गौरवपूर्ण साहित्यिक शब्द-यात्रा

साहित्य अमृत के रजत जयंती अंक का संपादकीय लिखते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। यह प्रसन्नता तब और भी बढ़ जाती है, जब इतने लंबे लॉकडाउन के बाद यह अंक आपके समक्ष आ रहा है। किसी साहित्यिक पत्रिका का पच्चीस वर्ष तक नियमित-निर्बाध प्रकाशन निश्चय ही एक गौरवमयी उपलब्धि है। अत्यंत समृद्ध प्रतिष्ठानों द्वारा लोकप्रिय पत्रिकाओं के अचानक बंद कर देने के आघातों से साहित्यप्रेमी भलीभाँति परिचित हैं। अनेक पत्रिकाओं को हमने सीमित साधनों तथा अर्थाभाव के कारण भी बंद होते देखा है हालाँकि उनमें स्तरीय सामग्री का प्रकाशन होता था तथा उनके संकल्प भी नेक थे।

हर माह सही समय पर पाठकों को नियमित पत्रिका पहुँचाने के साथ-साथ ‘साहित्य अमृत’ के विशेषांकों की गौरवशाली परंपरा रही है। विभिन्न अवसरों पर साहित्य अमृत ने यादगार विशेषांक निकाले हैं, जिनमें—‘प्रवेशांक’ (अगस्त, १९९५), ‘राजभाषा विशेषांक’ (सितंबर, १९९९), ‘शतांक’ (नवंबर, २००३), ‘विश्व हिंदी सम्मेलन विशेषांक’ (जून २००३), ‘जनाकांक्षा अंक’ (अगस्त, २००४), ‘पं. विद्यानिवास स्मृति अंक’ (मार्च-अप्रैल, २००५), ‘दशकांक’ (१०वाँ वर्ष) (अगस्त, २००५), ‘विश्व हिंदी सम्मेलन विशेषांक’ (जुलाई, २००७), ‘भारतीय भाषा अंक’ (१५०वाँ) (जनवरी, २००८), ‘विष्‍णु प्रभाकर स्मृति अंक’ (जून, २००९), ‘कविता विशेषांक’ (अगस्त, २०१०), ‘अज्ञेय जन्मशती अंक’ (अक्तूबर, २०१०), ‘जन्मशती—बाबा नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली, केदारनाथ अग्रवाल, उपेंद्र नाथ ‘अश्क’’ (फरवरी, २०११), ‘कहानी विशेषांक’ (फरवरी, २०१४), ‘मीडिया विशेषांक’ (२०वाँ वर्ष) (अगस्त, २०१५), ‘डॉ. कलाम पर विशेष विशेषांक’ (अक्तूबर, २०१५), ‘युवा हिंदी कहानी विशेषांक’ (‌दिसंबर, २०१५), ‘स्वाधीनता विशेषांक’ (अगस्त, २०१६), ‘लघु-कथा विशेषांक’ (जनवरी, २०१७), ‘लोक-संस्कृति विशेषांक’ (अगस्त, २०१७), ‘वै‌श्विक हिंदी विशेषांक’ (अगस्त, २०१८), ‘अटल स्मृति विशेषांक’ (दिसंबर, २०१८), ‘शौर्य विशेषांक’ (अगस्त, २०१९), ‘गांधी विशेषांक’ (जनवरी, २०२०) प्रमुख हैं।

पच्चीस वर्ष के दीर्घकाल में तरुणाई के सृजनात्मक कृतित्व एवं अभ्यर्थना के लिए ‘साहित्य अमृत’ ने समय-समय पर विभिन्न विधाओं में लेखन-प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं, जिनमें वर्ष २००६ में आयोजित ‘युवा हिंदी कहानी प्रतियोगिता’ में १६५ कहानीकारों ने भाग लिया। जनवरी-२००८ में ‘युवा हिंदी कविता प्रतियोगिता’ का आयोजन हुआ, जिसमें शताधिक कवियों ने अपनी क‌व‌िताएँ भेजीं। अगस्त-२००९ में ‘युवा हिंदी व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता’ में ४५ व्यंग्य लेखकों ने भाग लिया तथा दिसंबर-२०१५ की ‘युवा हिंदी कहानी प्रतियोगिता’ में कुल २०२ कहानीकारों ने भाग लिया।

