कश्मीर के इतिहास में रिंचन भोट की भूमिका

कश्मीर के इतिहास में रिंचन भोट की भूमिका

कश्मीर के इतिहास में रिंचन भोट की बहुत चर्चा होती है। कुछ इतिहासकार रिंचन भोट को कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक भी कहते हैं। यह भी कहा जाता है कि कश्मीर में पहली मसजिद रिंचन भोट ने ही बनाई थी, जिसे आज भी लद्दाखी मसजिद के नाम से स्मरण किया जाता है। यही कारण है कि रिंचन के राज्यकाल को कश्मीर के इतिहास का ऐसा मोड़ माना जाता हैं जहाँ से राज्य पुराने मार्ग को छोड़कर एक नए मार्ग पर चल पड़ा था। रिंचन को लेकर इस प्रकार के मिथक बनाने का काम ज्यादातर परवर्ती फारसी इतिहासकारों या साहित्यकारों ने ही किया। रिंचन को लेकर कश्मीर में फैली इस प्रकार की दंतकथाओं का विश्लेषण करना जरूरी है ताकि इतिहास के साथ नीर क्षीर न्याय हो सके। रिंचन भोट या रिंचन बौद्ध ने १३२० में कश्मीर की सत्ता सँभाली थी और उसके तीन साल बाद ही १३२३ में उसकी मृत्यु हो गई। रिंचन भोट के कश्मीर नरेश बनने और उसके बाद हटने की कथा जानने के लिए सप्त सिंधु क्षेत्र में विदेशी अरब व मंगोल आक्रमणकारियों को जान लेना भी जरूरी है क्योंकि कश्मीर घाटी विशाल सप्त सिंधु प्रदेश का ही हिस्सा है। ईस्वी सन् ७१२ में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया और राजा दाहिर को पराजित कर सिंध को अपने कब्जे में कर लिया था और वह लंबे अरसे तक अरबों के कब्जे में ही रहा। जिस समय सिंध पर अरबों के हमले हुए, उस समय कश्मीर में महाप्रतापी ललितादित्य मुक्तापीड़ का शासन था, जिसके बारे में सिंध में यह कहा जाता था कि अरबों ने हमें तो पराजित कर दिया लेकिन अब कश्मीर में उनका सामना जब ललितादित्य से पड़ेगा तो अरबों को छटी का दूध याद आ जाएगा। लेकिन भारत में अरबों का यह हमला सिंध से आगे नहीं बढ़ सका। भारतीयों ने उसके प्रवाह को ग्यारहवीं शताब्दी तक वहीं रोके रखा। लेकिन अब तक अरबों की आँधी के स्थान पर इतिहास में तुर्कों/मंगोलों की दूसरी आँधी शुरू हो चुकी थी। इस्लामी जगत के अंदर अरबों का सिक्का सिमटने लगा और तुर्कों/मंगोलों का प्रभाव बढ़ने लगा था। लेकिन उससे पहले तुर्क और मंगोल बुद्ध का रास्ता छोड़कर हजरत मोहम्मद के रास्ते पर चल निकले थे। हिंदुस्तान का पश्चिमोत्तर यानि सप्त सिंधु क्षेत्र भी तुर्कों की जद में आ रहा था। पश्चिमोत्तर भारत/सप्त सिंधु की कश्मीर घाटी के पूरे इतिहास में चौदहवीं शताब्दी के पहले दो दशक यानि १३०० से लेकर १३२० तक का कालखंड बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इसी कालखंड में रिंचन भोट का प्रभाव क्षेत्र कश्मीर घाटी में बढ़ा था। यदि यह कहा जाए कि कश्मीर घाटी के आधुनिक काल की तमाम समस्याओं के बीज इन्हीं दो दशकों में बोए गए थे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन उससे पहले महमूद गजनवी के कश्मीर पर हमले की बात।

२. कश्मीर पर महमूद गजनवी (९७१-१०३०) का हमला : महमूद गजनबी ने ग्यारहवीं शताब्दी के शुरू में ही भारत पर हमले शुरू कर दिए थे। वह दर्रा खैबर के रास्ते हिंदुस्तान पर हमला करनेवाला पहला तुर्क था। १०१४ में उसने कश्मीर पर हमला किया। वहाँ तो उसे सफलता नहीं मिली लेकिन हिंदुशाही वंश (जयपाल-आनंदराव-त्रिलोचनपाल) को परास्त करके उसने पश्चिमोत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा जरूर कर लिया। चाहे वह अपने कश्मीर जीतने के अभियान में सफल नहीं हो सका लेकिन, “इस अभियान में बहुत से तुर्क, ईरानी और खुरासानी मुस्लिम प्रचारक कश्मीर घाटी में जरूर प्रवेश कर गए। (१) अशोक कुमार पांडेय ने अपने ग्रंथ कश्मीरनामा में, मोहिबल हसन की पुस्तक ‘कश्मीर अंडर सुलतांज’ के प्रमाण उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘महमूद गजनवी ने १०१५ और १०२१ में दो बार कश्मीर पर हमला किया और कश्मीर घाटी के दक्षिणी हिस्से में लूटपाट की और बहुत से लोगों का मजहब परिवर्तन करवाया।” (२) शैव/बौद्ध संस्कृति में पले बढ़े कश्मीरियों का इसलाम में नव मतांतरित मध्य एशिया के तुर्कों/मंगोलों से यह पहला वास्ता था। जिस प्रकार मध्य एशिया के लोगों को अरबों ने मतांतरित किया था अब उसी तरीके से मध्य एशिया के ये नव मतांतरित तुर्क/मंगोल भारत के लोगों को मतांतरित करना चाहते थे। तीन शताब्दी पहले सिंध का सामना मोहम्मद बिन कासिम से हो चुका था और उसका परिणाम वह भुगत चुका था। अब कश्मीर का सामना महमूद गजनवी की फौज से हो रहा था। पश्चिमोत्तर भारत या सप्त सिंधु, तुर्कों के इन हमलों की जद में आ गया था। उसका एक हिस्सा कश्मीर पहले झटके से तो बच निकला था। लेकिन मराठी में कहावत है, बुढ़िया मर गई इस बात का गम नहीं, यमराज को घर का पता चल गया इस बात की चिंता है। लेकिन रघुनाथ सिंह कश्मीर पर पहले तुर्क हमलावर का नाम कज्जल बताते हैं। उनके अनुसार, “कश्मीर पर प्रथम विदेशी आक्रमण, तुर्क कज्जल का सन् १२८७ में हुआ था। यह प्रथम अवसर था जब विदेशी सेना ने कश्मीर में प्रवेश पाया था।”

३. तुर्कों/मंगोलों द्वारा सैयदों को चुनौती और उसका कश्मीर पर प्रभाव : मध्य एशिया के तुर्कों/मंगोलों के इस्लाम की शरण में चले आने से का अरबों को एक नुकसान हुआ कि इस्लामी जगत में अरबों का बर्चस्व समाप्त हो गया। अब इसलामी जगत में मध्य एशिया के तुर्कों व मंगोलों का बोलबाला होने लगा। यहाँ तक की तुर्कों द्वारा ओटोमन साम्राज्य की स्थापना से खलीफा का पद भी तुर्कों के कब्जे में आ गया। इसके साथ ही मध्य एशिया के तुर्कों और अरबों में विवाद भी बढ़े। दरअसल सैयद अरब अपने आप को इस्लाम का झंडाबरदार समझते थे/हैं। वे अपने आप को हजरत मोहम्मद के नवासों की वंश परंपरा में मानते हैं। हजरत अली से सैयदों की वंश परंपरा जुड़ती है। इस कारण इस्लामी जगत में सैयदों का स्थान सर्वोच्च माना जाता है। भारत की जाति व्यवस्था की पृष्ठभूमि में यदि, इस्लामी जगत में सैयदों की स्थिति को जानना हो तो उन्हें इस्लाम के ब्राह्म‍ण कहा जा सकता है। या कम-से-कम वे अपने आपको ऐसा ही मानते हैं। उनकी मानसिकता रहती है कि इस्लाम में मतांतरित मध्य एशिया के लोग एक प्रकार की पराजित जातियाँ हैं जिन्हें सैयदों के चरणों में सजदा करना चाहिए और उनका मजहबी नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए।

