हाँ में ना का निहित होना

हाँ में ना का निहित होना

वे यादों के भूतबँगले में खोए बैठे हैं। समय की खासियत है कि वह सिर्फ आगे चलता जाता है, न किसी के रोके रुकता है, न लौटता है। वह इनसान तो है नहीं कि कुछ वर्ष तक सक्रिय रहे और फिर एक दिन शरीर के पिंजरे को स्थायी समझने के मुगालते में उससे प्राणों का पखेरू फुर्र हो ले। बहरहाल, अभी तो वह बहुत खुश हैं। वह भूतबँगले के अपने शासकीय कक्ष में विराजमान है। यह पूरा इलाका शासकीय गलियारे का अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, यानी लालबत्ती का इलाका है। जब लालबत्ती जले तो बड़का अफसर व्यस्त है, जब हरी ‘ऑन’ हो तो वह दर्शन देने को प्रस्तुत है। यों वह बहुधा सुबह से शाम तक व्यस्त ही रहता है, कभी मित्रों के साथ गपशप में, चाय की चुस्की लेते हुए पर-चर्चा करते। कभी अपनी कार्य-कुशलता की डींगे हाँकते। “मेरी यहाँ नियुक्ति के पहले कतई रामराज था। यूनियन का ऐसा खौफ कि अफसर और सुपरवाइजर, किसी कर्मचारी को उसके कर्तव्य की याद दिलाते डरें। दफ्तर जैसे कार्य-स्थल न होकर सैरगाह है। पहुँचने और काम प्रारंभ करने का वक्त नौ बजे मुकर्रर है। कोई ग्यारह बजे तक टहलता प्रवेश कर रहा है, कोई लंच खाकर। करना ही क्या है? हाजिरी-रजिस्टर पर चिड़िया ही तो बनानी है। जैसे अनुशासन, कर्तव्य और सरकारी कामकाज को ठेंगा दिखाना ही उनका इकलौता निर्धारित लक्ष्य है। हमें भी कैबिनेट सचिव ने बताया था कि यहाँ हमारी पोस्टिंग इस अजायबघर को फिर से दफ्तर बनाने के लिए की जा रही है। इसके लिए कुछ भी एक्शन लेने की हमें पूरी छूट है।” एक सहयोगी ने जानना चाहा, “यह मुश्किल काम आपने किया कैसे?”

“देखिए, पहले तो हमने कार्यालय नियम संहिता की ओर ध्यान आकृष्ट करते कर्मचारियों से वक्त की पाबंदी का निवेदन किया। फिर निर्देश जारी किया एक हफ्ते बाद कि अपने-अपने सेक्शन का रजिस्टर, अवर सचिव दस बजे तक मँगाकर लेट-लतीफों की सूची ऊपर प्रस्तुत करें। उपसचिव उसकी ‘समरी’ बनाकर हमें दिखाएँ। एक महीने बाद भी जब कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं नजर आया तो हमने यूनियन के अध्यक्ष और सचिव को बुलाकर सूचित किया कि उपस्थिति में कोई सुधार नहीं नजर आ रहा है, समुचित अवसर दिए जा चुके हैं। अब हम ‘एक्शन’ लेने पर विवश हैं। वह अपने सदस्यों को सूचित कर दे और इसमें किसी किस्म का अड़ँगा न डालें।” यूनियन के अधिकारी दिखाने को व्यवहार जिम्मेदार होने और सरकारी काम में सहयोग देने का करते हैं। इन दोनों ने भी औपचारिक रूप से कार्यालय की नियत प्रक्रिया का समर्थन करने की बात कही। और कहते भी तो क्या? इसके बाद हमने भी निर्णायक कदम उठाया। हमने फैसला किया कि हम स्वयं इन लेट-लतीफों को मजा चखाएँगे। दस बजे तक आनेवालों को हमारे निजी सचिव के पास जाकर हस्ताक्षर करने की सुविधा दी गई, उसके बाद आधे दिन की छुट्टी की अर्जी के साथ। हमें अधिक समय तक प्रवेश द्वार पर स्वयं रहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। एक सप्ताह के अंदर कर्मचारियों को खुद-ब-खुद समय-पालन का बोध होने लगा। हमें भले ही मन-ही-मन गाली देते रहें, अनुशासन की नदी में उनके बनाए नाव के छेद स्वयं भरने लगे, वह भी उन्हीं के प्रयत्नों द्वारा। अधिकारी अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर प्रसन्न थे और सहयोगी पीठ पीछे उनकी इस खोखली उपलब्धि की पोल-पट्टी खोलकर। हर दफ्तर, सचिवालय का यही चलन है। एक-दूसरे के सामने तारीफ से चूकते नहीं हैं और पीठ पीछे आलोचना से। यह शोध का विषय है कि यह पारंपरिक व्यवहार की रीत देसी चरित्र का अंग है या अंग्रेजी शासकों द्वारा हमें भेंट की गई अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत का विदेशी प्रभाव?