यशस्वी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयीजी की प्रेरणा तथा विद्यानिवास मिश्रजी जैसे विद्वान् संपादक के मार्गदर्शन में श्यामसुंदरजी द्वारा प्रारंभ की गई इस पत्रिका ने कभी भी व्यावसायिक दृष्टिकोण न रखते हुए साहित्य-सेवा का ही लक्ष्य रखा है। देश के सर्वश्रेष्ठ प्रतिष्ठित विद्वानों, साहित्यकारों का भरपूर स्नेह तथा सहयोग इस पत्रिका को मिला है और पाठकों का अपार समर्थन न होता तो फिर पच्चीस वर्षों की यात्रा क्या संभव हो पाती! प्रस्तुत अंक में पिछले २५ वर्षों में प्रकाशित स्मृतिशेष महान् विद्वान् साहित्यकारों की रचनाएँ आपको पढ़ने को मिलेंगी। चाहे वे विद्यानिवास मिश्र, विष्‍णुकांत शास्‍त्री, लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, शंकरदयाल सिंह, कुबेरनाथ राय, कृष्‍णदत्त पालीवाल, विवेकी राय जैसे विद्वान् हों अथवा विष्‍णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, महीप सिंह जैसे कथाकार अथवा कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, कैलाश वाजपेयी, इंदु जैन, बालकव‌ि बैरागी जैसे कवि। स्‍मृतिशेष रचनाकारों के अतिरिक्त वर्तमान साहि‌ित्यक परिदृश्य में हर विधा के श्रेष्ठतम रचनाकारों की रचनाएँ भी इस ‘रजत जयंती विशेषांक’ में सँजोई गई हैं। देश के अत्यंत लोकप्रिय रचनाकारों की रचनाएँ भी इस अंक में मिलेंगी। यह भी प्रयास किया गया है कि इस अंक में साहित्य की प्रायः सभी विधाओं का समावेश हो सके।

आशा है कि प्रस्तुत अंक को आप सभी पाठकों का प्यार मिलेगा।

विश्व का सबसे बड़ा सर्वप्रभुता संपन्न गणराज्य, फिर भी...

तब मैं नया-नया दिल्ली आया था। लक्ष्मीनगर की सब्जीमंडी में जिस ठेले से मैं सब्जी खरीद रहा था, उसी ठेले से वह सज्जन भी, जिनकी गोद में एक बेहद प्यारा मासूम सा बच्चा था। अचानक एक हृदय विदारक चाँटा मासूम बच्चे के गाल पर पड़ा था—बच्चे का अपराध? उसने पिता से हिंदी में ‘आम’ की माँग कर दी थी...पिता का कर्कश स्वर गूँजा था, ‘मैंगो’ नहीं बोल सकता! हिंदी का एक शब्द बोलने से पिता के लिए बच्चे का भविष्य खतरे में पड़ गया था। याद रहे कि बच्चे ने उसी दिल्ली में हिंदी बोल दी थी, जो उस भारत की राजधानी है, जिसकी राजभाषा हिंदी है।

बत्तीस वर्ष पहले घटी यह घटना क्या अपवाद थी...नहीं, ‌अभी कुछ दिनों पहले ही एक कॉन्वेंट स्कूल में एक बच्चे से आठ पेज, जी हाँ, आठ पेज, में एक ही वाक्य लिखने की सजा दी गई थी ‘आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी’! बच्चे का अपराध? वह कक्षा में अपने मित्र से हिंदी में बात करते ‘पकड़ा गया’ था। भारत में जैसे ही बच्चे में जरा सी चेतना आती है, हर माँ सिखाती है ‘बेटा तुम्हारी नोज कहाँ है’, ‘आइज कहाँ है?’ आदि। यह कौन सी मानसिकता है? ऐसा किस देश में होता है कि अपने आत्मीय रिश्तों का भी नाम हिंदी में लेने की बजाय मेरी मदर, मेरे फादर, मेरी वाइफ, मेरी सिस्टर आदि बोलते हैं! जहाँ अंग्रेजी की सचमुच आवश्यकता है, वहाँ तो बात समझ में आती है किंतु पुत्र या पुत्री के विवाह जैसे नितांत पारिवारिक एवं मांगलिक अवसर पर अंग्रेजी में निमंत्रण-पत्र छपवाना आपको शुद्ध मानसिक दासता का फूहड़ प्रदर्शन नहीं लगता? जो हिंदी की रोजी-रोटी खाता है, वह भी अपना विजिटिंग कार्ड अंग्रेजी में पेश करता है; यह कौन सी मानसिकता है? घर के बाहर नाम की तख्ती हो या दुकान का साइन बोर्ड! आजादी के ७५ वर्ष पूर्ण होने की ओर बढ़ रहे इस देश में मानसिक गुलामी से मुक्ति का कोई मार्ग दिख सकता है क्या?

एक सितंबर से ही हिंदी सप्ताह/पखवाड़ा/माह मनाने की धूम शुरू हो जाएगी। उन सरकारी कार्यालयों में भी, जहाँ वर्षभर सारे काम अंग्रेजी में ही होते हैं। हर कार्यालय में ७-८ लोग विभिन्न प्रतियोगिताओं में हर वर्ष पुरस्कार जीतते हैं! कुछ संस्‍थान अवश्य हैं, जहाँ हिंदी पखवाड़ा अत्यंत भव्य रूप में मनाया जाता है। खैर, इस बहाने ही सही हिंदी की ओर ध्यान तो जाता है। लेकिन उस मानसिकता की ओर विचार करने की अधिक आवश्यकता है कि दुनिया के सबसे बड़े सर्वप्रभुता-संपन्न गणराज्‍य में हम अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से निकलकर अपनी भाषा के प्रति सम्मान का भाव कैसे जाग्रत् करें?

