फेसबुक लाइव...वेबिनार

जिन्होंने साहित्य‌िक आयोजन किए हैं, उन्हें आयोजन में होनेवाली विविध प्रकार की चुनौतियों, समस्याओं का खूब पता होगा। सभागार की तलाश—पच्चीस हजार से एक लाख तक का किराया (यदि दिल्ली की बात करें), फिर बैनर, निमंत्रण-पत्र, पुलिस से, अग्निशमन विभाग से, मनोरंजन कर कार्यालय से अनापत्त‌ि; अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, वक्ताओं का सम्मान, कुछ के लिए वाहन का प्रबंध, शॉल, मालाएँ, गुलदस्ते, स्मृति-चिन्ह—एक आयोजन में ढेर सारा खर्च भी, कई दिनों की भागदौड़...तरह-तरह के तनाव और फिर सबसे बड़ी समस्या दर्शकों का जुटाना। यदि संध्या भोजन की व्यवस्‍था न हो तो प्रायः शुरुआत में भले ही १००-१५० लोग हों, कार्यक्रम समाप्‍त होने तक थोड़े से ही लोग रह जाते हैं। प्रायः अध्यक्ष या मुख्य अतिथि की बारी आते-आते न लोग बचते हैं, न समय। कविता के आयोजनों में अकसर कवियों को एक-दो मिनट की कविता सुनाने का निवेदन भी मिलता है। अब कोरोना के कारण लॉकडाउन के दौरान होनेवाले फेसबुक लाइव अथवा वे‌बिनार पर गौर करिए।

आप फेसबुक खोलते हैं और मात्र एक उँगली के कोमल स्पर्श से पूरे विश्व से जुड़ जाते हैं या पूरे विश्व के विद्वान्, साहित्यकार, कलाकार आपसे जुड़ जाते हैं। फेसबुक के अतिरिक्त विज्ञान के वरदान-स्वरूप तरह-तरह के ‘ऐप’ हैं, जहाँ एक ‘लिंक’ का स्पर्श करते ही आप एक साथ विश्व भर के विद्वानों से सीधा संवाद कर सकते हैं। कितने ही प्रकाशक हैं, साहित्यिक संस्‍थाएँ हैं, जो इन तीन-चार महीनों में ही विविध विषयों पर सैकड़ों आयोजन कर चुकी हैं। फेसबुक के निजी पेज पर भी एक दिन में ६-६ फेसबुक लाइव हो रहे हैं। जिस कवि को बस १-२ मिनट में ही कविता सुनाने को कहा जाता था, वही अब पूरे एक घंटे मनचाही कविताएँ सुना रहा है, सुननेवाले सैकड़ों या हजारों में हैं और भारत ही नहीं भारत के बाहर भी। साहित्य का शायद ही कोई विषय हो, जिसपर चर्चा न हुई हो! लॉकडाउन में घर पर होने की विवशता के चलते ख्यातिलब्‍ध कवियों ने युवा कवियों या जिनके रचनाकर्म से अधिक परिचित नहीं थे, ठीक से सुना-जाना। युवा रचनाकारों ने ख्यातिलब्‍ध साहित्‍यकारों को सुनकर प्रेरणा प्राप्‍त की तथा बहुत कुछ सीखा। पिछले दिनों प्रख्यात बुजुर्ग कथालेखिका मालती जोशीजी ने बड़े बेटे की सहायता से फेसबुक के माध्यम से कहानी पाठ किया जो २०-२५ हजार लोगों ने देश-विदेश से देखा, क्या ऐसा गोष्ठियों में संभव था? यह अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि इस कोरोना काल में जितने छोटे-बड़े साहित्यिक आयोजन ४-५ माह में हुए हैं, वे पिछले ७० वर्षों में हुए आयोजनों से कई गुना निकलेंगे। हम सभी रचनाकारों को विज्ञान एवं तकनीक तथा उसके आविष्कारों के प्रति नमन करना चाहिए। यह कल्पना करना कठिन है कि यदि फेसबुक लाइव तथा वे‌बिनार के साधन नहीं होते तो यह घर में बंद होना क्या परिणाम देता!

भगवान् श्रीराम का देश

भगवान् श्रीराम भारत की पहचान हैं। तुलसी ने रामचरितमानस के जरिए उन्हें गाँव-गाँव तक पहुँचा दिया। लाखों घरों में रामचरितमानस का अखंड पाठ होता है, ऐसा गौरव विश्व भर में शायद ही किसी काव्यरचना को उपलब्‍ध हो। पिछले दिनों दूरदर्शन पर रामायण का पुनर्प्रसारण हुआ तो चैनलों की लोकप्रियता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त हो गए। राम के नाम का जादू ही ऐसा है। बचपन से दशहरे के मेलों में उमड़े जनसमूह को देखा है। जब कस्बों में रामलीला होती थी, आसपास के गाँवों से लोग बैलगाड़ियों में आया करते थे, तब भी और महानगरों में ८०० से अधिक टी.वी. चैनलों के बावजूद रावणवध देखने अपार जनसमूह उमड़ता है, तब भी!

