संस्कृति

संस्कृति

यह शब्द इस रूप में प्रयोग में बहुत कम आता था। अब यह शब्द अंग्रेजी शब्द 'कल्चर' के अर्थ को इंगित करने के लिए प्रयोग में बहुत और बहुधा आने लगा है। शब्द मूलतः ‘संस्कार’ है, जिसका अर्थ है—दोष का निराकरण, गुण का आधान। पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में इसी अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति दी गई है। ‘सम्’ पूर्वक ‘कृ’ धातु का अर्थ यदि दोष हटाकर गुण जोड़ना अभीप्सित हो तो ‘सम्’ और ‘कृ’ के बीच ‘स्’ का आगम होता है। इसलिए अनाज फटकने को भी संस्कार कहते हैं, पानी छानने को पानी का संस्कार कहते हैं, मंत्र प्रयोग द्वारा जन्म के बाद कई मांगलिक अनुष्ठान होते हैं, जिनसे नवजात शिशु अभिमंत्रित होकर नया संस्कार पाता है, उसका नामकरण होता है, यह भी संस्कार है; पहला क्षौर-कर्म होता है, जन्म के बाल उतार लिये जाते हैं, यह भी संस्कार है; गुरु के पास अध्ययन के लिए जाने के पूर्व ब्रह्म-सूत्र या यज्ञोपवीत धारण संस्कार होता है; अध्ययनशाला से निकलने पर समावर्तन संस्कार होता है, गृहस्थी में प्रवेश के लिए विवाह-संस्कार होता है और अंत में इहलीला समाप्त होने पर इस प्राण शरीर का अंत्येष्टि-संस्कार होता है। एक तरह से ये सभी संस्कार नए-नए कर्तव्य के लिए दीक्षा हैं और इस प्रक्रिया द्वारा मनुष्य में नई-नई शक्तियों की उद्भावना की जाती है। संस्कार के ये अर्थ कल्चर के वाचक शब्द ‘संस्कृति’ में समाहित हैं। संस्कार जहाँ एक कारक व्यापार है, वहीं संस्कृति क्रिया है। आधुनिक संदर्भ में संस्कृति की एक परिभाषा आचार्य नरेंद्र देव ने दी। संस्कृति मानव चित्त की खेती है। खेत की उर्वरता को बार-बार सुनिश्चित करने के लिए जोता जाता है; नीचे की मिट्टी ऊपर, ऊपर की मिट्टी नीचे लाई जाती है। इसी तरह चित्त को मथा जाता है और उसमें से सुषुप्त ऊर्जा निकाली जाती है तो उसे संस्कृति कहते हैं। डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने संस्कृति के वर्तमान अर्थ के लिए पुराने ‘कृष्टि’ शब्द का प्रयोग किया, जो एक तरह से ‘कल्चर’ का ध्वन्यात्मक दृष्टि से संवादी शब्द है। इस ‘कृष्टि’ शब्द का अर्थ खेती के विविध प्रकारों—बागवानी, रेशम के कीड़ों का पालन आदि अर्थों में विस्तृत हुआ, साथ ही किसी भी पदार्थ को संशोधित करके उसके स्वरूप को उत्तम बनाने के अर्थ में परिवर्धित हुआ। इन सभी अर्थों का आधान ‘संस्कृति’ शब्द में करके इसे मनुष्य की सर्जनात्मक ऊर्जा के अनुसंधान के अर्थ में किया जाता है। संस्कृति इसीलिए एक सिद्ध पदार्थ नहीं है, बना-बनाया या पका-पकाया पदार्थ नहीं है। यह साध्य है, निरंतर कुछ-से-कुछ बन रहा पदार्थ है। यह निष्पन्न न होकर निष्पाद्य है। अपने को नए-नए रूप में उत्पन्न करने का भाव है। यह उसके सहज स्वभाव को ऊपर लाना है, यह उसके धर्म को उभारना है। संस्कृति के ये सारे संदर्भ हमारी परंपरा में धर्म से द्योतित होते थे। वह अधिक