लेकिन मध्य एशिया का इस्लामीकरण होने के बाद, इस्लाम का भीतरी जातिगत संतुलन गड़बड़ा गया। सैयदों और तुर्कों/मंगोलों में जाने अनजाने वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गई। सैयद जो स्वयं को इस्लामी जगत के पुरोहित मानते थे, उनकी यह हेकड़ी तुर्कों ने निकाल दी। इसका प्रभाव भारत पर भी पडा। तुर्कों/मंगोलों के सताए सैयद अरब ईरान से भाग कर भारत आने लगे। तेरहवीं शताब्दी के अंत और चौदहवीं शताब्दी के शुरू में तुर्कों/मंगोलों के सताए अनेक सैयद जिन्हें कलंदर भी कहा जाता है, कश्मीर घाटी में भी आए थे। इनमें से हजरत सैयद शरफुद्दीन अब्दुल रहमान उर्फ बुलबुल शाह का नाम सबसे ज्यादा जाना पहचाना है और कश्मीर आनेवाले कलंदरों में शायद वे पहले थे। सैयद बुलबुल शाह १३०१-१३२० के बीच में कश्मीर आया था। वह समरकंद से या तुर्किस्तान से, बुखारा से या फिर ईरान से भारत में आया था, इस पर अभी तक बहस चलती रहती है। वह अपने मित्र मुल्ला अहमद को साथ लेकर कश्मीर घाटी में ही बस गया। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि वह एक हजार शिष्यों के साथ भारत में आया था, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है। यह जरूर कहा जाता है कि उसके साथ उसके दूसरे दो साथी सैयद कमालुद्दीन और सैयद जलालुद्दीन भी थे। वैसे तो उसके असली नाम को लेकर भी विवाद है लेकिन अपने आसपास के लोगों में वे बुलबुल शाह तुर्कस्तानी के नाम से ही जाना जाता था। इसका एक कारण उसकी सुरीली आवाज भी हो सकता है। बुलबुल शाह के नाम से जुड़ी एक और कथा भी है। उसका तख्खलस बिलाल था। इसी बिलाल से उसे बुलबुल शाह कहा जाने लगा। वह अपने आप को सुहरावर्दी सिलसिले का सूफी फकीर कहता था जो कश्मीर घाटी में इस्लाम का प्रसार करने के लिए आया था। इसलिए वह आम कश्मीरियों को आकर्षित करने के काम में लग गया था। भारत आने से पहले बुलबुल शाह अनेक साल बगदाद में भी रहा था। ज्ञान और साधना के क्षेत्र में आम कश्मीरी अरबों, तुर्कों व मंगोलों से इक्कीस ही ठहरता है। बुलबुल शाह उस समय के कश्मीरियों को कितना प्रभावित कर पाया होगा, इसमें संदेह ही है। इसलिए वह उस समय घाटी में इस्लाम की जड़ नहीं लगा सका। जिस समय बुलबुल शाह कश्मीर की घाटी में अपने लिए जमीन तलाश रहा था, उस समय कश्मीर में लोहरा वंश का शासन था और इस वंश के सहदेव या सुहदेव कश्मीर नरेश थे। सहदेव के राज्यकाल में कश्मीर घाटी में बाहर से आकर बहुत से लोग बस गए। राजा ने उन्हें प्रश्रय दिया। इसका ज‌िक्र जोनराज ने अपनी राजतरंगिनी में किया है। श्रीकंठ कौल के अनुसार, “It appears from Jonraja’s poetical language that Suhdeva was munificent in providing means of subsistence to outsiders, who had entered the valley in search of employment. In fact the outsiders were mercenary recruits, refugees and travelers patronised equally by the king and his rivals, the damars, in order to increase the number of their own retainers.” (४) सहदेव ने लार घाटी के शक्तिशाली सरदार रामचंद्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया था।

४. कश्मीर में तीन की तिकड़ी का आगमन : उन्हीं दिनों ईस्वी सन् १३०० से १३२० के बीच कश्मीर घाटी में तीन व्यक्ति और आए थे जिनको जाने बिना कश्मीर के इतिहास में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। ये तीन महानुभाव थे रिंचन, शाहमीर और लंकेर चक। वैसे ये तीनों वर्तमान जम्मू-कश्मीर के ही रहनेवाले थे। रिंचन लद्दाख का था, शाहमीर राजौरी का था और लंकेर चक गिलगित का रहनेवाला था। यदि यह कहा जाए कि कश्मीर घाटी के आधुनिक काल की तमाम समस्याओं के बीज इन्हीं दो दशकों में बोए गए थे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। अब इन तीनों महानुभावों के बारे में थोड़ा विस्तार से जान लेना जरूरी है।

(क) रिंचन–रिंचन : जिसे भोटी भाषा में, लहा चेन ग्यालबू रिन चेन लिखा जाता है, बौद्ध मत को माननेवाला था और लद्दाख के ना रुब राजवंश का राजकुमार था। भोटी भाषा में ग्यालबू का अर्थ ही राजकुमार होता है। वर्तमान जम्मू-कश्मीर राज्य के दो खंडों लद्दाख व बल्तीस्तान के शासकों में लड़ाई-झगड़े होते रहते थे। लद्दाखियों को पुराने ग्रंथों में वकतन्य भी कहा गया है। इसी प्रकार बलतियों को कालमान्य या मान्य भी कहा जाता है। इस्लाम में मतांतरण से पहले बलती भी बौद्ध थे। रिंचन के पिता ने लद्दाख की गद्दी पर कब्जा जमाया। लेकिन लद्दाखियों और बल्तियों की लड़ाईयों में रिंचन के पिता की हत्या कर दी गई। रिंचन ने अपने पिता की हत्या का बदला लिया या फिर उसके बाद स्वयं गद्दी सँभाली, इसके बारे में मतैक्य नहीं है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि उसके अपने प्राण संकट में पड़ गए। इसलिए वह अपने विश्वस्त साथियों के साथ वहाँ से भागकर जोजीला के रास्ते कश्मीर में आ गया। रिंचन ने कश्मीर में लार संभाग में नीलग्राम, या नील या नीलाह या नीलाश पर कब्जा जमाया। सहदेव ने रिंचन को कश्मीर से इसलिए नहीं भगाया क्योंकि वह लार घाटी में लावण्य या डामर रामचंद्र के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहता था। उधर रामचंद्र ने रिंचन का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि वह सहदेव की शक्ति को कम करना चाहता था। कश्मीर के दुर्भाग्य से जिस समय लद्दाख का रिंचन पूर्व दिशा से घाटी में पैर पसार रहा था, उसी समय मंगोल दुल्चु ने बारामूला या बराहमूल की पश्चिम दिशा से कश्मीर पर हमला कर दिया। यह माना जा सकता है कि रामचंद्र ने रिंचन का विरोध न कर उसे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। इससे रामचंद्र को क्या लाभ हुआ यह विवादास्पद हो सकता है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इससे रिंचन का रुतबा लार घाटी में अवश्य बढ़ गया। जोनराज तो यह कहता है कि कश्मीर के लोग दुल्चु और रिंचन के दो पाटों के बीच में पिस रहे थे। उसने उस समय के कश्मीरी डामर रामचंद्र से मित्रता स्थापित कर ली और कश्मीर नरेश सहदेव से भी नजदीक‌ियाँ बनाईं। वह जल्दी ही रामचंद्र और सहदेव के विश्वस्तों में गिना जाने लगा। (६) कुछ इतिहासकार रिंचन को लद्दाख के राजवंश का नहीं मानते। वह लद्दाख के राजवंश का था या नहीं इस पर मतभेद हो सकता है लेकिन इसमें कोई बहस नहीं है कि वह बौद्ध था।