इसे भीड़ माननेवाले लोग सही नहीं सोच पाते। यह अपार जनसमुद्र असत्य, अन्याय, अत्याचार और बुराई का सांकेतिक ही सही, ‘अंत’ देखने को उमड़ता है। अच्छाई और सच्चाई को अपना समर्थन देने की बुराई कितनी ही शक्तिशाली हो तथा अच्छाई कितनी ही साधनहीन—जीत अच्छाई की ही होगी। राम का यही जादू है कि विश्व की हर बड़ी भाषा में रामकथा का अनुवाद हुआ है।

दुनिया के सबसे बड़े मुसलिम देश इंडोनेशिया में राम पूरे देश के वंदनीय महापुरुष हैं। बौद्ध देश थाईलैंड में राजा ‘राम’ की उपाधि धारण करता है। उनका विश्वास है कि अयोध्या थाईलैंड में है। थाई एयरवेज में उड़ान भरते हुए मैंने हर सीट पर चित्रकथा के रूप में रामकथा देखी थी। मुसलिम देश मलेशिया में नौसेना प्रमुख को ‘लक्ष्मण’ कहा जाता है। दुनिया के १००० से अधिक शहरों-कस्बों के नाम राम के नाम पर हैं, चाहे वे ईसाई देश हों या इसलामी या बौद्ध!

कुल गरज यह कि राम पूरी मानवता के हैं, उन्हें जो भी किसी संकुचित दायरे में बाँधने का प्रयास करता है, वह अनुचित कार्य करता है। हर दशहरे वाले दिन हम एक ही बात वर्षों से सुनते आ रहे हैं, चाहे कविताओं में या प्रवचनों में या मेले में पहुँचे राजनेताओं से, “हमें मन के रावण को मारना है!” हम बस बोलते और सुनते ही रहे, किंतु रावण का पुतला हर वर्ष और अधिक ऊँचा होता गया। अपराध न केवल संख्या में बढ़ते गए, वरन् उनकी भयावहता भी बढ‍़ती गई! किसी जमाने में चंबल के दस्यु भी कुछ मर्यादाओं का पालन करते थे, किंतु अब अपराधों की ऐसी-ऐसी खबरें मिलती हैं कि दिल दहल जाता है! राम के देश में यदि नन्हीं-नन्हीं बच्चियाँ दुष्कर्म का शिकार होती हैं तो रावण-वध पर प्रसन्न होने का क्या अर्थ! पिता की आज्ञा पर १४ वर्ष के वनवास को सहर्ष स्वीकार करने वाले राम के देश में यदि वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है तो फिर राम के प्रति कैसा सम्मान दिखा रहे हैं हम! राम और सीता के आदर्श वाले देश में यदि अदालतों में तलाक तथा विवाह-विच्छेद के लाखों मुकदमे चल रहे हैं तो यह विचारणीय प्रश्न है। राजतंत्र के बावजूद मात्र एक साधारण से नागरिक के आक्षेप पर राम यदि लोकमत के सम्मान के लिए सती सीता का परित्याग का आदर्श प्रस्तुत करते हैं तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में किसी प्रकार की अनैतिकता, सत्ता के लिए जोड़-तोड़ या लोकमत की अवहेलना को कैसे स्वीकारा जा सकता है! प्रश्न यही है कि क्या हमारे मन के रावण को मारने के लिए मंगल ग्रह से कोई अवतरित होगा! मन के रावण को तो ‘आत्मावलोकन’ करके हमें स्वयं ही नियंत्रित करना होगा। तभी हम सही अर्थों में ‘राम के देश’ के वासी होने का गौरव प्राप्त करेंगे।

अक्तूबर अंक

‘साहित्य अमृत’ के रजत जयंती विशेषांक के संबंध में अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों-विद्वानों से जो प्रतिक्रियाएँ मिली हैं, उनसे ‘साहित्य अमृत’ के प्रकाशन से जुड़े सभी लोगों को संतोष तथा हर्ष की अनुभूति हुई है और संबल भी मिला है। अक्तूबर अंक में प्रख्यात कथाकार राजेंद्र रावजी का रिपोर्ताज प्रकाशित हो रहा है, रिपोर्ताज विधा अब विलुप्तप्राय सी हो रही है। किसी एक काव्य विधा पर जानकारी दी जा रही है। आशा है, हमें युवा रचनाकार माहिये प्रेषित करेंगे और अपनी मिट्टी से उपजी इस विधा को पुष्पित-पल्लवित करेंगे। रचनाकार हर पीड़ा या हर्ष से प्रभावित होता है तथा उसे अपने शब्दों में व्यक्त करता है। कोरोना जैसी भयावह महामारी से रचनाकार का प्रभावित होना भी स्वाभाविक था। कोरोना पर हमें अनेक रचनाएँ प्राप्त हुईं। जहाँ कुछ लोगों ने लॉकडाउन का मातम मनाया, अवसाद में चले गए या आत्मघात तक कर लिया, सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले रचनाकारों ने लॉकडाउन का भरपूर लाभ उठाया और आपदा को अवसर में बदला। कुछ ने उपन्यास लिख डाले, कुछ ने अधूरे नाटक या कहानियाँ पूरी कर लीं। हंसराज कॉलेज, दिल्ली की प्राचार्या डॉ. रमा ने दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथनुमा पुस्तकें लिख दीं—एक सिनेमा और साहित्य पर तो दूसरी सिनेमा और स्‍त्री-जीवन पर। अपने मन में हम ही अपना स्वर्ग-नर्क रच लेते हैं। कोरोने पर विशेष रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित की जा रही हैं।

इस बीच भारतीय कला-संस्कृति को मूल्यवान योगदान देनेवाली पद्मविभूषण से सम्मानित डॉ. कपिला वात्‍स्यायन देहमुक्त हो गईं, ‘साहित्य अमृत’ की उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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