दुर्गा का मंदिर

प्रेमचंद ने उर्दू से हिंदी में आने का निश्चय कर लिया तो उनकी पहली हिंदी कहानी ‘परीक्षा’ विजयदशमी पर ‘प्रताप’ में अक्तूबर 1914 में प्रकाशित हुई। इसके बाद उनकी ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘सौत’ (दिसंबर 1915), ‘सज्जनता का दंड’ (मार्च 1916), ‘ईश्वरी न्याय’ (जुलाई 1917) तथा ‘दुर्गा का मंदिर’ (दिसंबर 1917) में प्रकाशित हुईं। इन कहानियों से प्रेमचंद हिंदी के एक लो‌कप्रिय कहानीकार बन गए। यहाँ उनकी कहानी ‘दुर्गा का मंदिर’ प्रस्तुत है, जो एक ‌हिंदू पति-पत्नी को देवी दुर्गा के संदेश/आदेश से सत्मार्ग की ओर ले जाती है और वे पराए धन को पाप-धन मानकर उसके स्वामी को लौटा देते हैं तथा आत्मिक सुख प्राप्त करते हैं। आज के कुछ अंग्रेजी पढ़े-लिखे पाठक इसे अं‌धविश्वास और मूर्खता कह सकते हैं, लेकिन हिंदू-समाज आज भी पराया धन हो या बेटी का धन, लेना पाप मानता है।

यह कहानी पूर्णतः हिंदू-समाज के परंपरागत नैतिक विश्वास पर आधारित है। हिंदू-समाज का यह नैतिक विश्वास है कि पराए धन को रखना पाप है। पर-स्‍त्री एवं पर-धन के प्रति ऐसी ही कठोर नैतिकता रही है। यह कहानी इसी नैतिकता को स्थापित करती है। बाबू ब्रजनाथ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अनुवादक थे, परंतु उन्नति के लिए कानून की पढ़ाई कर रहे थे। नैतिक सिद्धांतों के ज्ञाता थे, लेकिन उनके पालन में शिथिल थे। एक दिन उन्हें पार्क में एक पुड़िया में आठ गिन्नी मिलीं तो वे दुविधा में फँस गए। वे पुलिस थाने में जमा कराने की सोचते-सोचते घर ले आए और पत्नी मिले धन को छोड़ना नहीं चाहती थी। ब्रजनाथ के लिए पराया धन गले की फाँसी के समान था, परंतु वे फँसते चले गए। उन्हें अपने मित्र गोरेलाल को उसकी सहायता के लिए दो गिन्नी देनी पड़ गईं और वह वायदे पर लौटाने नहीं आया। इस पर ब्रजनाथ और अधिक मेहनत करके धन एकत्र करने में लग गए, जिससे धन लौटाया जा सके। अधिक मेहनत से वह बीमार पड़े तो उनकी पत्नी भामा ने सोचा कि यह कष्ट पराए धन के कारण तो नहीं आया है? उसने नवरात्र का कठिन व्रत रखा और दुर्गा की मूर्ति के सम्मुख बैठकर दया की भीख माँगी तो उसे प्रतीत हुआ कि देवी उससे कह रही है कि पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा। इसी समय एक वृद्धा आई और देवी से प्रार्थना करते हुए बोली कि जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश हो जाए। भामा को ज्ञात हो गया कि वे आठ गिन्नियाँ इसी बूढ़ी औरत की हैं। उसने बुढ़िया को सारी बात बातई तथा उसकी गिन्नियाँ लौटा दीं। लेखक के अनुसार, भामा को आज आत्मा का आनंद मिला। बुढ़िया ने दोनों को आशीर्वाद दिया और एक दिन गोरेलाल भी दो गिन्नियाँ लौटा गए।