(ख) शाहमीर : शाहमीर वर्तमान जम्मू-कश्मीर के बुधाल और राजौरी के बीच पंचगहवरा घाटी में स्वादगिर का रहनेवाला था। वह वहाँ से १३१३ में कश्मीर घाटी में आया था। कश्मीर में एक दंत कथा यहक भी है कि शाहमीर के दादा को स्वप्न आया था कि शाहमीर एक दिन कश्मीर का राजा बनेगा। उस स्वप्न से उत्साह में आकर उसने शाहमीर को राजौरी छोड़कर परिवार सहित कश्मीर चले जाने के लिए कह दिया। यह भी कहा जाता है कि शाहमीर के दरबारियों ने ही अपने मालिक की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए इस कथा का अविष्कार किया था। शाहमीर के स्वप्न की कथा का ज‌िक्र जोनराज ने भी राजतरंगिनी में किया है। हो सकता है कालांतर में यहीं से यह कथा कश्मीरी जनमानस में घर कर गई हो। शाहमीर खश जाति का राजपूत था। उन दिनों हिमालयी क्षेत्र में खश, किन्नर, किरात, निषाद इत्यादि जातियाँ बहुतायत में थीं। जोनराज ने द्वितीय राजतरंगिनी में शाहमीर को स्वात का बताया है, जो क्षत्रिय कुल का था लेकिन जिसके पूर्वज इस्लाम पंथ में दीक्षित हो गए थे। जोनराज ने अपनी राजतरंगिनी में शाहमीर के वंश के बारे में विस्तार से लिखा है। लेकिन इसके लिए उसने मोटे तौर पर भाटों की शैली का ही अनुसरण किया लगता है। शाहमीर के वंश को उच्चता प्रदान करने के लिए उसने सीधे ही उसे महाभारत के वभ्रुवाहन से जोड़ दिया। जोनराज ने शाहमीर को पांडवों के वंश से जोड़कर उसके वंश को तो शिखर पर पहुँचा दिया लेकिन अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा लिया। डॉ. रघुवीर सिंह ने जोनराज की राजतरंगिनी के हिंदी अनुवाद की भूमिका में शाहमीर की वंशावली निम्न प्रकार दी है। “पार्थ वभ्रुवाहन कुरुशाह शाहमीर। जिसका अर्थ है कि वह कुरुवंश से ताल्लुक रखता था। ऐसा कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता जिससे शाहमीर का पांडवों से संबंध जुड़ता हो। उसके किसी पुरखे का नाम पांडव हो सकता है जिसे बाद के इतिहासकारों ने महाभारत के पांडवों से जोड़ दिया। श्रीकंठ कौल के अनुसार, “शाहमीर खश जाति का लुटेरा हो सकता है जो सुहदेव की सेना में काम करता था।” प्रो. बलराज मधोक शाहमीर को खुरासानी मानते हैं। लेकिन इसका कोई प्रमाण उन्होंने भी नहीं दिया।

परवर्ती फारसी इतिहासकारों ने जोनराज की नकल करते हुए शाहमीर को महाभारत के पांडव परंपरा से जोड़ दिया। बी.एन. अहमद भी शाहमीर को महाभारत काल के अर्जुन की कुल परंपरा का मानता है। अबुल फजल के अनुसार भी शाहमीर महाभारत के अर्जुन की कुल परंपरा का था।  फरिश्ता भी शाहमीर को अर्जुन का वंशज ही मानता है। उसके अनुसार, “सन् १३१५ में जब कश्मीरियों का शासन सहदेव नामक राजा के हाथ में था, कश्मीर में एक व्यक्ति जिसका नाम शाह मिर्जा था, फकीरों के वेश में आया और राजा के कर्मचारियों में प्रवेश प्राप्त कर लिया। शाह मिर्जा अपने आप को अर्जुन का वंशज बताता था। और अपने वंश का शिजरा इस प्रकार बताता था। शाह मिर्जा माहिर-बिन-आलबिन गर शासफ बिन नकोदर। नकोदर के बारे में शाह मिर्जा का विचार था कि यह व्यक्ति अर्जुन के वंश से था जो पांडव के नाम से प्रसिद्ध है।” लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए कि शाहमीर अर्जुन के वंश का ही था तो अब वह अर्जुन की कुल परंपरा और विरासत को बहुत पीछे छोड़ आया था। उस के पुरखों ने इस्लाम मजहब स्वीकार कर लिया था। लेकिन उसके पुरखों ने कब इस्लाम ग्रहण किया था, इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह ग्याहरवीं-बारहवीं शताब्दी में ही हुआ होगा। शाहमीर क्षत्रिय कुल का था इसलिए स्वभाविक ही वह भी राजा के पास अपने अनुकूल किसी कार्य की तलाश में जाता और ऐसा उसने किया भी। सहदेव ने उसे अपने दरबार का हिस्सा बनाया और बारामुला में उसे एक गाँव की जागीर प्रदान की। सहदेव ने शाहमीर का किस प्रकार स्वागत किया इसका ज‌िक्र करते हुए जोनराज कहता है,” भूपति ने उसे उसी प्रकार अनुगृहीत किया जिस प्रकार आम का वृक्ष भ्रमरों को करता है।

(ग) अलंकार चक्र अथवा लंकेर चक : लंकेर चक अथवा अलंकार चक्र गिलगित दर्दस्तान का रहनेवाला था। वह अपने कुछ संगी साथियों के साथ कश्मीर में आया और उसने तरेहगाम गाँव में डेरा जमाया। वह डामर प्रमुख था। कुछ विद्वान लंकेर चक को गुरेज का रहनेवाला भी मानते हैं। चक या चक्र क्षत्रिय कुल के माने जाते हैं और स्वभाव से लड़ने-भिड़नेवालों में इनकी गिनती होती है। गिलगित में इस्लाम का प्रवेश कश्मीर घाटी से पहले हो चुका था। चक जाति के बहुत से लोग इस्लाम की ओर जा रहे थे। लेकिन इसके बाबजूद उनका आचरण और व्यवहार हिंदू या बौद्ध ही रहा। उनके नाम भी हिंदू तर्ज पर ही रहे। लंकेर चक के अलावा एक दूसरा चक सरदार हिलमत भी इसी कालखंड में गिलगित से कश्मीर में आया और उसने कुपवाड़ा में अड्डा जमाया। इन चकों ने शाहमीर, जिसने कालांतर में अपने षड्यंत्रों के चलते कश्मीर की गद्दी पर कब्जा कर लिया था,के राज्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद में तो चकों ने ही कश्मीर की गद्दी पर कब्जा कर लिया था।

