नए क्षितिज बुलाते हैं...

लेखिका की आक्रोश भरी शिकायत बिलकुल उचित थी। उन्होंने फौजियों के परिवारों को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखा है। उनकी शिकायत थी कि हिंदी में इतने लेखक-लेखिकाएँ हैं, सैकड़ों उपन्यास प्रकाशित होते हैं किंतु किसी का भी ध्यान लाखों फौजियों के परिवारों की पीड़ा पर क्यों नहीं जाता? मेरा एक छोटा सा जवाब यही था कि चूँकि फौज की दुनिया बिलकुल अलग है, सुरक्षा कारणों से बहुत सी बातें बाहर भी नहीं आ पातीं, इसलिए लेखकों का उधर ध्यान नहीं जा पाता।

लेखिका का कहना था कि बेशक फौज की बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं किंतु आए दिन सरहद से शहीदों की मृत देह आती है, चैनल वाले टी.आर.पी. के लिए देशभक्ति जगाते हैं किंतु शहीद के परिवार की पीड़ा पर लेखकों का ध्यान क्यों नहीं जाता? उनकी बात, उनका आक्रोश, उनकी शिकायत पूरी तरह सही थी। हिंदी में यों तो गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में फौज एवं युद्ध है किंतु वह एक प्रेमकथा है। छटिपुट कहानियाँ अवश्य लिखी गई हैं, जिनमें फौजियों के परिवारों की पीड़ा आंशिक रूप से मिल जाती है। ‘कोर्ट-मार्शल’ नाटक भी फौजी पृष्ठभूमि पर है किंतु उसका कथ्य अलग है। सिनेमा जगत् में ‘हकीकत’, ‘प्रेमपुजारी’ या ‘बॉर्डर’ जैसी फिल्में बनी हैं किंतु वहाँ भी फौजियों के जीवन से अधिक युद्ध की विभीषिका, देशप्रेम आदि पर अधिक जोर रहा है। कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी वीर रस के कवि सैनिकों की शहादत पर कविताएँ सुनाते हैं किंतु वहाँ भी देशप्रेम और भावुकता परोसने पर ही जोर रहता है। फौजियों के परिवारों पर कैसी-कैसी विपत्तियाँ टूटती हैं, उन्हें किस-किस तरह की चुनौतियों से, समस्याओं से गुजरना पड़ता है, वह प्रायः सामने नहीं आ पाता।

भारत का गौरव बढ़ाने वाले उस खिलाड़ी की दास्तान कौन भूल सकता है, जो फौज में देशसेवा में जुटा है और गाँव में दबंग उसकी खेती हथिया लेते हैं, उसके परिवार को तरह-तरह से उत्पीड़ित करते हैं और वह इतना प्रतिभावान खिलाड़ी बागी (डाकू) बनने पर विवश हो जाता है। पुलिस प्रशासन भी इस परिवार की कोई सहायता नहीं करता। फौजियों के परिवार के जीवन पर केंद्रित ‘कितने मोर्चे’ उपन्यास की लेखिका के प्रश्न पर हमें एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा। हिंदी साहित्य को यदि विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य के साथ कदम मिलाकर चलना है तो फिर उसमें एक व्यापक परिवर्तन की भी पहल करनी पड़ेगी। केवल लाखों फौजियों के परिवारों की ही बात नहीं है; अभी कितने ही ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ लेखकों का कम ध्यान गया है तथा हमें कोई सार्थक-सटीक उपन्यास खोजने पर भी नहीं मिलेगा। कुछ उदाहरणों पर गौर करते हैं। खेलों की एक विराट् दुनिया है। लाखों खिलाड़ी हैं, उनके सपने हैं, उनका संघर्ष है, आगे बढ़ने के लिए जद्दोजहद है, खेल संघों की अपनी राजनीति है, उठा-पटक है। खिलाड़ियों ने आत्महत्याएँ भी की हैं, सड़कों पर भीख भी माँगी है, जिनके नाम पर दिल्ली के खेलगाँव में ‘पत्थर’ है, मकानों का ‘ब्लॉक’ है, वे स्वयं पुरानी दिल्ली में छोले बेचते रहे।

