चाहता कि मैं उनके लिए किसी संकट का कारण बनूँ। बड़ा पोता मनीपाल से आया था तो उसे घर में ही ऊपर के कमरे में चौदह दिनों का एकांतवास मिला। फिर बेचारे को ज्वर हो गया तो फिर चौदह दिन। ऐसे में यदि मैं कहीं से किसी प्रकार की कोई छूत ले आया तो? बेटा कहता है, जाने कौन-कौन कहाँ-कहाँ से आकर फाटक को छूता है। उसको छूने से भी संक्रमण का जोखिम है।...मैं प्राय: ये सारी बातें मानता हूँ, किंतु प्रात: समाचार-पत्र उठाने से स्वयं को रोक नहीं पाता। उसके लिए तो बेटे ने भी मुझे रोकना छोड़ दिया है।...मैं स्नानागार में घुस गया। दाँतों को ब्रश लगा तो सारा कोरोना भूल गया। दो दाढ़ें टूट गई थीं। दो नुकीली हो गई थीं। जीभ ऐसी घायल हो गई थी कि पेस्ट भी उसको लगकर जलन पैदा करती थी। ब्रश से बचने के लिए जिह्व‍ा हिलती-डुलती थी तो नुकीले दाँतों से घायल हो जाती थी।...बुढ़ापा भी कैसी बला है। न आँखें ठीक, न कान ठीक-ठीक सुनने के मूड में हैं। कुछ भी खाने बैठो तो जीभ जलने लगती है। शायद एक दाँत कुछ अधिक ही खराब हो गया है। तभी तो बायाँ जबड़ा दर्द कर रहा है। पेट भी ठीक नहीं रहता। नींद भी नहीं आती। कैसे आए।...सारे शरीर में खुजली सी होती रहती है। कभी कहीं काँटा चुभने लगता है, कभी कहीं। या तो खुजलाते रहो या फिर उठकर क्रीम उठाओ। उसको मलो...दस-पाँच मिनट खुजली न भी हो तो क्या नींद आ जाएगी?

अब शरीर पर जहाँ-जहाँ पानी डालता हूँ, वहाँ से खुजली तो मिट ही जाती है। नींद भी बाल्टी में डूबकर बेहोश हो जाती है।...मुझे अपनी वृद्धा दादी स्मरण हो आईं। उन्हें पीठ पर बहुत खुजली होती थी। जब अपने हाथों से उन्हें आराम नहीं मिलता था तो वे हम बच्चों में से किसी को पुकार लेती थीं।...मुझे अपनी बारी याद है। हथेलियाँ उन्हें आराम नहीं दे पाती थीं तो वे नाखूनों से खुजलाने को कहती थीं और जब नाखूनों से भी उनका कष्ट दूर नहीं होता था तो कटोरी को उल्टा कर रगड़ने को कहती थीं।...मुझे लगता है कि कुछ दिनों में मैं भी वही सब करूँगा...नहाकर निकला और ऊपर छत पर बने मंदिर में चला गया। सामने प्रतिमा भगवान् कृष्ण की थी और मेरा सारा ध्यान अगरबत्ती जलाने इत्यादि में था। माचिस की आधी तीलियाँ एक दिन में ही फुँक जाती थीं। गरमी भी लग रही थी और नींद भी आ रही थी। एक मन होता था कि सो ही जाऊँ और फिर सोचता था कि सोने के लिए तो मंदिर में नहीं आया था। पूजा का क्रम पूरा कर लूँ और नीचे चलूँ। नींद आएगी तो सो जाऊँगा। पता नहीं परिवार में और कोई जागा भी है या नहीं। आधा घंटा मंदिर में लगाकर नीचे उतरा तो लगा, बहुत भूख लग रही है। वैसे उसे रोका जा सकता था किंतु अपने मधुमेह के कारण भूखा रहना नहीं चाहता था। क्या पता, कब रक्त में शर्करा की मात्रा कम हो जाए और मैं लुढ़क जाऊँ। रसोई में देखा, रसोइया आ गया था। उसे नाश्ते के लिए कह दिया।

बिस्तर पर आकर बैठा तो लगा कि अब नींद आ रही है। जब सोने का समय था, तब नींद आई नहीं और अब जबकि घर में हर प्रकार की गतिविधि आरंभ हो गई हैं, अब नींद आ रही है मुझे। कौन सोने देगा।...रसोइया आ गया है। दूधवाला आता होगा। फिर सफाईवाली आकर घंटी बजाएगी। उधर से कूड़े की गाड़ी आ जाएगी। ड्राइवर का भी लगभग वही समय है। बेटे को कॉलेज जाना होगा। बच्चों को अपने स्कूल।...घर में हड़बौंग मच जाएगा। सो कैसे सकता हूँ।...रसोइया आकर नाश्ता दे गया। मैंने स्वयं को सोने से रोक रखा था। समाचार-पत्र ने थोड़ी सहायता की थी। आज मैंने हाफ फ्राई अंडा माँगा था। बिस्तर पर बैठे-बैठे ही गोद में प्लेट रखकर नाश्ता कर लिया। दो टोस्ट और अंडा। उतनी देर में कॉफी आ गई। कॉफी के गरम प्याले ने मुझे जगाए रखा। प्याला खाली कर आगे की ओर खिसका दिया और मन हुआ कि लेट जाऊँ।...पता ही नहीं चला कि बैठा-बैठा कब खिसककर लेट गया और आँख लग गई।

सुबह की ऐसी मीठी नींद और सफाईवाली राम-राम कहने आ गई। नींद उचट गई।...वह कमरे से बाहर निकली तो रसोइए का स्वर सुनाई दिया, “जगा दिया?”

“हाँ, मैं कोई डरती हूँ। यह बुड्ढा सोता बहुत है।” सफाईवाली ने कहा और आगे बढ़ गई।

—नरेंद्र कोहली

१७५ वैशाली, पीतमपुरा

दिल्ली-११००३४

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