जोनराज लिखता है “दिगंतर से वृत्ति लिप्सा से प्रवेश किए, अनेक लोगों ने राजा का आश्रय ग्रहण किया था।” यह घटना सन् १३०१ की है। राजा की उदारता से आश्रय एवं शरण प्राप्त यह विषवृक्ष कश्मीर में पनपने लगा। इससे पूर्व हिंदू राजाओं की नीति थी कि वे किसी विदेशी को कश्मीर में न प्रवेश करने देते थे और न आबाद होने देते थे। इस नीति त्याग का कारण हिंदू राजाओं का दुर्बल होना तथा सीमांत से कश्मीर में इस्लाम में मतांतरित हो चुके तुर्कों एवं मंगोलों का प्रवेश और दबाब था।” कश्मीर नरेश सहदेव की उदारता का लाभ उठाते हुए रिंचन, शाहमीर और लंकेर चक जब कश्मीर घाटी में जब अड्डा जमा चुके थे, तभी कश्मीर के दुर्भाग्य से कश्मीर पर एक मंगोल आक्रांता दुल्चु ने हमला किया।

५. कश्मीर पर मंगोल दुल्चु का हमला और कश्मीर नरेश सहदेव का पलायन : महमूद गजनवी के हमलों के बाद तुर्कों के हमले उत्तर भारत के दूसरे हिस्सों पर तो जारी रहे लेकिन उन्होंने कश्मीर की ओर रुख नहीं किया था। इसका एक कारण शायद शुरू में कश्मीर में महमूद गजनबी की असफलता की कहानियाँ भी रही हों। लेकिन जब उत्तरी भारत पर मंगोलों के हमले शुरू हुए और उन्होंने दिल्ली में स्थापित हो चुकी तुर्कों की सल्तनत को हिलाना शुरू कर दिया तो मंगोलों की मार में कश्मीर भी आ गया। एक मंगोल सरदार दुल्चु ने सन् १३२० में अपने सत्रह हजार सैनिकों के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया। कुछ इतिहासकार दुल्चु को लद्दाख नरेश कर्मसेन का सेनापति मानते हैं लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं लगता क्योंकि उस कालखंड में लद्दाखियों ने कश्मीर घाटी पर हमला किया हो, ऐसा ज‌िक्र इतिहास में कहीं नहीं आता। डॉ. रघुनाथ सिंह, दुल्चु को तुर्कस्तानी मंगोल मानते हैं। मंगोलों ने भारत पर सभी हमले अफगानिस्तान के रास्ते ही किया। इसलिए दुल्चु भी बारामुला के रास्ते कश्मीर में आया होगा।” सहदेव ने उसका सामना करने की कोशिश की। उसे धनराशि देकर संतुष्ट करने का प्रयास भी किया। लेकिन वह न तो उसका सामना कर सका और न ही उसे खरीद सका। प्रजा की रक्षा करते हुए रणभूमि में मर जाने का साहस उसमें नहीं था। तब पीठ दिखा कर भागने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा था। वह भागकर किश्तवाड़ चला गया। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वह भागकर तिब्बत चला गया था। वह भागकर कहाँ गया, इससे ज्यादा अंतर भी नहीं पड़ता। लार घाटी में वर्चस्व जमाए डामर रामचंद्र ने भी लार या लहर के क‌िले में स्वयं को अपने परिवार सहित बंद कर लिया। उसके साथ उसके कुछ गिने चुने विश्वस्त सैनिक थे। अब कश्मीर घाटी में दुल्चु का विरोध करनेवाला कोई नहीं था। वह निरंतर आठ महीने कश्मीर घाटी में लूटमार करता रहा। निर्दयता से लोगों की हत्या की गई। खेत खलिहानों को जला दिया गया। हजारों स्त्री, पुरुषों और बच्चों तक को गुलाम बना लिया गया। कश्मीर में लूटमार कर दुल्चु को तो आखिर लौट ही जाना था। कश्मीर में सभी कुछ नष्ट हो जाने के कारण भुखमरी के हालात पैदा हो गए थे। घाटी में सर्दी शुरू हो गई थी। दुल्चु किसी छोटे रास्ते से वापिस लौटना चाहता था। कश्मीरियों ने उसे जो छोटा रास्ता बताया, वह उसकी मौत का रास्ता था। वैसे भी दिल्ली में राजनीतिक हालात बदल रहे थे। “सुल्तान मुबारक शाह का कत्ल हो गया था। दुल्चु ने इसका फायदा उठाने के लिए जल्दी से जल्दी दिल्ली की ओर प्रस्थान करने की सोची। वह जम्मू के रास्ते जा रहा था। बनिहाल पहुँचते-पहुँचते वर्फबारी ने घेर लिया और दुल्चु समेत सभी वहीं हिम समाधि में चले गए।” कश्मीरियों ने उसे जिंदा लौट जाने का अवसर प्रदान नहीं किया। दुल्चु के बाद कश्मीर नरेश सहदेव वापिस अपने राज्य में लौटा।

६. रामचंद्र द्वारा राजसिंहासन सँभालना : लेकिन अब कश्मीर की गद्दी पर कब्जा करना इतना आसान नहीं था। संकट काल में उसके कायरतापूर्ण व्यवहार के कारण आम लोगों में उसका कोई सम्मान नहीं बचा था। रामचंद्र ने ही उसके पैर नहीं लगने दिए। रामचंद्र उसे परास्त कर स्वयं कश्मीर की राजगद्दी पर काबिज हो गया। लेकिन लोगों के मन में अब इन कायरों के प्रति कोई सम्मान नहीं बचा था। दुलचा के आक्रमण और लूट के बाद कश्मीर में कोई शासन व्यवस्था बची ही नहीं थी। अकाल के हालत पैदा हो गए थे। आक्रमण काल में रिंचन और शाहमीर ने आम जनता से संपर्क बनाए रखा था। दोनों ने शायद यह अनुमान भी लगा लिया था कि सहदेव अब किसी उपयोग का नहीं रहा था। दोनों ने ही सहदेव के उपकारों को भूलने में क्षण मात्र नहीं लगाया। रिंचन ने रामचंद्र के महल में अपने कुछ विश्वस्त भोट सैनिक भी तैनात कर दिए थे और स्वयं किसी उपयुक्त समय की ताक में रहने लगा था।

७. रिंचन भोट का कश्मीर का शासक बनना : राम चंद्र के भाग्य में ज्यादा देर तक राजा बने रहना नहीं लिखा था। उसके दोनों सहयोगी, रिंचन और शाहमीर आपस में मिल गए। वे जनता के सुख दुख के साथी बनने लगे और उसका विश्वास जीतने का प्रयास करने लगे। रिंचन ने अपने सैनिकों को वस्त्र व्यापारियों के रूप में रामचंद्र के महल में भेजना शुरू कर दिया। एक दिन व्यापारियों के भेष के इन सैनिकों ने रामचंद्र की उसके महल में ही हत्या कर दी और रिंचन ने अपने आप को कश्मीर का बादशाह घोषित कर दिया। ६ अक्तूबर, १३२० को उसका राज्याभिषेक हुआ। लेकिन राजा बनने से पहले ही उसने रामचंद्र के परिवार से सामंजस्य बनाने का प्रयास भी किया। रामचंद्र की बेटी कोटा देवी से शादी कर ली। रिंचन राजा बना और कोटा देवी महारानी। इतना ही नहीं उसने रामचंद्र के बेटे रावणचंद्र को भी छोटी-मोटी जागीर दे दी।