इस कहानी में नैतिकता की रक्षा के लिए धर्म का उपयोग किया गया है। मंदिर में दुर्गा की मूर्ति भामा को पराया धन लौटाने को प्रेरित करती है। लेखक ने इसे मनोवैज्ञानिक आधार दिया है। भामा के मन में पाप का भय है तथा पति की अस्वस्थता से अनिष्ट के होने की संभावना है। ऐसी स्थिति में भामा धर्म की ओर उन्मुख होती है और वह नवरात्र का व्रत रखती है, दवी की पूजा करती है तथा वह अपने अंतःकरण में स्वर्गलोक की ध्वनि सुनती है। आप-हम भले इसे कपोल-कल्पना कहें, परंतु हिंदू-समाज का साधारण व्यक्ति अनेक बार इसी मन:स्थिति से गुजरता है। प्रेमचंद धर्म का उपयोग मनुष्य को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए करते हैं और इसके लिए किसी भी मार्क्सवादी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए! कहानी का प्रतिपाद्य यही है कि पराए धन का उपयोग पाप है, संतोष सबसे बड़ा धन है तथा इसके सम्मुख सब धन धूली समान हैं। यही लोक-विश्वास कहानी की बुनियाद है और यह लेखक को भारतीयता का अंग बनाता है। प्रेमचंद की हिंदू आस्‍थाओं और नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में पूरी आस्‍था थी और उन्होंने पौराणिक विश्वासों का चरित्र विकास एवं मनुष्यता के उत्कर्ष के लिए कई कहानियों में उपयोग किया था। प्रेमचंद हिंदू जीवन की कहानियाँ लिख रहे थे तो उनकी रचनाओं में हिंदू जीवन के लोकविश्वासों एवं नैतिक आस्‍थाओं का सहज रूप से आना स्वाभाविक था। ‘वरदान’ उपन्यास (1920) में तो एक स्‍त्री पात्र देवी से देशप्रेमी पुत्र होने का वरदान माँगती है और देवी प्रकट होकर उसे वरदान देती हैं। यह ध्यान रहे कि प्रेमचंद हिंदू धर्म की जड़ताओं की आलोचना में भी पीछे नहीं हैं। उनका साहित्य-सिद्धांत है—‘मंगल भवन अमंगल हारी।’ उनमें तुलसी की अनुगूँज सुनाई पड़ती है।

बाबू ब्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नू रोता था कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।

ब्रजनाथ ने क्रुद्ध होकर भामा से कहा, “तुम इन दुष्टों को यहाँ से हटाती हो कि नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।”

भामा चूल्हे में आग जला रही थी; बोली, “अरे, तो अब क्या संध्या को भी पढ़ते ही रहोगे? जरा दम तो ले लो।”

ब्रजनाथ—“उठा तो न जाएगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी! अभी एक-आध को पटक दूँगा तो वहाँ से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय! बच्चे को मार डाला।”

भामा—“तो मैं कोई बैठी या सोई तो नहीं हूँ। जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़कों को बहलाओगे, तो क्या होगा! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखाई!”

ब्रजनाथ से कोई जवाब देते न बन रहा था। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पाकर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धांतों के ज्ञाता थे, पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखाई दी। मुद्दई और मुद्दालेह, दोनों को एक ही लाठी हाँका और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़, कानून का ग्रंथ बगल में दबा कॉलेज-पार्क की राह ली।

सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादरें ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन के राग गाती थी और बगले डालियों पर बैठे हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर जा बैठे और किताब खोली; लेकिन इस ग्रंथ की अपेक्षा प्रकृति-ग्रंथ का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पत्तियों को, कभी छविमयी हरियाली को और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को।

एकाएक उन्हें सामने घास पर कागज की एक पुड़िया दिखाई दी। माया ने जिज्ञासा कि आड़ में चलो, देखें, इसमें क्या है?

बुद्धि ने कहा—तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो।

लेकिन जिज्ञासारूपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठकर पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोलकर देखा; सावरेन थे! गिना, पूरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।

ब्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठों सावरेन हाथ में लिये सोचने लगे, ‘इन्हें क्या करूँ? अगर यहीं रख दूँ तो न जाने किसकी नजर पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाए! नहीं, यहाँ रखना उचित नहीं। चलूँ, थाने में इत्तला कर दूँ और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे, वह आप ही ले जाएगा; या अगर उसे न भी मिले तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा; मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा।’

माया ने परदे की आड़ से मंत्र मारना शुरू किया। वे थाने नहीं गए, सोचा, ‘चलूँ, भामा से एक दिल्लगी करूँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।’

भामा ने सावरेन देखे, हृदय में एक गुदगुदी सी हुई। पूछा, “किसकी हैं?”