हिंदी की अपनी शक्ति

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार मिलने के बाद उन्हें गुजरात में व्याख्यान देने के लिए बुलाया गया था। गुरुदेव ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा कि उन्हें गुजराती आती नहीं, अंग्रेजी में थोड़े लोग समझ पाएँगे, हिंदी आती है लेकिन ज्यादा नहीं, और स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग की गड़बड़ियाँ हो जाती हैं! महात्मा गांधी ने सुझाया—आप हिंदी में ही व्याख्यान दें, तभी बात बनेगी। गुरुदेव ने ऐसा ही किया, उन्हें एेसी शानदार सराहना मिली कि वे स्वयं चकित थे ‌और फिर कई जगह उन्होंने हिंदी में व्याख्यान दिए।

स्वामी दयानंदजी जिन दिनों आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में लगे थे, उन्हीं दिनों उनके एक करीबी शुभचिंतक ने सुझाया कि यदि आपको आर्यसमाज को गाँव-गाँव तक पहुँचाना है तो संस्कृत के स्‍थान पर हिंदी में प्रवचन दें। स्वामीजी ने सुझाव माना और हिंदी के जादू से आर्यसमाज सचमुच गाँव-गाँव तक पहुँच गया।

जिन दिनों ईस्ट ‌इंडिया कंपनी भारत में अपने पाँव जमा रही थी, ब्रिटिश सरकार ने ‘एडवर्ड टेरी’ नामक विद्वान् को भारत भर का दौरा करके यह बताने को कहा कि शासन के लिए कौन सी भाषा उपयुक्त रहेगी और टेरी ने देशभर में घूमकर हिंदी को सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बताया था। हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने भी हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने का स्वप्न देखा था, जबकि उनकी स्वयं की मातृभाषा हिंदी नहीं थी—लोकमान्य तिलक की मातृभाषा मराठी, लाला लाजपतराय की पंजाबी, महात्मा गांधी की गुजराती, सुभाषचंद्र बोस की बांग्ला, पं. नेहरू की कश्मीरी, सरकार पटेल की गुजराती, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की तमिल...आदि। यही हिंदी का जादू है, हिंदी की शक्ति है।

आधुनिक समय को देखें तो भारत में अपने को विश्व का मीडिया-सम्राट् माननेवाला एक अंग्रेजी चैनल शुरू करता है, कोई पहचान नहीं बनती, फिर वह हिंदी के कार्यक्रम शुरू करता है तो पहचान बनती है और फिर २४ घंटे का अंग्रेजी चैनल २४ घंटे के हिंदी चैनल में बदल जाता है।

हमारे पड़ोसी देश में एक विचित्र घटना होती है—वह पड़ोसी, जो हमेशा शत्रुता रखता रहा है—उस देश के केबल ऑपरेटर देशव्यापी हड़ताल कर देते हैं; कारण—हिंदी चैनलों पर से प्रतिबंध हटाने की माँग करते हैं—यह है हिंदी का जादू!

आज विश्व में हिंदी निरंतर विकास के नए आयाम छू रही है। विभिन्न देशों के नगरों में हिंदी के एफ.एम. चैनल चल रहे हैं। अमेरिका के कुछ मैनेजमेंट संस्‍थान, हिंदी पढ़ा रहे हैं। भारत में मध्यवर्ग की जितनी बड़ी आबादी है, उतनी तो देशों की भी आबादी नहीं है। इसलिए इतने बड़े बाजार पर नजर है, जो बिना हिंदी के संभव नहीं।

आवश्यकता इस बात की है कि देश के लगभग सत्तर करोड़ हिंदीवासी उसे शक्ति प्रदान करें। हिंदी में समाचार-पत्रों की करोड़ों प्रतियाँ बिकें, हिंदी की किताबें बिकें, हिंदी में राेजगार के अवसर बढ़ें, हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की सामग्री बढ़े, अनुवाद कार्य बढ़े। हम हिंदी में बोलकर-लिखकर गर्व का अनुभव करें। अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा रहे तथा विकल्प न होने तक उच्च शिक्षा एवं विज्ञान-प्रौद्योगिकी की भाषा रहे। वह एक भाषा की तरह ही रहे, रुतबे की भाषा न बने। सौभाग्य से नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा देने तथा भारतीय भाषाओं को सुदृढ़ करने का संकल्प उल्लेखनीय है। उसके लिए शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोख‌रियाल ‘निशंक’ साधुवाद के पात्र हैं, जिनकी कविताएँ प्रस्तुत अंक में दी जा रही हैं।

‘साहित्य अमृत’ का अप्रैल-२०२० अंक समय पर प्रकाशित हो गया था, परंतु लॉकडाउन के चलते यह अगस्त-२०२० में प्रसारित हो सका। कोविड-१९ के चलते प्रकाशकीय गतिविधियाँ बाधित रहीं और अंक प्रकाशित नहीं हो पाए। अस्तु, मई-२०२० से सितंबर-२०२० का संयुक्तांक प्रकाशित कर रहे हैं।

 (लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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