व्यापक शब्द था। आजकल ‘धर्म’ शब्द को संकुचित कर दिया गया है और वह विश्वास या मत का वाचक हो गया है तथा बहुत कुछ पहले से दी गई कुछ विधियों के पालन तक सीमित हो गया है। कहने को तो संस्कृति के बारे में यह कहा जा सकता है। संस्कृति भी जब कभी अपनी सर्जनात्मकता खोती है तो वह स्वभाव न रहकर केवल आदत बन जाती है या सुविधा की लीक बन जाती है। लीक से बाहर गाड़ी चलाते हैं तो बैलों को असुविधा होती है। लेकिन लीक कभी-कभी मिट भी जाती है। उसपर गाड़ी न चले तो लीक दिखाई नहीं देती। उस समय नई लीक बनानी होती है। तब संस्कृति का मूल धर्म जगाया जाता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि गतिशीलता ही संस्कृति है, ठहराव इसी संस्कृति के अनुसार चलने पर बनी हुई कुछ राहें हैं, आचरण के कुछ बने हुए साँचे हैं। उन साँचों के प्रतिदर्श के रूप में रहन-सहन के ढंग हैं—उन्हीं को हम सभ्यता कहते हैं। स्मरणीय है कि ‘सभ्यता’ शब्द जिस ‘सभ्य’ शब्द से निकलता है, उसका अर्थ है—सभा में रहने के योग्य। और सभा का अर्थ है—एक ऐसा समुदाय, जो एक-दूसरे को भली-भाँति समझता है और एक-दूसरे के साथ अच्छा निर्वाह करता है, साथ-साथ प्रकाशित होता है (सह भाति), साथ-साथ चमकता है। अंग्रेजी के सिविलाइजेशन का अर्थ है—नगर में रहनेवालों का रहन-सहन। इन्हीं दो शब्दों में दो प्रकार की सभ्यताओं का अलग-अलग आधार इंगित होता है। एक का आधार शहर है, दूसरे का आधार केवल शहर नहीं, गाँव भी है, वन भी है। कालांतर में ‘सिविलाइजेशन’ शब्द तो नगर तक केंद्रित रहा, पर ‘कल्चर’ शब्द नृतत्त्वशास्त्र की कृपा से वन में रहनेवाले सभ्यता के पैमाने पर पूरे न उतरनेवाले लोगों के साथ भी जुड़ा। इसीलिए घुमंतू संस्कृति (नोबेडिक कल्चर), चरागाही संस्कृति (पैस्टोरल कल्चर), आदिम संस्कृति (प्रिमिटिव कल्चर),सामंती संस्कृति (फ्यूडल कल्चर)—जाने कितने शब्दों का जन्म हुआ। पर इन सब में एक सूत्र है—संस्कृति अपने को बेहतर बनाने का संकल्प है। इस ‘अपने को’ में एक समुदाय भी, जो अपना है, सम्मिलित है। इसे दूसरी तरह से कहना चाहें तो कह सकते हैं कि संस्कृति किसी-न-किसी उच्चतर जीवन-उद्देश्य या मूल्य से प्रेरित है। अपने लिए जीना सार्थक जीना नहीं है। सामुदायिक जीवन व्यतीत करनेवाले विकसित चैतन्यवाले प्राणी के लिए कुछ सदुद्देश्य ही जीवन की गति के कारक होते हैं। उद्देश्यों की उपलब्धि संस्कृति नहीं, उस उपलब्धि में क्या कुछ घटता है, कैसे कुछ घटता है और कैसे कुछ अघटित घटने पर प्रतिरोध आता है, उस प्रतिरोध को हटाने में कितना बल लगता है, प्रतिरोध हटने पर गति कितनी तीव्र हो जाती है—यह सब मिलकर संस्कृति कही जाती है। केवल रूपांतर या परिवर्तन संस्कृति नहीं है। रूपांतर जब तक प्रतिमानों को पाने के लिए न हो तब तक रूपांतर उसी प्रकार के अभ्यास हैं जिस प्रकार के अभ्यास बच्चे जमीन या कागज पर टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचकर करते हैं।