ब्रजनाथ—“मेरी।”

भामा—“चलो, कहीं हों न।”

ब्रजनाथ—“पड़ी मिली हैं।”

भामा—“झूठी बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो तो सच बताओ कहाँ मिलीं? किसकी हैं?”

ब्रजनाथ—“सच कहता हूँ, पड़ी मिली हैं।”

भामा—“मेरी कसम?”

ब्रजनाथ—“तुम्हारी कसम।”

भामा गिन्नियों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।

ब्रजनाथ ने कहा, “क्यों छीनती हो?”

भामा—“लाओ, मैं अपने पास रख लूँ।”

ब्रजनाथ—“रहने दो, मैं इनकी इत्तला करने थाने जाता हूँ।”

भामा का मुख मलिन हो गया। बोली, “पड़े हुए धन की क्या इत्तला?”

ब्रजनाथ—“हाँ, और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाडँ न?”

भामा—“अच्छा, तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देर होगी।”

ब्रजनाथ ने भी सोचा, ‘यही अच्छा है। थानेवाले रात को तो कोई कररवाई करेंगे नहीं। जब अशफियों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना, वैसे मेरा घर।’

गिन्नियाँ संदूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे तो भामा ने हँसकर कहा, “आया धन क्यों छोड़ते हो? लाओ, मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।”

माया ने इस समय हास्य का रूप धारण किया था।

ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा, “गुलूबंद की लालसा में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या?”

प्रातःकाल ब्रजनाथ थाने जाने के लिए तैयार हुए। कानून का एक लैक्चर छूट जाएगा, कोई हरज नहीं। इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा न देखकर साल भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे। लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि उनके एक मित्र मुंशी गोरेलाल आकर बैठ गए और अपनी पारिवारिक दुश्चिंताओं की विस्तृत रामकहानी सुनाकर अत्यंत विनीत भाव से बोले, “भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं, तीस रुपए दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला लूँगा। आज 30 तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपए मिल जाएँगे।”

ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे, किंतु बड़प्पन की हवा बाँध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही वे बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को निछावर कर दिया करते थे, लेकिन भामा को इस विषय में उनसे सहानुभूति न थी। इसीलिए जब ब्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट आ पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारिवारिक शांति अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनमें इनकार करने या टालने की हिम्मत न थी।

वे कुछ सकुचते हुए भामा के पास गए और बोले, “तुम्हारे पास तीस रुपए तो न होंगे? मुंशी गोरेलाल माँग रहे हैं।”

भामा ने रुखाई से कहा, “मेरे पास रुपए नहीं हैं।”

ब्रजनाथ—“होंगे तो जरूर, बहाना करती हो!”

भामा—“अच्छा, बहाना ही सही।”

ब्रजनाथ—तो मैं उनसे क्या कह दूँ?

भामा—“कह दो कि घर में रुपए नहीं हैं। और तुमसे न कहते बने तो मैं परदे की आड़ से कह दूँ!”

ब्रजनाथ—“कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें विश्वास न आवेगा। समझेंगे, बहाना कर रहे हैं।”

भामा—“समझेंगे तो समझा करें।”

ब्रजनाथ—“मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ?”