७.१ रिंचन द्वारा भोट विहार का निर्माण : रिंचन कश्मीर का राजा हो गया है, इसकी खबर लद्दाख में भी पहुँची। रिंचन लद्दाख का रहने वाला था। कश्मीर में जाने के बाद भी उसका लद्दाख से रिश्ता टूटा नहीं था। लद्दाख से बौद्ध भिक्षु, लामा और दूसरे साधारण लद्दाखी, उससे मिलने के लिए श्रीनगर आने लगे। वैसे भी उन दिनों कश्मीर में बौद्ध मत का प्रभाव बचा हुआ था। रिंचन के अपने विश्वस्त सैनिकों में से भी कुछ लद्दाखी भोट थे। इसलिए उसने इन सभी की सुविधा व भोटों की पूजा व्यवस्था व निवास के लिए राजमहल के समीप ही एक मठ या विहार का निर्माण करवाया। श्रीनगर में यह विहार, भोट विहार या लद्दाख विहार के नाम से प्रसिद्ध हो गया। रिंचन ने गरीब लोगों की भोजन व्यवस्था के लिए इसी इलाके में एक सार्वजनिक लंगरखाना भी खोला, जहाँ कोई भी गरीब या निराश्रित भोजन कर सकता था और रह भी सकता था। मध्य एशिया के तुर्कों/मंगोलों के सताए हुए जो सैयद कश्मीर में आ गए थे, उनमें से भी अनेक यहाँ भोजन करते थे। निराश्रितों के रहने की व्यवस्था हो जाने के कारण इसे खानगाह भी कहा जाने लगा। बुलबुल शाह भी उसी विहार में रहने लगा और वहीं लंगर में भोजन करने लगा। वहीं बुलबुल शाह नमाज भी पड़ता होगा। इतना निश्चित है कि बुलबुल शाह की अब तक शाहमीर के साथ नजदीकियाँ बन ही गई होंगी। इसलिए रिंचन के राजमहल के नजदीक बने लंगरखाने में ठहरने और मठ में नमाज पढ़ने में उसे कोई असुविधा नहीं हुई होगी।

७.२ कश्मीर की लोक कथाओं में रिंचन द्वारा इस्लाम की शरण में चले जाने की दंतकथा : हिंदुस्तान की सभी भाषाओं में कश्मीरी भाषा ही ऐसी भाषा है जो लोक साहित्य या लोक गाथाओं के मामले में सर्वाधिक समृद्ध कही जा सकती है। कहा जाता है कि कश्मीर का शासक बनने के बाद रिंचन ने इस्लाम पंथ को स्वीकार कर लिया और मुसलमान हो गया। मुसलमान होने के बाद उसने अपना नाम भी बदल लिया। अब वह सुल्तान सदरुदीन हो गया था। फारसी इतिहासकार उसे इसी नाम से संबोधित करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि अब भगवान् बुद्ध के स्थान पर बुलबुल शाह, रिंचन के इस्लामी गुरु हुए। यह ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर दिए बिना कश्मीर के इतिहास में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। लेकिन उससे भी ज्यादा रुचिकर वह तरीका हे जिसके अनुसार रिंचन को मुसलमान पंथ में शामिल होते दिखाया है। वह मुसलमान कैसे बना, इसको लेकर जो कथा प्रचलित हुई है, उसके लिए ऐतिहासिक साक्ष्य तो नदारद है ही लेकिन उसमें तार्किक श्रृंखला भी गायब है। लेकिन लोक साहित्य का अध्ययन करनेवाले जानते हैं कि दंत कथाओं में जिज्ञासा व मनोरंजम का तत्व प्रमुख होता है, तर्क के लिए उतना स्थान नहीं रखा जाता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग उसमें कुछ-न-कुछ जोड़ते रहते हैं। कश्मीरी जनमानस में प्रचलित इस लोक कथा के दो हिस्से हैं—

(क) पंडितों द्वारा रिंचन को हिंदू बनाने से इनकार करना : ऐसा कहा जाता है कि रिंचन, काश्मीर नरेश बनने के बाद, हिंदू बनने के बारे में सोचने लगा था। लद्दाख का होने के कारण उसे कश्मीर घाटी में अपनी जड़ें जमानी थीं। कश्मीर घाटी में वह हिंदू राजा रामचंद्र की हत्या करके राजा बना था। उसने रामचंद्र के परिवार के सदस्यों से तो समझौता कर लिया था। उसकी बेटी कोटा देवी से विवाह करके और उसके बेटे रावणचंद्र को राज्य प्रशासन में ऊँचा पद देकर। लेकिन वह जानता था कि यदि लंबे समय तक राज करना है तो घाटी के कश्मीरी समुदाय से मान्यता लेनी ही होगी। उस समय तक कश्मीरी समुदाय मोटे तौर पर हिंदू या बौद्ध ही था। घाटी में कुछ संख्या में मुसलमान भी थे, लेकिन उस समय ये मुसलमान कश्मीरी नहीं थे बल्कि उनमें ज्यादातर अरब, ईरान इत्यादि से आए हुए विदेशी सैयद ही थे। सैयद उसको मान्यता दें या न दें, इससे रिंचन की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़नेवाला था। क्योंकि ये विदेशी सैयद तो स्वयं अपने लिए कश्मीर घाटी में स्थान तलाश रहे थे। ऐसी स्थिति में उसका बौद्धमत त्यागने का एक ही कारण हो सकता था कि वह कश्मीर घाटी के बहुमत की विरासत से स्वयं को जोड़ना चाहता हो। इसका उसने प्रयास भी किया। घाटी के हिंदू समुदाय से उसने अनुरोध किया कि उसे भी उस समय कश्मीर में प्रचलित हिंदुत्व के शैवमत का अनुयायी बना लें। लेकिन हिंदू समुदाय मिशनरी समुदाय तो है नहीं। किसी को हिंदू कैसे बनाया जा सकता है, उस समय यह सचमुच बहस और विवाद का विषय ही हो सकता था। पंडितों में इसको लेकर बहस हुई। कहा जाता है कि देवस्वामी ने इस पर विचार करने के लिए विद्वानों की सभा बुलाई। परिणाम वही था कि हिंदू के घर में जन्म लेकर ही हिंदू बना जा सकता है। उसने रिंचन को शैवमत में दीक्षा देने से इनकार कर दिया।

यह कथा कि देवास्वामी ने रिंचन को शैव मत में लेने से इनकार कर दिया, विश्वसनीय नहीं लगती। प्रथम तो यही कि हिंदुओं की स्थिति उस समय ऐसी नहीं थी कि वे मौके के बादशाह को इनकार कर सके। दूसरे इस्लाम और ईसाइयत की तरह हिंदू कोई संगठित मजहब नहीं है जिसमें शामिल होने के लिए किसी रस्म या अनुमति की जरूरत पड़ती हो। न ही हिंदुओं में ऐसा अकेला व्यक्ति प्राधिकृत होता है, जिसे शैव या अन्य किसी मत की देने के लिए प्राधिकृत हो। देवस्वामी ने इनकार किया तो राजा किसी दूसरे स्वामी को पकड़ सकता था। चौदहवीं शताब्दी में लद्दाख का बुद्धमत, वज्रयान में विकसित हो चुका था जिसे बुद्धमत और कश्मीर के शैवमत का संश्लेषण कहा जा सकता है। बज्रयान और शैवमत में बहुत ज्यादा फासला नहीं है। चौदहवीं शताब्दी का कश्मीर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला नहीं था कि राजा को राज करने के लिए प्रजा से स्वीकृति लेना अनिवार्य हो। न ही उस समय कश्मीर की जनता उस स्थिति में थी कि बलपूर्वक गद्दी पर बैठे राजा को हटा सके। इसलिए राजा/रिंचन का हिंदू समाज का हिस्सा बनने के लिए देवस्वामी की शरण में जाने की बात गले नहीं उतरती।

(ख) रिंचन द्वारा प्रतिकार में इस्लाम को स्वीकार कर लेना : जितनी कृत्रिम, हिंदू समाज में जाने की इच्छा की कथा है, उससे भी ज्यादा कृत्रिम रिंचन के मुसलमान बन जाने की है। रिंचन हिंदू समाज की स्वीकृति चाहता था, यह तो फिर भी स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन वह मुसलमान किस उद्देश्‍य से बनेगा जब उस समय कश्मीर में मुसलमानों की संख्या उँगलियों पर ही गिनी जा सकती थी। मुस्लिम समाज से मान्यता प्राप्त करके रिंचन को क्या हासिल होनेवाला था?