महिला खिलाड़ियों की अपनी दर्दनाक एवं शर्मनाक शोषण वाली कहानियाँ हैं किंतु इंदौर के दवेजी के एक उपन्यास के अलावा कोई बड़ा उपन्यास ध्यान में नहीं आता। हर साल हजारों बच्चे अकाल मौत मरते हैं, करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, बाल-श्रमिक का जीवन गुजार रहे हैं किंतु बच्चों की पीड़ा पर केंद्रित कोई उपन्यास ध्यान नहीं आता। विज्ञान उपन्यास, विज्ञान कहानियाँ एक-दो लेखकों के दम पर ही टिकी हैं; वैज्ञानिकों के जीवन पर कोई सार्थक उपन्यास ध्यान में नहीं आता। पर्यावरण का क्षेत्र हो तो ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हो गया’ जैसे एक-दो उपन्यास ही याद आते हैं। कितने ही क्षेत्र हैं, जहाँ हिंदी लेखकों का ध्यान नहीं पहुँचा है। विश्व की अनेक भाषाओं में प्रायः हर क्षेत्र पर आपको सार्थक कृतियाँ मिल जाएँगी। यह भी सच है कि चूँकि वहाँ पूर्णकालिक लेखक हैं, उन्हें भरपूर रॉयल्टी और सम्मान मिलता है, लाखों पाठक मिलते हैं तो वहाँ लेखन कार्य आसान हो जाता है, लेखक खूब शोध भी करते हैं।

हिंदी में किताबों की बिक्री एक कठिन प्रश्न बना हुआ है। यह भी सच है कि सार्थक लेखन समाज में बदलाव की दिशा तय करता है। ‘किन्नरों’ पर कुछ सार्थक उपन्यास लिखे गए तो आज सरकारों, न्याय-व्यवस्था के बदले हुए रुख का भी उदाहरण हमारे सामने है। निश्चय ही चित्राजी का ‘नालासोपारा’ हो या कुछ और लेखकों की कृतियाँ हों, जैसे ‘तीसरी ताली’ आदि साधुवाद की हकदार हैं। इसमें भी संदेह नहीं है कि जब किसी अनूठे, अनछुए विषय पर कोई कृति आती है तो उसका स्वागत भी होता है, उसे भरपूर पाठक भी मिलते हैं। सीमा सुरक्षा बल में उच्च अधिकारी रहे एक कवि ने अपने मार्मिक अनुभवों को कविताओं में पिरोया और उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके संग्रहों के १५ भाषाओं में अनुवाद हुए हैं, उनके कई संस्करण भी हुए हैं और हजारों प्रतियाँ बिकी भी हैं। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि वे न तो कवि-सम्मेलनों में भाग लेते रहे, न चैनलों पर, न ही बहुत पत्र-पत्रिकाओं में छपे किंतु उनकी कविताओं में एक अलग अनूठा अनुभव-संसार था; मानवीय संवेदनाएँ थीं तो उन्हें तदनुरूप सफलता भी मिली। हिंदी का कल्याण हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा मनाने से नहीं होने वाला है। उसमें ज्ञान-विज्ञान की सामग्री कितनी है, उसका साहित्य कितना प्रासंगिक है, व्यापक है, वैविध्यपूर्ण है, स्तरीय है, सार्थक है, विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में कितना सामर्थ्यवान है, इस पर ही हिंदी का उत्थान तथा भविष्य अधिक निर्भर है। हिंदी के लेखक यदि हिंदी की पुकार सुनेंगे तो निश्चय ही सुखद परिणाम श्रेष्ठ कृतियों के रूप में हमारे सामने आएँगे।