भामा—“अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी, मेरे पास रुपए नहीं हैं।”

ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामा के पास रुपए हैं; लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर दिया। संदूक से दो गिन्नियाँ निकालीं और गोरेलाल को देकर बोले, “भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपए दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था, यदि कल रुपए न पहुँचे तो मुझे बहुत लज्जित होना पडे़गा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।”

गोरेलाल ने मन में कहा, ‘अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी।’ और गिन्नियाँ जेब में रखकर घर की राह ली।

आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इंतजार कर रहे हैं।

पाँच बज गए, गोरेलाल अभी तक नहीं आए। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था, लेकिन पढ़ने में जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन सोचते थे, ‘आज वेतन मिलने का दिन है, इसी कारण आने में देर हो रही है; आते ही होंगे।’ छह बजे, पर गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ, ‘वह आ रहे हैं। जरूर वही हैं। वैसी ही अचकन है, वैसी ही टोपी। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं। इसी तरफ आ रहे हैं।’ अपने हृदय से एक बोझा सा उतरता मालूम हुआ, लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गई।

ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वे एक बार कुरसी से उठे और बरामदे की चौखट पर खड़े हो सड़क पर दोनों तरफ निगाह दौड़ाई। कहीं पता नहीं।

दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देखकर गोरेलाल को भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता!

सात बजे। चिराग जल गए। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाए, लेकिन दय काँप रहा था कि कहीं वे रास्ते में आते हुए न मिल जाएँ, तो समझें कि थोड़े से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गए। थोड़ी ही दूर गए कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल हैं। मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया। लेकिन फिर वही धोखा! फिर वही भ्रांति! तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है? क्या अभी तक वे कचहरी से न आए होंगे? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तरवाले मुद्दत हुई, निकल गए। बस दो बातें हो सकती हैं—या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे, रात को कौन जाए, या जान-बूझकर बैठ रहे होंगे, देना न चाहते होंगे। उस समय उनको गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ? लेकिन किसे भेजूँ! मन्नू जा सकता है। सड़क पर ही मकान है। यह सोचकर कमरे में गए, लैंप जलाया और पत्र लिखने बैठे; मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। तुरंत पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आए। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पड़ाने आया है। उससे बोले, “भाई, इस समय फुरसत नहीं है, थोड़ी देर में आना।” उसने कहा, “बाबूजी, घर भर के आदमी घबराए हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए।” निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया और सरसरी नजर से देखकर बोले, “कलकत्ते से आया है, माल नहीं पहुँचा।” कुँजडे़ ने डरते-डरते कहा, “बाबूजी, इतना और देख लीजिए कि किसने भेजा है!” इस पर ब्रजनाथ ने तार को फेंक दिया और बोले, “मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।”

आठ बज गए। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन ने निश्चय किया कि आप ही जाना चाहिए; बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपए दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी और घर में जाकर भामा से कहा, “जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ बंद कर लो।”

चलने को तो चले, लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैंप जल रहा था। ठिठक गए और सोचने लगे कि चलकर क्या कहूँगा? कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपए निकालकर दे दिए और देर के लिए क्षमा माँगी तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वे मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की बातचीत करूँ ही क्यों? कहूँगा कि भाई, घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है? मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जाएगी। उँह! इस झंझट की जरूरत ही क्या है। वे मुझे देखकर आप ही समझ जाएँगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आएगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़-बुन में आगे बढ़ते चले जा रहे थे, जैसे नदी की लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।

गोरेलाल का घर आ गए। द्वार बंद था। ब्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। समझे, खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गए। नौ बजने की आवाज कान में आई। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े; लेकिन द्वार पर पहुँचे तो अँधेरा था। वह आशारूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या पुकारूँ? हाँ, अभी बहुत सवेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गए होंगे! दबे पाँव बरामद पर चढ़े। द्वार पर कान लगाकर सुना। चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना। स्त्री कह रही थी, “रुपए तो सब उठ गए, ब्रजनाथ को कहाँ से दोगे?” गोरेलाल ने उत्तर दिया, “ऐसी कौन सी उतावली है, फिर दे देंगे, आज दरख्वास्त दे दी है, कल मंजूर ही हो जाएगी। तीन महीने के बाद लौटेंगे, तब देखा जाएगा।”

ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा, मानो मुँह पर किसी ने तमाचा मार दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे से उतर आए। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन भर का थका-माँदा पथिक हो।