इसी भूतबँगले में बैठकर उन्हें अपने कई कल्पित, कई वास्तविक कीर्तिमानों की याद आती है। एक अन्य दिन उन्हें ध्यान आया कि उन्होंने पूरी दफ्तरी जिंदगी में कभी किसी से ‘ना’ नहीं कहा। मंत्री व नेताओं की हर ऊटपटाँग फरमाइश पर उनका उत्तर सिर्फ ‘हाँ’ में होता। ऐसा रवैया तो खैर हर प्रगतिशील, यानी तरक्की चाहनेवाला अधिकारी अपनाता है। पर उनका ‘हाँ’ का चलन कर्मचारियों के साथ भी लागू होता। उनसे मिलना लाल बत्ती के जलते कठिन था, पर असंभव नहीं। उनके निजी सचिव से समय लेकर दो-तीन दिन की प्रतीक्षा करते-करते उनके दिव्य दर्शन प्राप्त हो ही जाते। ऐसे ही एक अवसर पर बाबू ने शोक-संतप्त स्वर में निवेदन किया, “सर, बीस साल से निष्ठापूर्वक सरकार और उसके माध्यम से जनता की सेवा कर रहा हूँ। आज तक मुझे प्रमोशन का इंतजार है। कुछ सहयोगी सवाल पूछते हैं, कुछ हँसी उड़ाते हैं—‘इतनी लगन से सेवा कर हासिल क्या किया?’ कुछ को संदेह है कि जरूर मेरे विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक काररवाई चल रही है, वरना इतने वर्षों में तो कार्य निष्पादन के गधे-टट्टू भी पदोन्नति पा चुके हैं।” उन्होंने धीरज रख गंभीरता से बाबू की बात सुनी और संबद्ध अधिकारी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली। उसने तत्काल निवेदन किया, “सर, यह एक कार्य-कुशल कर्मचारी है। इसकी पदोन्नति तो हम भी चाहते हैं, पर क्या करें, पदोन्नति के लिए कोई पद नहीं है।” दोनों पक्षों की बात सुनकर उन्होंने निर्णय सुनाया, “इनकी पदोन्नति होने से हम भी सहमत हैं। इतने समय से प्रमोशन न होना एक हद दर्जे का अन्याय है। कृपया कल तक पद सृजन का प्रस्ताव तैयार कर मेरे अनुमोदन से वित्त विभाग के पास भेजिए। ‘फॉलो-अप’ भी करते रहें। जल्दी-से-जल्दी पद सृजित करवाकर इन्हें प्रमोट कीजिए।”