रिंचन को लेकर दूसरी कथा उसके मुसलमान हो जाने की है। यह कथा पहली कथा के दूसरे हिस्से के रूप में प्रचलित है। इसके अनुसार देवास्वामी द्वारा हिंदू समाज का हिस्सा बनाने से इनकार करने से रिंचन को निराशा हुई। इसलिए नहीं कि वह हिंदू समुदाय के दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन कहने से बंचित हो गया। बल्कि इसलिए कि घाटी के बहुमत ने उसके शासन को मान्यता नहीं दी। उसके बाद वह सैयदों की ओर मुडा। कम-से-कम किसी गुट का समर्थन तो उसे हासिल करना ही था। इस मामले में शाहमीर ने उसकी सहायता की। शाहमीर के पुरखे पहले ही मुसलमान बन चुके थे। इसलिए शाहमीर की घाटी में रहनेवाले कुछ छोटे मोटे सैयद फकीरों से जान पहचान भी थी और कईयों से गहरी दोस्ती भी। घाटी में कहीं-कहीं ताजा-ताजा मुसलमान बने तुर्क और मंगोल भी बसेरा बनाने लगे थे। वैसे तो शाहमीर को भी घाटी में सैयदों के समर्थन की जरूरत थी। सैयदों को भी ऐसे समर्थक चाहिए थे जिनकी पहुँच राजदरबार तक हो। शाहमीर तो राज दरबार का हिस्सा ही था। उस समय एक ही सैयद फकीर ऐसा था जिसकी थोड़ी बहुत चर्चा होती थी, वह बुलबुल शाह था। उस समय शाहमीर ने रिंचन को इस्लाम में खींच लाने की सोची। क्योंकि यदि रिंचन इस्लाम को स्वीकार कर लेता है तो कम से कम वे दोनों हम मजहब हो जाएँगे। इसका भविष्य में शाहमीर को लाभ हो सकता था। रिंचन के मन में इस बात को लेकर निश्चय ही गुस्सा होगा कि हिंदुओं ने राजा को भी हिंदू बनाने या अपना मानने से इनकार कर दिया है। गुस्से के साथ निराशा रही ही होगी। शायद इसीलिए यह प्रचलित हुआ होगा कि रिंचन मुसलमान हो गया है।

इस कथा के अनुसार रिंचन ने निर्णय किया कि सुबह उठकर वह अपने महल से बाहर निकलेगा, जिस व्यक्ति का वह सबसे पहले मुँह देखेगा, उसी के मजहब को वह स्वीकार कर लेगा। दूसरे दिन जैसे ही वह बाहर निकला तो बुलबुल शाह उसके महल के सामने नमाज पढ़ता हुआ दिखाई दिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रिंचन ने इस्लाम मत स्वीकार कर लिया और वह मुसलमान हो गया। लेकिन इस कथा के भीतर का खोखलापन, इस पूरी मनघडंत कथा का मुँह चिढ़ाता है। सुबह उठकर मुँह देखने पर रिंचन के पास तीन ही विकल्प थे।

१. यदि सुबह रिंचन के मत्थे कोई हिंदू लग जाता तब भी वह हिंदू नहीं बन सकता था, क्योंकि हिंदुओं ने तो उसे हिंदू बनाने से पहले ही इनकार कर दिया था। इसलिए सुबह किसी हिंदू के मत्थे लगने या न लगने का विकल्प तो पहले ही खत्म हो चुका था।

२. दूसरा विकल्प किसी बौद्ध के मत्थे लगने का था। वह विकल्प वास्तव में था ही नहीं क्योंकि रिंचन तो स्वयं बौद्ध ही था और इसी मत को वह छोड़ना चाहता था।

३. इसलिए अब राजनैतिक लिहाज से उसके पास केवल मुसलमान हो जाने का रास्ता बचा था। और कोई मजहब मसलन ईसाई या यहूदी उस समय कश्मीर घाटी में था ही नहीं।

कुछ विद्वान यह कहते हैं कि रिंचन ने बौद्ध, हिंदू और इस्लाम, इन तीनों मतों का गहराई से अध्ययन किया, इन मतों के विद्वानों से लंबी चर्चाएँ कीं। अंत में उसे इस्लाम मत ही सर्वश्रेष्ठ लगा। इसलिए उसने मुसलमान बनने का फैसला कर लिया। लेकिन इसका कोई पुख्ता आधार नहीं मिलता। रिंचन मूलत बौद्ध मत को माननेवाला था। वह लद्दाख के राजवंश से ताल्लुक रखता था। बौद्ध मत उसके पुरखों का पंथ था। इसलिए वह उसे विरासत में मिला था। वह शासक वर्ग से ताल्लुक रखता था। वह अरस्तु का ‘दार्शनिक राजा’ नहीं था जिसने विभिन्न मतों का मर्म समझने के लिए दार्शनिक परिषदों के सम्मेलन किए हों और उसके उपरांत इस्लाम को स्वीकार करने की सार्वजनिक घोषणा की हो। रिंचन कोई बहुत बड़ा नामी गिरामी दार्शनिक भी नहीं था जो बौद्ध मत के दर्शन से निराश होकर उसे त्यागने का निर्णय कर बैठा है।

यदि रिंचन सचमुच मुसलमान हुआ होता तो यकीनन वह अपनी प्रजा को भी इस्लाम में खींचने की कोशिश करता लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। यहाँ तक की उसकी पत्नी कोटा रानी भी मुसलमान नहीं बनी थी। रिंचन के बहुत बाद जब कश्मीर में अधिकांश प्रजा का मत परिवर्तन हो गया होगा तब सैयदों ने यह कथा अपने एक पूर्व साथी बुलबुल शाह कलंदर का प्रभामंडल निर्माण करने के लिए रची होगी। प्रो. अब्दुल क्यूम रफीकी के अनुसार, “यह कथा इस्लाम को महिमामंडित करने और सैयद शरफुद्दीन की चमत्कारी शक्तियों को स्थापित करने के लिए गढ़ी गई लगती है।”