संस्कृति के बारे में उपर्युक्त विचार-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में जब हम भारतीय संस्कृति के स्वरूप पर विचार करते हैं तब बार-बार हमारी स्मृति में ‘धर्म’ शब्द आता है। धर्म सार्थक जीवन की विधि है। पुरुषार्थ साधन है और मनुष्य का शरीर इस धर्म का साधन है। वह शरीर उपेक्षणीय नहीं है। शरीर के भीतर ही धर्म का वास्तविक प्रयोजन सधता है; क्योंकि यह शरीर ब्रह्मांड का एक प्रतिरूप है। इसलिए शरीर के साधने का प्रत्येक दैनंदिन व्यापार भी धर्म है। जब यह मानकर शरीर-व्यापार होता है कि संपूर्ण जीवन इस शरीर के जीवन में सूक्ष्म रूप में वर्तमान है तो संपूर्ण सृष्टि के भीतर समरसता या संगति स्थापित करना ही शरीर का धर्म हो जाता है। यही संस्कृति है। सब में अपने को देखो, अपने में सबको देखो। सबको देखोगे तो किसी के प्रति उपेक्षा नहीं रखोगे। क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणी भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। सब में अपने को देखोगे तो सबके लिए प्रिय कार्य करोगे। सबका प्रिय देखोगे, अपना अलग से कोई प्रिय होगा तो उसकी भी कसौटी यही होगी कि सबको वह प्रिय है कि नहीं। जो निरंतर देखेगा वह अपने आप स्वतंत्र विवेक से देखनेवाला बन जाएगा। वह अपने आप मनुष्य के चरम मूल्य स्वाधीनता का आराधक हो जाएगा और जो आराधक होगा वह सत्य का अन्वेषक भी होगा। पहले के प्रकाशित सत्य का भी परीक्षक होगा। वह आत्मदीप होगा, अपने लिए स्वयं प्रकाश होगा।

यह तो भारतीय संस्कृति का एक पक्ष हुआ, उसका दूसरा पक्ष है—देश-काल में रहते हुए देश-काल का अतिक्रमण करते रहने का सामर्थ्य। यह सामर्थ्य देश-काल में पूरी तरह संपृक्त हुए बिना, दूसरे शब्दों में देश-काल को साधे बिना नहीं आता। जहाँ रहें, जब रहें, उसके साथ संगति बिठाकर रहें, उसकी अपेक्षाओं को पूरा करें, पर उस देश-काल के आगे की संभावनाओं का भी ध्यान रखें और जहाँ कहीं असंगति या कुछ असंतुलन आ रहा है वहाँ देश-काल के आगे चले जाने का साहस करें। जब किसी सोने के संपुट में सत्य ढक जाए तो सोने का लोभ छोड़कर, उस ढक्कन को जोर लगाकर अलग फेंक दें कि सत्य दिख जाए। यह साहस कोई समुदाय नहीं दिखाता, समुदाय को जीनेवाला कोई साधक दिखाता है, तपस्वी दिखाता है; कोई अवतार दिखाता है, कोई बोधिसत्त्व दिखाता है, कोई जिन दिखाता है; कोई ऋषि दिखाता है, कोई कवि दिखाता है; कोई कलावंत दिखाता है, कोई शिल्पी दिखाता है, कोई चितेरा दिखाता है। मनुष्य का धर्म या आज की शब्दावली प्रयुक्त करें तो उसकी संस्कृति ऐसे निराले लोगों की चर्या से नवनिर्मित होती चलती है। इसलिए यहाँ कोई अंतिम उद्धारकर्ता नहीं है। उद्धारकर्ताओं की नई-नई संभावना रहती है तो देश-काल का विस्मरण भी नहीं होता और देश-काल में बँधना भी नहीं होता है। बगीचे में घूमते हुए भी यदि एक छोर से दूसरे छोर तक भरा कटोरा लेकर जाना हो और यह ध्यान रखना हो कि एक बूँद जल छलके नहीं तो देश-काल रहते हुए भी स्थगित हो जाते हैं। उत्तम कविता पढ़ते हैं, वह किसी निश्चित देश-काल को संबोधित है, उसमें रचित है; लेकिन जब पढ़नेवाला अपने देश-काल और कविता में वर्णित देश-काल से भी अलग हो जाए तब वह कविता उत्तम होती है। संस्कृति का यह अभिलक्षण चित्त के गहरे मंथन का ही एक ऐसा प्रकार है जिसमें चित्त का विचित्तीकरण हो जाता है। मन का उन्मनीकरण हो जाता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि चित्तवृत्ति की गंभीर-से-गंभीरतर साधना के बिना संस्कृति का उच्चतर प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