उनके निर्देशों से बाबू धन्य हो गया। उसने मन-ही-मन अपने इष्ट-देवता और इस अधिकारी का धन्यवाद किया। शाम को मंदिर जाकर प्रसाद चढ़ाया। यह एक सफल भेंट है। यह अफसर कोई सामान्य इनसान न होकर आदमी की काया में देवता है। उनके संपर्क में आए अधिकांश कर्मचारियों-अधिकारियों की यही प्रतिक्रिया है। कुछ तो कहते हैं कि ‘ना’ का शब्द उनकी डिक्शनरी में है ही नहीं। वह केवल हर दफ्तरकर्मी की मदद करते हैं। यह बात दीगर है कि उनकी सहायता के सुपात्र इंतजार करते-करते सेवानिवृत्ति हो जाते हैं, उनकी नेकनीयती के गुण गाते-गाते। दोष नियति का है, इस देव-पुरुष ने तो हर संभव प्रयास किया। इस सफल व लोकप्रिय अधिकारी की तकनीक सीधी-सादी है। वित्त की खाई से कोई भी प्रस्ताव खुद-ब-खुद निकल पाना कठिन है। नीचे वाले कितनी भी यादें दिलाएँ, ऊपर के स्तर पर कोई संवाद होना असंभव है। कर्मचारी की क्या मजाल कि बार-बार सचिव से मिल पाए? बस इस भूलभुलैया में उस अधिकारी की ‘हाँ’ ऐसी उलझती है कि ‘ना’ के बराबर हो जाती है। जानकार बताते हैं कि उनका नजरिया सकारात्मक है, पर उसका नतीजा अधिकतर नकारात्मक ही होता है।

जहाँ तक नेता-मंत्री आदि का प्रश्न है, वह उनकी मानसिकता से परिचित हैं। उन्होंने जरूर किसी व्यक्ति विशेष को सुनाने के लिए सिफारिश की होगी। इसमें उनकी व्यक्तिगत रुचि होने का सवाल नहीं है। निर्णय नियमानुसार होना ही उचित है। उनकी ‘हाँ’ से फर्क क्या पड़ता है? ऐसे अफसर अकसर कामयाबी के शिखर पर पहुँचते हैं। हर जाननेवाला उनका चाहनेवाला बनता है, अनजान नेता तक। इतने बड़े अधिकारी ने उनके सुझाव को बेहिचक मान लिया। ऐसों को क्या पता कि उस पर होना जाना कुछ नहीं है। ‘हाँ’ केवल उनके लिए केवल एक शब्द है। इसका उच्‍चारण उनका स्वभाव है, जो अब आदत बन चुका है। वह आज तक न किसी की व्यक्तिगत समस्या से जुड़े हैं, न सुझाव से, उनका जुड़ाव सिर्फ अपनी तरक्की से है।

ऐसा नहीं है कि ‘हाँ’ कहनेवाले केवल सरकार में हैं। वास्तव में यह हर क्षेत्र की शोभा हैं। सियासत तो केवल ‘हाँ’ की सकारात्मकता से चलती है। सरकारी अफसर-कर्मचारी की कामयाबी की भी यही शर्त है। नेता केवल झूठे-आश्वासन और वादे करता है। नामुमकिन है कि उसने किसी की व्यक्तिगत प्रार्थना को अस्वीकार किया हो! जनता उसके स्वभाव का सच जानती है। पर सोचती है कि क्या पता, इस बार सच बोल रहा हो? जीवन में अपवाद तो हर उसूल और सिद्धांत के होते हैं तो क्यों न इनसानों के व्यवहार के भी हों? कौन कहे, इस बार इसका इरादा जनता को उल्लू बनाने का न हो? भूले-भटके इसमें हरिश्चंद की आत्मा जागी हो? इस प्रकार के नेताओं की सफलता से यह सिद्ध होता है कि भारत की जनता कितनी आशावादी है? सालोसाल ठगे जाने के बावजूद वह उम्मीद नहीं छोड़ती है। नेता पर भरोसे के लिए जनता हर तर्क-कुतर्क ईजाद करती है। कभी कहती है कि ‘नेता तो ईमानदार है। उसने आश्वासन दिया है तो पूरा करने का प्रयास भी करेगा। पर रास्ते में बाबूशाही के अड़ँगे भी हैं। उनसे पार पाना कठिन है।’ क्या पता उनसे कब तक जूझना पड़े? नहीं तो अब तक नल और पानी दोनों आ जाते। हर बेकार गरीब को कोई-न-कोई रोजगार मिल जाता, उसको पेट पालने के साधन उपलब्ध होते। जमीन की सच्‍चाई भले ही कुछ और कहे, पर नेता ऐसा तोता है, जो बाबूशाही की रंटत फिर भी दोहराता रहता है। एक बार सत्ता मिली तो उसकी आँखों पर दिखाए गए सपनों की पट्टी ऐसी बँधती है कि वह वही देखता है, सुनता है और बोलता है। इस करतूत में प्रमुख भूमिका बाबूशाही की है। वही उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार उल्टे-सीधे पाठ पढ़ाती रहती है। हम कैसे मान लें कि राजनीति को इस चतुर खिलाड़ी को कोई अन्य इतनी आसानी से आँख का अंधा, कान का बहरा और जुबान का झूठा बना सकता है? यह कमाल भारत के बाबुओं का है। इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने लाखों को साल-दर-साल उल्लू बनाया, कोई उन्हें उसी नस्ल का सिद्ध करे तो वह शर्तिया प्रशंसा का पात्र है।