अलविदा २०२०

आखिरकार सन् २०२० का अंतिम महीना आ गया। सन् २०२० को भारत क्या, विश्व का कोई भी देश एक भयानक दुःस्वप्न की तरह भुलाना ही श्रेयस्कर मानेगा। हालाँकि इस वर्ष ने करोड़ों इनसानों के जीवन में जो अमिट घाव दिए हैं, उनके मद्देनजर ऐसा संभव नहीं है। सुई की नोक से भी लघु आकार के वायरस ने एक से बढ़कर एक महान् वैज्ञानिक उपलब्धियों पर गर्व से फूले नहीं समा रहे मनुष्य को प्रकृति के सामने कितना बौना साबित कर दिया। बेतहाशा तेज गति से दौड़ रही दुनिया यकायक ठप हो गई। जेट विमान अपने पंख सिकोड़कर चुपचाप सहमे-सहमे खड़े रहने को विवश हो गए। हर समय दौड़ता-भागता मनुष्य घरों में कैद हो गया। लोग अपने प्रियजनों से बिछुड़ने को विवश हो गए। माँ अपने बेटों से दूर, बेटे-बेटियाँ कहीं दूर देश में, दूर प्रदेश में, दूर नगर में अनजाने ही फँसकर रह गए। लोग अपने प्रियजनों के अंतिम दर्शन तक नहीं कर सके। कितने दुख, कितनी पीड़ाएँ, कितने आँसू, कितनी आहें, कैसी-कैसी विवशताएँ...। लोगों के रोजगार छिने, पेट पालने के लिए छोटे-मोटे काम के लिए सड़कों पर उतरे। लाखों मजदूर बेबस होकर पैदल ही घरों, गाँवों को चल दिए। रास्ते में ट्रेन, ट्रक आदि से कुचलकर मरे। भूख और थकान के दृश्यों ने दिल दहला दिए। ऐसे में सेवा, परोपकार और इनसानियत की मिसाल बने दृश्य भी भरोसा दिलाते रहे। जब लोग घरों में कैद हुए और मेल-मिलाप समाप्त हो गया तो इनसान की जिजीविषा ने विज्ञान प्रौद्योगिकी के सहारे ‘ऑनलाइन’ का रास्ता खोज निकाला। अपने प्राणों का बलिदान देकर डॉक्टर व स्वास्थ्यकर्मी जीवन रक्षा में डटे रहे। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी लोग पूरी मुस्तैदी से डटे रहे। महामारियाँ सदियों से आती रही हैं। हर बार मनुष्य उनसे उबरकर नई दुनिया गढ़ता रहा है। यह महामारी भी तमाम नुकसान करने के बावजूद हमारे संकल्पों को, हमारी जिजीविषा को, हमारे जीवन की गति को राके नहीं पाएगी। हाँ, कुछ सबक हम सबको अवश्य सीखने होंगे। प्रकृति के अनावश्यक दोहन और उससे उपजे प्रकोप से बचना होगा।

भारत के संदर्भ में २०२० एक विशेष संदेश देता है। हमारे महान् वैज्ञानिक एवं पूर्व राष्ट्रपति ने २०२० तक ‘विकसित भारत’ का स्वप्न प्रस्तुत किया था और एक पूरी कार्य योजना भी सुझाई थी, प्रगति का मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि सबकुछ उलट-पुलट जाएगा! वर्षों की एक-एक सीढ़ी पार कर आई प्रगति को ऐसा आघात पहुँचेगा!

अब हम सब मिलकर संकल्प करें कि २०२१ एक नई सुबह, नया उजाला लेकर आए, महामारी से मुक्ति मिले; आशंका, भय, घबराहट के बादल छंटें, जीवन वापस पटरी पर लौटे, प्रगति और विकास का नया अध्याय शुरू हो। जाने-अनजाने जो विकृतियाँ हमारे जीवन में घुलमिल गईं थीं, उनसे हम स्वयं मुक्ति पाने का प्रयास करें। एक संतुलित पारिवारिक जीवन की ओर वापसी हो, जहाँ पुराने भारतीय जीवन-मूल्य प्रतिष्ठित हों। कोरोना ने हमें यह सीखने को विवश कर ही दिया है कि थोड़े साधनों में भी चैन से जिया जा सकता है। गलाकाट होड़, हवस, छीना-झपटी, जबरन सुख-सुविधाएँ जुटाने का पागलपन सिवाय अशांति और अपराध के कुछ नहीं देता। भारत एक बार फिर अपनी बुनियादी समस्याओं निरक्षरता, भुखमरी, गरीबी, बेकारी, बीमारी, अंधविश्वास, भेदभाव, शोषण, दमन, अन्याय आदि से जूझकर फिर उसी ‘विकसित भारत’ के स्वप्न की ओर लौटे, जो २०२० के लिए देखा गया था।

नमन मृदुला सिन्हाजी

यह संपादकीय लिखते-लिखते एक अत्यंत दुःखद घटना हो गई। ‘साहित्य अमृत’ के प्रकाशन के समय से ही जुड़ी रहीं वरिष्ठ साहित्यकार व समाजधर्मी श्रीमती मृदुला सिन्हा का हृदयाघात से १८ नवंबर को स्वर्गवास हो गया। वे एक लेखिका होने के साथ समाज-सुधारक व मानवीय मूल्यों की स्थापना की प्रबल समर्थक थीं। उनकी लेखनी सदैव समाज को शिक्षा देती रही। उनका जाना एक संवेदनशील विभूति का जाना है, जिसकी कमी हमेशा खलती रहेगी। उनकी पावन स्मृति को नमन।

 

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

हमारे संकलन