भारतीय संस्कृति की तीसरी विशेषता है अलग-अलग वस्तुओं में निरंतरता और परस्पर अवलंबिता देखना। अलग-अलग रहते हुए भी वस्तुएँ एक-दूसरे से असंबद्ध नहीं हैं। उनमें कोई आश्रयदाता, कोई आश्रित नहीं है, सभी परस्पर आश्रित हैं। विराट् व व्यक्त सूक्ष्म अव्यक्त पर आश्रित है। इस प्रकार के भाव में प्रभुता और दासता, ऊँच और नीच की कोटियाँ नहीं आने पातीं। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ऐसा है तो जातिभेद का वैषम्य क्यों, मनुष्य-मनुष्य एक क्यों नहीं? इसके समाधान में कहा जा सकता है कि मनुष्य-मनुष्य में एकता की बात छोटी समझते हुए प्राणिमात्र या जीवमात्र की एकता की बात जब सोची जाती है, जैसा कि भारतीय संस्कृति की स्थापना है तो यह पकड़ में नहीं आती और ऐक्य भावना पाखंड बनने लगती है। पर यदि ऐक्य भावना न होती तो बार-बार पाखंड को तोड़ने के लिए नए-नए सिद्धांत प्रतिपादित न हुए होते और नए-नए आक्रामक विचार न आए होते। यह उल्लेखनीय है कि भेद पदार्थों के बीच नहीं है, पदार्थों की भूमिका के बीच है। हरेक की भूमिका अलग है, पर हर एक तमाम एकों से मिलकर एकत्व का साधक है ‘सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म’। इसीलिए यह स्पष्ट देखते हुए भी कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का भोग करता है, यदि कुछ अधिक सुख में रहनेवाला मनुष्य किसी दुःख में पड़े विपन्न व्यक्ति के बारे में यह सोचे कि वह अपने कर्मों का भोग भोग रहा है तो यह सर्वभाववाले धर्म के प्रतिकूल बात होगी। ऐसे व्यक्ति के लिए करुणा ही हो, क्योंकि उस व्यक्ति में भी वह संभावना है जो मुझमें है, उसके पास भी कुछ सृष्टि को देने की संपत्ति है, शायद दुःख ही उसकी संपत्ति हो, या उससे भी अधिक दुःख की अनुभूति ही उसकी संपत्ति हो, उसे भी आदमी अपनाता है तो पूर्णतर होता है। इसीलिए दूसरे के दुःख की निवृत्ति अपने सुख की प्राप्ति से बड़ा धर्म है। इसी के साथ दूसरे के सुख में सुख पाना भी अपने सुख की अपेक्षा बड़ा धर्म है। यह बड़ा धर्म ही संस्कृति का एक उत्कृष्ट परिमापक है।

 

—विद्यानिवास मिश्र

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