देखने में आया है कि भारत में जो भी जनता के संपर्क में आता है, उसका यकीन सिर्फ हाँ कहने में है। इसके ज्वलंत उदाहरण देश के जाने-माने समाज-सेवक सेवाराम हैं। उनके समकालीन परिचित बताते हैं कि उन्होंने हर क्षेत्र से निराश होकर सेवा के धंधे में प्रवेश करने का निश्चय किया। किराए के मकान में रहकर एक साइकिल से उसने विधवा कल्याण और बेसहारा महिलाओं का सहारा बनने के निश्चय में जुटकर दर-दर चंदा माँगा। सरकार के एक आला अफसर को उन पर रहम आया। उन्होंने उसे सरकारी ग्रांट दिलवाई। उसके ‘बसेरा’ संस्थान ने शासन से जमीन हथियाकर संस्था बनाई। अब तो उसकी शाखाएँ किसी भी बाबा-योगी के साम्राज्य से टक्कर लेने को पर्याप्त हैं। सामान्यजन उनका नाम भी सुनते और मीडिया में पढ़ते हैं। बहुत कम हैं, जिन्होंने उनके साक्षात् दर्शन किए हैं, पर ऐसे भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं, जिन्होंने उसके फोटो टी.वी. अखबार में नहीं देखे हैं। आत्म-प्रचार में उसकी सानी नहीं है। अब वह केवल प्रेस के माध्यम से जनता को सुलभ हैं, उसके विचार भी। अपनी बड़की गाड़ी से वह मंत्रियों और आला-अफसरों के चक्कर काटता है। अपने फार्महाउस में वह कभी संपादकों, तो कभी बड़े बाबू और मंत्रियों को भोजन और मनोरंजन से कृतार्थ करने में उदार हैं। यों वह खास लोगों को बताता भी है कि मनोरंजन के साधन तो उसके आश्रम में ही उपलब्ध हैं। उसने अपनी दूरदृष्टि से हर आश्रम को खर्चे में आत्मनिर्भर बनाया है। कढ़ाई, सिलाई, बुनाई जैसे धंधों से यह सुनिश्चित हुआ है। इतना ही नहीं, हर आश्रम में इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आधुनिक मशीनें भी उपलब्ध हैं। किसी भी शातिर अपराधी के समान अब वह देश के सबसे पुराने दल के टिकट पर चुनाव के अखाड़े में कूदने को प्रस्तुत है।