ब्रजनाथ रात भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धूर्तता पर क्रोध आता था, कभी अपनी सरलता पर। ‘मालूम नहीं, किस गरीब के रुपए हैं! उस पर क्या बीती होगी!’ लेकिन अब क्रोध या खेद से क्या लाभ? सोचने लगे, ‘रुपए कहाँ से आएँगे; भामा पहले ही इनकार कर चुकी है; वेतन में इतनी गुंजाइश नहीं। दस-पाँच रुपए की बात होती तो कोई कतरब्योंत करता। तो क्या करूँ? किसी से उधार लूँ? मगर मुझे कौन देगा? आज तक किसी से माँगने का संयोग नहीं पड़ा और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं! जो लोग हैं, वे मुझे ही को सताया करते हैं; मुझे क्या देंगे, हाँ, यदि कुछ दिन कानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ तो रुपए मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गई है। हाय, निर्दयी! तूने बड़ी दगा की। न जाने किस जन्म का वैर चुकाया! कहीं का न रखा!’

दूसरे दिन से ब्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सवेरे कानून के लैक्चर में सम्मिलित होते, संध्या को कचहरी से तजवीजों का पुलिंदा घर लाते और आधी रात तक बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठाने तक की मोहलत न मिलती। कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिल्‍कुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़े रहते।

लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचनक्रिया में विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ आता। तिस पर भी वे मशीन की तरह काम में लगे रहते। भामा कभी-कभी झुँझलाकर कहती, “अजी, लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस-पाँच आदमी और होते तो संसार का काम ही बंद हो जाता।” ब्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग्य का उत्तर न देते। दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते।

यहाँ तक कि तीन सप्ताह बीत गए और 25 रुपए हाथ आ गए। ब्रजनाथ सोचते थे कि दो-तीन दिन में बेड़ा पार है। लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी। वे शय्या-सेवी बन गए। भादों का महीना था। भामा ने समझा, पित्त का प्रकोप है। लेकिन जब एक सप्ताह तक डॉक्टर की औषधि सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा, तब वह घबराई। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर में बक-झक भी करने लगते। भामा सुनकर डर के मारे कमरे में से भाग जाती। बच्चों को पकड़कर दूसरे कमरे में बंद कर देती। अब उसे शंका होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है! कौन जाने, रुपएवाले ने क्या कर-धर दिया हो! जरूर यही बात है; नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता?

संकट पड़ने पर हम धर्मभीरु हो जाते हैं, औषधियों से निराश होकर देवतों की शरण लेते हैं। भामा ने भी देवतों की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीज के सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नवरात्र का कठिन व्रत शुरू किया।

आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने ब्रजनाथ को दवा पिलाई और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मंदिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मंदिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दुर्गा-पाठ कर रहे थे। धूप और अगरु की सुगंध उड़ रही थी। उसने मंदिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद पर एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्‍ज्वल नेत्रों से प्रभा की किरणें छिटक रही थीं। पवित्रता का एक समा सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिपूर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उसके अंतःकरण में एक निर्मल, विशुद्ध, भावपूर्ण भय का उदय हो आया। उसने आँखें बंद कर लीं। घुटनों के बल बैठ गई और हाथ जोड़कर करुण स्वर में बोली, “माता, मुझ पर दया करो!”

उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानो देवी मुसकराई। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति सी निकलकर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिए—‘पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा!’

भामा उठ बैठी। उसकी आँखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरस पड़ा था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डुबा दिया था।

इतने में एक दूसरी स्त्री आई। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाए हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से आँचल फैलाकर बोली, “देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।”

जैसे सितार मिजराब की चोट खाकर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भामा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने कातर नेत्रों से देवी की ओर देखा। उनका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था। नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामा के अंतःकरण में सर्वत्र आकाश से, मंदिर के सामनेवाले वृक्षों से, मंदिर के स्तंभों से, सिंहासन के ऊपर जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे—‘पराया धन लौटा दे, नहीं तो सर्वनाश हो जाएगा।’

भामा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली, “क्यों माता, तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है?”

वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानो डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली, “हाँ, बेटी।”

भामा—“कितने दिन हुए?”

वृद्धा—“कोई डेढ़ महीना।”

भामा—“कितने रुपए थे?”

वृद्धा—“पूरे एक सौ बीस।”

भामा—“क्या जाने कहाँ गिर गए! मेरे स्वामी पल्टन में नौकर थे। आज कई बरस हुए, वे परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से 60 रुपए साल के पेंशन मिलती है। अब की दो साल की पेंशन एक साथ ही मिली थी। खजाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े! आठ गिन्नियाँ थीं।”

भामा—“अगर वे तुम्हें मिल जाएँ तो क्या दोगी?

वृद्धा—“अधिक नहीं, उसमें से 50 रुपए दे दूँगी।”

भामा—“रुपए क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज दो।”

वृद्धा—“बेटी, और क्या दूँ, जब तक जिऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी।”

भामा—“नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं।”

वृद्धा—“बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है?”

भामा—“मुझे आशीर्वाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वे अच्छे हो जाएँ।”

वृद्धा—“क्या उन्हीं को रुपए मिले हैं?”

भामा—“हाँ, वे उसी दिन से तुम्हें खोज रहे हैं।”

वृद्धा घुटनों के बल बैठ गई और आँचल फैलाकर कंपित स्वर में बोली, “देवी! इनका कल्याण करो।”

भामा ने फिर देवी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। आँखों में दया की आनंददायिनी झलक थी। उस समय भामा के अंतःकरण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी—‘जा, तेरा कल्याण होगा!’

संध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठ तुलसी के घर उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ के बड़े परिश्रम की कमाई तो डॉक्टर की भेंट हो चुकी है, लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपए जुटाए हैं। जिस समय झुमके बनकर आए थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे भी अधिक प्रसन्न है।

जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियाँ उसे दिखाई थीं, तब उसके हृदय में एक गुदगुदी सी हुई थी, लेकिन यह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों को हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनंद आँखों में चमक रहा है, होंठों पर नाच रहा है, कपोलों को रँग रहा है और अंगों पर किलोल कर रहा है। वह इंद्रियों का आनंद था, पर यह आत्मा का आनंद है। वह आनंद लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनंद गर्व से बाहर निकल पड़ा है।

तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे। वे बार-बार भामा को प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बा सौंदर्य की शोभा देखी थी, आज वे उसका आत्मिक सौंदर्य देख रहे हैं।

तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों के सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए लिये और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया, “दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!”

तुलसी का वर्णहीन मुख वैसे ही खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती हैं। सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती दिख पड़ीं। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।

वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठे हुए थे कि गोरेलाल आकर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।

गोरेलाल बोला, “भाई साहब, कैसी तबीयत है?”

ब्रजनाथ—“बहुत अच्छी तरह हूँ।”

गोरेलाल—“मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका बहुत खेद है कि आपके रुपए देने में इतना विलंब हुआ। पहली तारीख को ही घर से एक आवश्यक पत्र आ गया और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ तो समाप्त न हो। लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिए, रुपए हाजिर हैं। इस विलंब के लिए अत्यंत लज्जित हूँ?” ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है! बोले, “जी हाँ, बीमार तो था, लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो तो रुपए फिर दे दीजिएगा। मैं उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।”

गोरेलाल विदा हो गए तो ब्रजनाथ रुपए लिये हुए भीतर आए और भामा से बोले, “ये लो अपने रुपए; गोरेलाल दे गए।”

भामा ने कहा, “ये मेरे रुपए नहीं, तुलसी के हैं; एक बार पराया धन लेकर सीख गई।”

ब्रजनाथ—“लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपए दे दिए गए?”

भामा—“दे दिए गए तो क्या हुआ? ये उसके आशीर्वाद को न्योछावर हैं।”

ब्रजनाथ—“कान के झुमके कहाँ से आवेंगे?”

भामा—“झुमके न रहेंगे न सही, सदा के लिए ‘कान’ तो हो गए।”

—मुंशी प्रेमचंद

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