रक्षक का जन्म

सुबह का समय, अयोध्या

सूर्योदय होने को था और चिडि़यों के कलरव से संपूर्ण वातावरण ध्वनित था। आज मानो चिडि़याँ भी उस नन्हे मेहमान के आने के इंतजार में कुछ ज्यादा ही व्याकुल थीं। उनसे भी ज्यादा व्याकुल एक और इन्सान था और वह थे राजा दशरथ, जो बेचैनी से लगातार महारानी कौशल्या के प्रसव कक्ष के सामने टहल रहे थे। सभी राजदरबारी एवं अधिकतर नागरिक, जिनके पास बच्चे के जन्म होने की सूचना फैल गई थी, वे सब महल के द्वार पर बेचैनी से उसके जन्म का इंतजार कर रहे थे। ढोल-मंजीरे, नगाड़े सब तैयार थे। आखिरकार अयोध्या के सूने बंजर वंश की संभावनाओं को खत्म करते हुए एक हरियाली (आशा की किरण) उस प्रांत को प्राप्त होने जा रही थी। महारानी की हर चीख महाराजा दशरथ की बेचैनी और उत्सुकता को बढ़ा रही थी। राजा दशरथ के साथ वहाँ कक्ष के बाहर दो और शख्स मौजूद थे—एक थे महर्षि वसिष्ठ, दूसरे सेनापति मृगाधीश। महर्षि लगातार उस बालक के जन्म की वेला (समय) की प्रतीक्षा में व्याकुल थे, क्योंकि बच्चे के जन्म का वक्त उन्हें उसके बारे में कुछ भविष्यवाणी करने और शगुन विचारने व पढ़ने की अनुमति देते। वे लगातार दो तारे, जिनमें एक धुव्र तारे के नाम से विख्यात था, उनके बीच के कोण पर नजर बनाए हुए थे।

एकाएक महारानी की चीख बंद हो गई। राजा दशरथ टहलना छोड़ अंदर आहट लेने लगे। महर्षि और मृगाधीश भी सावधान हो चुके थे। तभी एक बालक के चीखने की आवाज आई। राजा दशरथ और मृगाधीश ने भाव-विह्व‍ल हो बेहद प्रेमपूर्ण नेत्रों से एक-दूसरे की तरफ देखा, जिनमें ढेरों बधाइयाँ और खुशियाँ छिपी थीं। महर्षि ने फौरन तारों की गणना की और उनके चेहरे पर संतोष के भाव आए। उन्होंने मन-ही-मन कहा, यदि बालक दस मिनट की देरी से आता तो ठीक भगवान् विष्णु के छठे अवतार एवं महान् क्षत्रिय मुनि प्रभु परशुराम के जन्म के वक्त पैदा होता, जो एक अद्भुत संकेत होता, पर ये नक्षत्र और बेला भी अत्यंत उपयुक्त हैं। तभी महारानी के प्रसव कक्ष का द्वार खुला और सेविका ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बधाई हो महाराज! बालक हुआ है।’’ वैसे राजा दशरथ पहले ही बालक के रोने की आवाज को सुन यह समझ चुके थे कि बालक ही हुआ है। इधर सूर्य ने भी अपनी पहली किरण धरती पर भेजी, मानो वह भी इस खुशनुमा माहौल की बधाइयाँ बाँट रहा हो। राजा दशरथ अपनी मोतियों की माला को निकाल दौड़ते हुए अंदर पहुँचे और बालक को माता के पास से उठा, उसे मोतियों से वार, सेविका को प्रदान कर दिया। उसके बाद राजा ने रानी कौशल्या के माथे को चूमते हुए कहा, ‘‘महारानी आज आपने न केवल मुझे, बल्कि संपूर्ण कौशल प्रांत को खुशियाँ मनाने का मौका दिया है। यह हम दोनों के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन है। न मैं, न ही कौशल इस दिन को भूल पाएगा।’’ राजा दशरथ भाव-विह्व‍ल बोलते जा रहे थे कि बीच में महर्षि ने बोलते हुए कक्ष में प्रवेश किया।

‘‘नहीं राजन! इस बात की पूरी संभावना है कि इस दिन को पूरा भारतवर्ष नहीं भूल पाएगा।’’ महर्षि को देख महारानी और अन्य दोनों रानियों ने प्रणाम किया और महारानी ने खुद को संयत किया। महर्षि वसिष्ठ चूँकि एक महर्षि थे। अतः वह केवल एक निशान की तलाश में थे, जो उन्हें इस बालक के प्रति समर्पित कर सके कि यह रक्षक बनने के काबिल है। महर्षि आगे बढ़े। राजा दशरथ ने बालक को महर्षि की गोद में दिया, महर्षि ने उस निशान की उम्मीद में बालक की ओर उत्सुकता से देखा और उसे देखते ही मानो उनके मन को असीम शांति मिली। उनकी आँखें खुशी से चौड़ी हो गईं। उन्हें पहली निशानी मिल चुकी थी। वह बालक श्याम वर्ण (साँवले रंग का) था। श्याम वर्ण भगवान् विष्णु से जुड़ा था, क्योंकि उनके सभी प्रमुख अवतारों का वर्ण श्याम ही था अर्थात् उनका रंग साँवला ही था। हालाँकि यह निशानी कोई विशेष मायने नहीं रखती थी, परंतु जैसा कि महर्षि ने पूर्व ही बताया था कि विश्वास के लिए किसी-न-किसी वस्तु का होना आवश्यक है, अतः उन्होंने अपने विश्वास का जरिया उस बालक का श्याम वर्ण की रखा। इधर राजा दशरथ मृगाधीश को नगरवासियों को सूचित करने का आदेश दे चुके थे।