सब परिचित हैं इस तथ्य से कि राजनीति में खतरे भी हैं। जब तक सत्ता है, कोई सोचता भी नहीं है कि यह सारा सुख अस्थायी है। सार्वभौमिक सत्य सिर्फ परिवर्तन है। चुनाव में केवल जनता की चलती है। उसके अनपेक्षित परिणाम भी मुमकिन हैं। न ज्योतिषी इसकी भविष्यवाणी कर सकते हैं, न चुनाव विश्लेषक। सबकी अपनी पसंद है। उसके तुक्के चलते हैं, अधिकतर कौन राजनेता सत्ता-सुख भोगने को प्रस्तुत नहीं है? पर यहाँ भी वह असलियत से कन्नी काटते हैं। चुनाव हारकर मन उदास है, पर चेहरे पर मुसकान खेल रही है, “चुनाव है, जीत-हार तो लगी ही रहती है।” वह राजनीति के धाकड़ हस्ती हैं। हमारे समाज-सेवक तो नौसिखिया है। चुनाव लड़े। छवि के सहारे जीते भी। पर सरकार बदली तो भुगते भी। नई सरकार ने उसकी ‘समाज-सेवा’ को घोटाला मानकर आश्रमों की जाँच करवाई। अब हर शहर में उसके खिलाफ केस दर्ज हैं। उसकी छवि को भी धक्का लगा है, सच के उजागर होने से अब वह वकील सेवा में व्यस्त है। उसके आश्रम भी बदहाल हैं। सफलता की कीमत सुखद भी है, दुखद भी। आज वह उसके दुःख पक्ष के पीड़ित हैं।

देखने में आया है कि सरकारी कर्मचारी अपने इशारों में अधिक स्पष्ट हैं। वे हाँ और ना कुछ नहीं कहते, बस टालम-टोल की चुप्पी साध लेते हैं। अनुभवी ऐसों के इशारे से वाकिफ हैं। वह जानते हैं कि यह अपने अधिकार क्षेत्र की अहमियत जता रहा है। उसका बाजार मूल्य लगा रहा है। एक बार वसूली हुई तो उसकी सक्रिय ‘हाँ’ तय है। फिर जो भी काम है, वह फटाफट होगा, बिना किसी बाधा-रुकावट के। इस प्रकार की वसूली में बड़ा पारस्परिक भाईचारा है। लूट में सबका हिस्सा निश्चित है, नीचे से ऊपर तक। लिहाजा शिकायत का सवाल नहीं है। शिकायत है तो समाज-सेवक को है। उसे वकीलों की फीस से परहेज है, न्यायालयों की लंबी प्रक्रिया और सियासी दुश्मनी से। वह कहता भी है, “हमने इतनी विधवाओं और निराश्रित महिलाओं की सेवा की है, उसकी सिला क्या मिला? वकीलों पर निर्भरता, अलग-अलग अदालतों की सुनवाई। रात-दिन का तनाव, जेल का डर, खाकी की लूट। क्या-क्या जुल्म नहीं हो रहा है, एक दल से चुनाव लड़ने और जीतने पर।” सच भी है। घपले-घोटाले इन धंधों में कामयाबी के लिए अनिवार्य हैं। दीगर है कि पकड़े कुछ ही जाते हैं।

कई ज्ञानियों का निष्कर्ष है कि आज के सभ्य और शिष्ट समाज में एक-दूसरे की झूठी तारीफ और हर बात पर ‘हाँ’ का चलन है। इस ‘कान-खुजाऊ’ संस्कृति में कान हटे नहीं कि आलोचना की आजादी है। वैसे ही अब हाँ में ना निहित है। ‘हाँ’ सुनकर सुननेवाले को अच्छा लगता है। परिणाम कुछ भी हो। इतना ही क्या कम है कि दुखी दुनिया में हाँ कहकर किसी ने किसी को पल भर की खुशी तो दे ही दी? हमें उसी के लिए आदतन और रुटीन में ‘हाँ’ दृष्टिकोणवालों को धन्यवाद देना चाहिए। डर है तो यही है कि कहीं वास्तविकता के प्रभाव में कहीं वह भी ‘ना’ कहना न शुरू कर दें?

९/५, राणा प्रताप मार्ग

लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४८४६८

गोपाल चतुर्वेदी

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