मध्यकाल के एक अन्य इतिहासकार हैदर मलिक ने फारसी भाषा में तारीख-ए-कश्मीर की रचना की। हैदर मलिक ने भी रिंचन के मुसलमान बन जाने का जिक्र किया है। उसने भी लगभग उपरी कथा को ही दोहराया है। उसके अनुसार, “रिंचन ने काफिरों यानि हिंदुओं को बुलाकर कहा कि मुझे अपने पंथ के बारे में बताओ। तब उनके झूठे पंथ से उसकी संतुष्टि नहीं हुई। तब उसने सीधे अल्लाह को संबोधित किया। अल्लाह ने अपनी दया के दरवाजे उसके लिए खोल दिए। उसका भाग्य अच्छा था, उसने अल्लाह की रोशनी में फैसला किया कि कल सुबह उसको जो पहला व्यक्ति अपने महल के बाहर मिलेगा, वह उसी के मजहब को स्वीकार कर लेगा। दूसरे दिन जब वह अपने महल से बाहर आया तो उसने अपने घर के बाहर एक व्यक्ति प्रार्थना करने में लीन था। इससे पहले उसने प्रार्थना का यह तरीका नहीं देखा था। उसको विश्वास हो गया कि प्रार्थना का यह तरीका पाखंडरहित है और यही प्रार्थना भगवान द्वारा स्वीकृत की जाती है। रिंचन ने उस व्यक्ति से उसका नाम और मजहब पूछा। उसने अपना नाम बुलबुल और मजहब इस्लाम बताया और राजा को इस्लाम के बारे में समझाया। क्योंकि ये सभी बातें बुलबुल के दिल से निकल रही थीं, इसलिए इन बातें ने रिंचन के द‌िल पर सीधा असर किया। वह इस्लाम की मजबूत रस्सी पर चल पड़ा। तब रिंचन ने इस्लाम के प्रसार के ऐसे प्रयास किए कि सारी प्रजा मुसलमान हो गई।” हैदर की कथा में एक ही पेंच है। उसके अनुसार रिंचन ने किसी आदमी को नमाज पढ़ते पहली बार देखा था। तुर्क/मंगोल दुल्चु आठ महीने पूरी घाटी में कत्लेआम करता रहा और लूटमार करता रहा। दुल्चु की सेना में मध्य एशिया के हजारों मुसलमान थे जो कुछ शताब्दियों पहले बुद्धमत छोड़कर मुसलमान बने थे। यह आश्चर्य की बात है कि इन आठ महीनों में रिंचन ने किसी मुसलमान को नमाज पढ़ते देखा नहीं था। रिंचन का दूसरा साथी शाहमीर था। दुल्चु के सैनिक तो नमाज पढ़ने में फिर भी कोताही कर सकते थे लेकिन शाहमीर को भी इतने साल में रिंचन ने कभी नमाज पढ़ते नहीं देखा। इस पर हैदर मलिक के परवरदगार तो विश्वास कर सकते हैं कोई कश्मीरी कैसे विश्वास कर सकता है जिसका संवाद ही तर्क से शुरू होता है। जब रिंचन ने अल्लाह से सीधा संवाद स्थापित कर लिया और उसे वह इलाही प्रकाश प्राप्त हो चुका था तो ‘जो पहले मिलेगा उसी का मजहब स्वीकार कर लूँगा’ की कथा तो अपने आप अप्रासांगिक हो जाती है। इस कथा में तो यह संभावना बची ही रहती है कि दरवाजे पर कोई भी मिल सकता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि सचमुच रिंचन मुसलमान बना ही था तो वह इलाही प्रकाश होने की वजह से नहीं बल्कि एक सैयद के गहरे षड्यंत्र में फँस कर बना था। यदि वह कभी मुसलमान बना ही नहीं था तो यह कथा कश्मीर के हिंदू समाज में सैयद बुलबुल शाह की प्रतिष्ठा बढाने के लिए रची गई। इसलिए कहानी का यह हिस्सा गढ़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि यदि हिंदुओं ने उसको हिंदू नहीं बनाया थो तो वह सीधा मुसलमान ही बन सकता था। घाटी में और कोई मजहब था ही नहीं जिसमें जाने का विकल्प उसके पास हो? तब पूरी कहानी में सैयद बुलबुल शाह को क्यों घसीटा गया है? इसका मकसद सिर्फ इतना ही है कि सैयद घाटी में अपना रुतबा बढ़ाना चाहते थे और आम कश्मीरियों का यह कहकर डराना चाहते थे कि तुम्हारा राजा ही हमारे कहने पर चलता है, हमसे मार्गदर्शन लेता है तो तुम्हारी क्या औकात है?

हैदर अली की इस कथा को वर्तमान काल में भी सत्य मानने और बतानेवाले एक दूसरे व्यक्ति श्रीनगर के सैफुद्दीन सोज भी यही मानते हैं कि “बुलबुल शाह ने रिंचन को मुसलमान बनाया और जब कश्मीर के लोगों ने अपने राजा को मुसलमान बनते देखा तो तुरंत उसका अनुकरण करते हुए मुसलमान हो गए।” बुलबुल शाह ने रिंचन को मुसलमान बनाया, इसको लेकर तो पक्ष विपक्ष में फिर भी मतभेद हैं लेकिन अपने राजा को मुसलमान बनते देख सारे कश्मीरी मुसलमान बन गए, यह रहस्योदघाटन पहली बार सोज ने ही किया है। यह अलग बात है कि इस रहस्योदघाटन को विश्वसनीय बनाने के लिए न तो उन्होंने कोई स्रोत बताया है, न ही कोई तर्क दिया है और न ही उस समय की घटनाओं की कोई ऐसी सिलसिलेवार व्याख्या की है कि उनकी इस बात पर विश्वास किया जा सके। लेकिन फिर भी वे मानते हैं कि रिंचन, जो लद्दाखी बौद्ध था, ने एक दिन पहले इस्लाम को पकड़ा और दूसरे दिन से सभी कश्मीरी भेड़ों की तरह उसका अनुसरण करते हुए मुसलमान होने लगे, और उसके राज के तीन साल के अल्पकाल में सारे कश्मीरी मुसलमान हो गए। हैदर मलिक से प्रमाण की आशा करना तो मध्यकालीन फारसी इतिहास लेखन की शैली को देखते हुए उचित नहीं होगा लेकिन सोज तो मध्य युग के नहीं बल्कि इक्कीसवीं शताब्दी में रहते हैं, फिर भी दंत कथाओं को इतिहास का रंग दे रहे हैं। फारसी इतिहासकार निजामुद्दीन और फरिश्ता भी रिंचन के मुसलमान बनने की कथा को स्वीकार नहीं करते। वे रिंचन को काफिर बताते हैं। वे शाहमीर को ही कश्मीर का पहला मुस्लिम सुल्तान मानते हैं।”

कहा जाता है कि बुलबुल शाह ने रिंचन के अलावा दस हजार के लगभग और लोग मुसलमान बनाए। इसके प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। यह संभव है कि रिंचन के शासन काल में ईरान, अरब, और मध्य एशिया के अलग-अलग स्थानों से आकर दस हजार के लगभग मुसलमान कश्मीर घाटी में आकर बस चुके हैं। कालांतर में फारसी इतिहासकारों ने इन विदेशी शरणार्थियों को कश्मीरी मुसलमान कहना व लिखना शुरू कर दिया हो।

यह भी कहा जाता है कि दिंवगत सेनापति रामचंद्र के बेटे रावणचंद्र ने इस्लाम मत को स्वीकार कर लिया। लेकिन उसकी बहन और रिंचन की पत्नी कोटा रानी ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया। यह तभी संभव था जब रिंचन ने उस पर इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाब न डाला हो। यदि रिंचन सचमुच मुसलमान बन गया था और उसने दस हजार के लगभग कश्मीरियों को भी मुसलमान बना लिया था तो यकीनन वह अपनी पत्नी कोटा रानी को भी मुसलमान बनने के लिए कहता। परंतु कोटा रानी हिंदू ही थी, इसको लेकर कोई विवाद नहीं है। अत: यह कथा कि रिंचन भगवान बुद्ध की शरण छोड़कर हजरत मोहम्मद के रास्ते पर चल पड़ा था, कपोल कथा से ज्यादा मायने नहीं रखती। लगता है परवर्ती फारसी इतिहासकारों ने बुलबुल शाह का रुतबा बढ़ाने और उसे महिमामंडित करने के लिए, उसके हाथों तत्कालीन कश्मीर नरेश के मुसलमान हो जाने की कथा प्रचलित की। दरअसल शाहमीर वंश और चक वंश के शासनकाल में जब बड़ी संख्या में कश्मीरी इस्लाम मजहब में मतांतरित हो गए होंगे और विदेशी सैयदों का दबदबा भी प्रशासन में बढ़ गया होगा तो तो परंपरा को प्राचीन सिद्ध करने की जरूरत महसूस हुई होगी। उसके लिए किसी मुल्ला-मौलवी को मगिमामंडित करना जरूरी था और उसके हाथों कोई बड़ा शिकार करवाना और भी जरूरी था। इसी जरूरत के कारण इन इतिहासकारों ने सैयद बुलबुल शाह का गान गाना शुरू किया। इस प्रशस्ति गान को पंचम स्वर तक ले जाने के लिए बुलबुल शाह के हाथों कोई बड़ा शिकार मरवाना अनिवार्य था। इस्लाम की सेवा में राजा रिंचन के शिकार से बड़ा शिकार क्या हो सकता है? यहीं से रिंचन के मुसलमान बनने और बुलबुल शाह के उसके महल के बाहर बैठे होने की कथा ने जन्म लिया लगता है।