‘‘गुरुदेव कृपया इस बालक का नामकरण भी कर दें।’’ राजा दशरथ, जो बेहद उत्सुक थे, बोल पड़े।

‘‘यदि यह बालक दस मिनट और देरी से प्रभु परशुराम के जन्म के वक्त पैदा होता तो इसे संभवतः मैं परशुराम नाम ही देता, किंतु यह दस मिनट पहले हुआ है, इसलिए मैं परशुराम से पहले के तीन शब्द हटा इसका नाम ‘राम’ रखता हूँ।’’

तभी ढोल-नगाड़ों की उन्मादी आवाज महल तक पहुँची और सभी हर्षित हो उठे। पूरा नगर जश्न मनाने लगा और इधर राम नाम से सभी बेहद संतुष्ट और खुश थे। महर्षि बालक को देखते हुए सोचने लगे, अब आगे इस बालक के कर्म ही निर्धारित करेंगे कि यह बालक रक्षक है या नहीं।

आगे चलकर कौशल प्रांत को एक के बाद एक; दो और उत्सव मनाने के अवसर मिले, क्योंकि राम के जन्म के तीन महीने बाद कैकेयी ने एक बालक को जन्म दिया। उसका नाम महर्षि ने ‘भरत’ रखा एवं उसके दो महीने बाद तो अयोध्या को दोहरी खुशियाँ प्राप्त हुईं क्योंकि सबसे छोटी रानी सुमित्रा ने आखिर में जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया, जिनका नाम क्रमशः ‘लक्ष्मण’ और ‘शत्रुघ्न’ रखा गया।

समय बीतता रहा।

अब राजा दशरथ रावण की चिंता छोड़ अपने चारों बेटों के साथ आनंदित रहने लगे। धीरे-धीरे चारों के मुंडन का वक्त भी आ गया। बच्चों के मुंडन के वक्त उनके नाम को पूजा द्वारा स्थापितकर उनकी कुंडली का निर्माण किया जाता था। जन्मकुंडली का निर्माण तीन भाइयों का तो कुशलतापूर्वक संपन्न हो गया, किंतु बड़े भाई राम का नाम ऋषियों के मुताबिक वेदों के हिसाब से और जन्म-नक्षत्र के कारण छोटा था और उन्हें अपने ग्रहों में चंद्रमा को भी स्थान देना था, ताकि उनका जीवन सुखमय हो सके। अतः महर्षि वसिष्ठ ने उनके नाम के साथ चंद्र भी जोड़ दिया। अब राम के नाम की स्थापना हो चुकी थी रामचंद्र के नाम से। अब उनका नाम भी उनके भाइयों के नाम के समान बड़ा हो गया, परंतु न तो कोई रानी, न ही राजा दशरथ इस नाम का उस बालक के लिए उच्चारण करते थे, क्योंकि सबको राम नाम की आदत पड़ चुकी थी। यह नाम बुलाने हेतु भी छोटा और आसान था, अतः वे अपनों के लिए अब भी राम ही थे।

माता-पिता की छत्रच्छाया में सभी बालक अपना जीवन भलीभाँति सभी सुख-सुविधाओं में व्यतीत कर रहे थे। वे राजा दशरथ के पास युद्ध विजय की गाथाएँ सुनते और माताओं के पास पौराणिक शिक्षाप्रद कहानियाँ। महारानी कौशल्या-कैकेयी-सुमित्रा में इतना गहरा प्रेम भरा रिश्ता जुड़ा था कि उन्हें देखकर किसी को भी सगी बहन होने का भ्रम होता था, न कि सौतन। उनके आपसी प्रगाढ़ प्रेम का असर बालकों के ऊपर भी पड़ा, क्योंकि बालकों का बचपन में दिमाग एक सफेद वस्त्र की भाँति होता है, उस पर माता-पिता या संरक्षक द्वारा जो रंग चढ़ा दिया जाए, वही रंग चढ़ जाता है। वे जो देखते हैं, वे अपने भोले दिमाग में बसाते जाते हैं। लिहाजा वे चारों बालक अपनी उस उम्रावस्था में कभी न सीख सके कि सगी माँ और सौतेली माँ में क्या अंतर होता है। वे तीनों माँओं को एक समान प्रेम व इज्जत करते थे। वे एक साथ खाते-सोते थे। वे सदैव अपनी तीनों माँओं के साथ एक साथ सोते थे, क्योंकि महारानी कौशल्या से शुरू हुई कहानी, जब तक माता सुमित्रा के पास क्रमशः न पहुँचे, वे चारों सोने को तैयार नहीं होते थे। हाँ वे महारानी कौशल्या, रानी कैकेयी और रानी सुमित्रा को क्रमशः उन्हीं तीनों के द्वारा बताए गए नामों से बुलाते थे—बड़ी माँ, मँझली माँ और छोटी माँ।

यह सब देख राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न रहते थे। उनकी उम्र और बीमारियाँ मानो थम सी गईं। इधर तीनों रानियों के इस आपसी प्रेम की सबसे बड़ी वजह स्वयं राजा दशरथ ही थे। वे अपनी तीनों पत्नियों से रत्ती भर भी भेदभाव न करते हुए उन्हें सदैव एक सा प्रेम करते थे। किसी को एक से अलग कोई विशेष सुविधा न प्राप्त थी, सभी एक समान थीं। इसका असर रानियों के आपसी प्रेम और फिर उनके पुत्रों के आपसी प्रगाढ़ प्रेम के रूप में सामने आया। उसी महान् प्रेम और मातृत्व की छाँव में चारों बालक बड़े होने लगे। वे कब छह वर्ष की अवस्था में पहुँचे, यह किसी को अंदाजा न रहा। हाँ, अब इनकी उम्र की अवस्था की सबसे बड़ी चोट और दर्द राजा दशरथ और रानियों को होने वाला था, क्योंकि उन्हें पता था कि अगले बसंत महर्षि वसिष्ठ इन्हें अपने गुरुकुल ले जाएँगे, आगामी शिक्षा हेतु। अतः वक्त के साथ उनकी उदासी बढ़ती जा रही थी। इधर बालक अपनी दुनिया में खुश रहते थे, वे प्रायः उनकी उदासी नहीं देख पाते थे, क्योंकि उनसे यह छिपा ली जाती थी। हालाँकि अब बालकों का चरित्र उभरकर सामने आ रहा था। बड़े राम, जो बेहद सीधे-सरल हृदय के थे, वे प्रायः बड़ों का साथ पसंद करते थे। इसका असर उनके व्यक्तित्व पर पड़ता था। वे व्यवहार में उम्र से बड़े लगते थे। वे प्रायः चिंतन करते पाए जाते, मानो दुनिया की हर एक वस्तु को जानने-समझने की उनमें तीव्र इच्छा हो और वे हर चीज का मतलब ढूँढ़ा करते थे।

उसके बाद भरत, जो कि बेहद बुद्धिमान थे, वे चंचल स्वभाव के थे। उन चारों भाइयों में सबसे ज्यादा बोलना उनकी आदत थी।

उनके बाद लक्ष्मण, जो कि दुनिया में शत्रुघ्न से कुछ मिनट ही पहले आए थे। इनका व्यक्तित्व तीनों भाइयों में सबसे अलग था, ये गुस्सैल स्वभाव के थे। हर छोटी-से-छोटी बात, जो इनको पसंद न आए, उस पर गुस्सा आ जाता था। इनके गुस्सैल स्वभाव के कारण इनकी प्रायः किसी से नहीं बनती थी, क्योंकि इन्हें कब और किस बात पर गुस्सा आ जाए, यह कोई नहीं जानता था। इनके इस व्यवहार से राजा दशरथ काफी दुःखी हो जाया करते थे। हाँ, इनकी केवल इस दुनिया के एक इन्सान से बनती थी और वे थे इनके बड़े भाई राम, क्योंकि वे लक्ष्मण की ऊल-जलूल बातों को भी बड़े ध्यानपूर्वक सुनते और उनका निवारण कर देते थे। उनका यही शांत-संयत व्यवहार लक्ष्मण को उनके सबसे करीब ले आया। अकेलेपन में एकमात्र साथी राम के होने की वजह से वे उनके और करीब आते और उनसे जुड़ते गए। धीरे-धीरे पूरे अयोध्या में विख्यात हो गया कि शत्रुघ्न नहीं, राम उनके जुड़वाँ भाई हैं। वे उनके पास के सिवा और कहीं नहीं मिल सकते। जो भी हो, राजा दशरथ यह जानते थे कि लक्ष्मण का गुस्सा एक-न-एक दिन उसे और राम, दोनों को मुसीबत में डालेगा।

चौथे शत्रुघ्न, बेहद शांत और चुप रहनेवाले। वे अपने भाइयों के सिवा अन्य किसी के पास नहीं रहते थे और उनके साथ रहकर भी बिल्कुल चुपचाप केवल उनकी आपसी बातचीत सुनते रहते थे।

(श्री सूरज पटेल की पुस्तक ‘रक्षक राम’ से साभार)
सूरज पटेल

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