७.३ रिंचन के शासन का अंत : रिंचन ने अपने विश्वस्त मित्र शाहमीर को अपना मंत्री बनाया था। कोटा रानी से रिंचन को एक पुत्र प्राप्ति हुई। लेकिन रिंचन को देर तक शासन करने का अवसर नहीं मिला। कश्मीर में ही कुछ लोग शुरू से ही उसको अपदस्थ करने के प्रयास में लगे थे। ऐसे ही एक विद्रोही विप्लव में रिंचन घायल हो गए। शासन संभालने के तीन साल बाद ही १३२३ में इन्हीं चोटों के चलते रिंचन की मौत हो गई। रिंचन पर हमला करनेवाले ये हमलावर कौन थे, इसको लेकर कश्मीर की लोक कथाओं में विवाद चलता रहता है। यह भी कहा जाता है कि इन हमलावरों को शाहमीर की शाह थी या फिर यह शाहमीर का ही षड्यंत्र था, जिसे उसने उस समय के तुर्क व मंगोल पनाहगीरों की सहायता से पूरा किया था। रिंचन के देहांत के बाद उसकी पत्नी कोटा देवी ने शासन व्यवस्था की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। कोटा रानी का शासन १३३९ ईस्वी तक रहा। कोटा रानी कश्मीर की अंतिम हिंदू साम्राज्ञी मानी जाती है। रिंचन की मौत के लगभग तीन चार साल बाद १३२६/७ में सैयद बुलबुल शाह की भी मौत हो गई। रिंचन की मौत के बाद उस द्वारा स्थापित भोट विहार भी उजड़ गया। जब तक कोटा रानी रही तब तक तो वह बौद्ध विहार किसी-न-किसी प्रकार चलता रहा। वैसे भी रिंचन की मृत्यु के बाद लद्दाख से भोटों का आना निश्चित ही कम हो गया होगा। रिंचन के बाद शासक बना शाहमीर, जिसके पुरखे बहुत साल पहले मतांतरित होकर इस्लामपंथी हो गए थे, एक बौद्ध विहार की सहायता क्यों करता? लंगरखाना तो चलता ही राजकीय सहायता से था। उसमें भोजन करनेवाले ज्यादातर लद्दाख से आनेवाले भोट ही होते थे, अत: उसका बंद होना भी निश्चित था। वैसे भी शाहमीर के राजा बन जाने से अब कलंदरों और उनके शिष्य अन्य सैयदों को भोजन के लिए सार्वजनिक लंगरखाना की जरूरत नहीं रही थी।

जब तक शासन कोटा रानी के हाथों में रहा तब तक तो यह भोट विहार व लंगर चलता रहा लेकिन कोटा रानी को अपदस्थ कर जब शाहमीर ने कश्मीर की गद्दी पर कब्जा कर लिया तब एक प्रकार से लंगरखाना और भोट विहार दोनों के ही दुर्दिन शुरू हो गए। किसी ने इस मठ की ओर ध्यान नहीं दिया, इसलिए यह जीर्ण-शीर्ण होने लगा। शाहमीर को इसकी जरूरत नहीं थी क्योंकि उसके पुरखे अरसा पहले अपना पंथ त्याग कर इस्लाम पंथ में चले गए थे। यदि यह मसजिद होती तो शाहमीर जरूर मरम्मत ही नहीं करवाता बल्कि इसे भव्य स्वरूप भी देता। यह भोट विहार राजमहल के पास था इसलिए यह लोकमानस से तो गुम नहीं हुआ, लेकिन इसके भौतिक रूप को काल चट कर गया। लेकिन उत्तरवर्ती मुस्लिम इतिहास का हिस्सा बन गया। कालांतर में जब कश्मीर घाटी के स्थानों, गाँवों, मंदिरों/मठों के नामों के इस्लामीकरण का अभियान चला (जो किसी-न-किसी रूप में अभी तक चल रहा है) धीरे-धीरे यह बौद्ध मठ, कश्मीर में, भोट मसजिद के नाम से जाना जाने लगा। यह कथा भी प्रचलित होने लगी कि यह भोट मसजिद रिंचन ने बुलबुल शाह के लिए बनाई थी। इसलिए अब कश्मीर में पहली मसजिद बनाने का जिम्मेदार भी रिंचन को ही माना जाने लगा। यह कथा कश्मीरी जनमानस में तो प्रचलित है परंतु इसका कोई ऐतिहासिक प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। ज्यादातर विद्वान इसी के आधार पर इस बात को पक्का मानते हैं कि रिंचन बुलबुल शाह के हाथों मुसलमान हो गए थे और इस खानगाह व मसजिद को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं। लेकिन कश्मीरी लोक साहित्य में बुलबुल शाह का कहीं जिक्र नहीं आता। वह मसजिद भी जिसे बुलबुल शाह के लिए बनाया गया कहा जाता है, कश्मीरी मानस में जिंदा नहीं है। इस तथाकथित मसजिद की वास्तुकला भी बौद्ध विहार के ज्यादा नजदीक ठहरती है। कालांतर में जब अधिकांश कश्मीर घाटी इस्लाम की शरण में चली गई, कश्मीर की भाषा भी फारसी हो गई तो जन स्मृति में वह बौद्ध विहार, मसजिद के नाम से ही जाना जाने लगा। दशकों बाद इस मसजिद के स्थान की तलाश शुरू हुई। वह स्थान मिल जाने के बाद वहाँ उस जीर्ण शीर्ण बौद्ध विहार को गिराकर नई मसजिद का निर्माण करवाया गया। लेकिन जन स्मृति में अब भी वह भोट मसजिद या लद्दाखी मसजिद के नाम से ही जानी जाती है।

इसी प्रकार रिंचन की मौत के बाद धीरे-धीरे कश्मीरी समाज में उसको लेकर भी अनेक कथाएँ प्रचलित होने लगीं। उनमें से एक कथा यह थी कि रिंचन का बेटा मुसलमान हो गया था। रिंचन की मृत्यु के समय उसके बेटे की आयु मुश्किल से दो साल की थी। शाहमीर, जो एक प्रकार से रिंचन के परिवार का ही सदस्य था। (लेकिन बाद में उसमें रिंचन के परिवार को धोखा ही नहीं दिया बल्कि उसके दो साल के बेटे की हत्या की और रिंचन की पत्नी को आत्महत्या के लिए विवश किया), उस बच्चे को खान या हैदर खान के नाम से पुकारता था। मंगोल क्षेत्रों में राजा को खान भी कहा जाता है। शाहमीर, रिंचन को खुश रखने के लिए या फिर उसको धोखा देने के लिए उसके साल दो साल के बेटे को भी खान कहता था, इसीलिए बाद के कुछ इतिहासकारों ने रिंचन के बेटे को मुसलमान बताना शुरू कर दिया। यह अलग बात है कि रिंचन की मौत के तुरंत बाद शाहमीर ने उसके बेटे की भी हत्या कर दी।

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