सियासी संयुक्त परिवारों का योगदान

सियासी संयुक्त परिवारों का योगदान

कभी भारत में संयुक्त परिवार का चलन था। दुनिया के समाजशास्त्र के विद्वान् ताज्जुब करते। यह कैसे संभव है? बाप, भाई, उनके परिवार आदि सब एक साथ रहे रहे हैं? कमाऊ हों या बेरोजगार, सबको खाने-पीने और सिर पर छत की सुविधा है। घर का बड़ा परिवार का मुखिया या कर्ता है। उसका निर्णय सर्वमान्य है। सब उसकी बात सुनते ही नहीं, मानते भी हैं। कोई विद्रोह करे तो उसकी थू-थू घर में तो होनी-ही-होनी, समाज में भी हो। शादियाँ भी होतीं तो प्रेम विवाह न होकर दो परिवारों का मिलन होता। बेटे या बेटी का विवाह उसके माँ-बाप तय करते, घर के मुखिया की रजामंदी से। विवाह सफल हो, न हो, पर कानूनी तलाक की घटनाएँ इक्की-दुक्की ही होतीं। मुमकिन है कि इस प्रक्रिया में कुछ की जिंदगी मन-ही-मन जल-भुनकर बीते, कुछ की खुश होकर। जो भुनते, वे इसके लिए घर के बुजुर्ग को दोष न देकर, अपनी किस्मत को देते। घर के मुखिया को पता लगे तो बुरा मानने की संभावना है, तकदीर तो ऐसे ही रूठी हुई है और क्या कर लेगी?

आर्थिक कारणों से समाज में संयुक्त परिवार विघटन के कगार पर है। इतना ही नहीं, शहर क्या, गाँवों तक में, ब‌िखर चुका है। पश्चिम के प्रभाव से अब ‘हम दो हमारे दो’ का जमाना आ गया है। परिवार अब ‘न्यूक्लियर’ है। कुछ शादियाँ घर के बुजुर्ग तय करते हैं, कुछ प्रेम-विवाह भी होते हैं। यह कहना कठिन है कि किस प्रकार के अधिक सफल हैं? इसके लिए आवश्यक है कि विवाहों में संबंध-विच्छेद का कोई सर्वेक्षण करे, तब ही वैज्ञानिक आधार पर हम कह सकते हैं कि कौन सा विवाह टिकाऊ है, कौन सा अस्थायी? यों समाज में संयुक्त परिवार के ऐसे अवशेष अब भी शेष हैं। यों यह भी सच है कि इधर परिवारों में पारंपरिक क्लेश और दुर्भावना प्रगति पर है। रिश्ते केवल आर्थिक निर्भरता के रह गए हैं, वरना उन्हें निभानेवालों का ऐसा टोटा क्यों पड़ता? अब राम-लक्ष्मण या श्रवणकुमार केवल अतीत की किंवदंतियाँ हैं। न ऐसे भाई मिलते हैं, न ऐसे पुत्र। त्याग ऐसे शब्द अब सिर्फ शब्दकोष की शोभा बढ़ाने हेतु बचे हैं, नहीं तो वास्तव में वे अर्थहीन हो चुके हैं। दिखने को भले कोई त्याग का ढोंग रचे, पर होता वह भी स्वार्थ प्रेरित है।

यदि कोई सोचे तो निष्कर्ष निकाले कि संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के लिए आर्थिक सुरक्षा का कवच भी था। यदि कोई बेरोजगार रहता तो रोजगार पाने तक या कहीं नौकरी लगने तक उसके खाने-पीने और सोने का प्रबंध था। मुखिया या कर्ता हमदर्दी के साथ इस कठिन समय में उसकी मदद करता, शारीरिक देखभाल से लेकर मानसिक ढाढ़स बँधाने तक। पूरा परिवार सक्रिय होता, उसे नौकरी या रोजगार दिलाने के प्रयास में। उनके सामूहिक प्रयास सफल भी होते।

वर्तमान की मुख्य समस्या निपट अकेलापन है। आदमी परिचित के मध्य हो या अजनबी के, यथार्थ में रहता अकेला है। सुख के उत्सव के सब साझीदार हैं, दुःख के कष्ट का कोई नहीं। संयुक्त परिवार का कोई सदस्य शायद ही ऐसे असह्य‍ अकेलेपन का शिकार हो? उसके घर की सामूहिक सहानुभूति ही उसे अकेला न होने देती। कर्ता अपनी निजी पसंद या नापसंद के बावजूद परिवार के हित के प्रति सजग रहता है। संयुक्त परिवार की खूबी है कि उसकी चहल-पहल हर पल सदस्य को व्यस्त रखती है। उसके पास इतनी फुरसत ही नहीं है कि वह अकेलापन महसूस करे। फिर भी कुछ अपवाद तो होना ही होना। हर नियम के साथ होते हैं। फिर यह तो केवल एकमत है, धारणा है। बिना किसी सबूत के एक सम्मति है। कौन कहे, सही है कि गलत। यों भी न्यूक्लियर परिवार के समय में संयुक्त परिवार से क्या लेना-देना? लोग वर्तमान के प्रति भले शिकायत करें, तुलना का हमेशा अतीत समय के स्वर्ण काल सा नजर आता है।

यों संयुक्त परिवार समाज से लुप्त होते-होते भारतीय सियासत में आ गया है। वह भारतीय राजनीति का वर्तमान है। क्या पता, आज इसीलिए जनता उससे असंतुष्ट है? सामाजिक और सियासी संयुक्त परिवार में एक मूल अंतर है। समाज में कर्ता या मुखिया आयु में वरिष्ठता के नाते निर्धारित होता है, सियासत में परिवार का मुखिया सफलता के आधार पर तय होता है। वह छोटा हो या बड़ा, उसी की चलती है। भाई, भतीजे, चाचा, ताऊ आदि सब उसके निर्णय को मानने को विवश हैं, इसलिए, क्योंकि वह सफल है। सफलता के ढेरों साथी हैं तो यह तो उसका अपना परिवार है, यहाँ तो उसका चलना ही चलना। इसके अलावा उसकी जात उसका विस्तृत परिवार है। पार्टी फंड के नाम पर हर नौकरी की एक निश्चित ‘दर’ है। वह दो-तीन लाख से शुरू होकर, नौकरी के महत्त्व के अनुसार, ऊपर जाती है। बाबू की दर पुलिस के सिपाही से अधिक है। इस कारण दोनों शासकीय जीवन भर वसूली में जी भर के जुटते हैं। यहाँ भी वह सफल नेता अपने जात भाइयों को ‘डिसकाउंट’ देकर जनता यान‌ी अपनी जात से जुड़ता है। उसका प्रचार-तंत्र उसे जनता और जमीन से जुड़ा नेता कहने से बाज नहीं आता है।

दरबार कभी राजा-बादशाह का होता था। आज के छुटके-बड़े नेता कौन किसी राजा से कम हैं? उनका भी चमचा-संचालित जन दरबार लगता है। ‘जन’ तो जनतंत्र को एक रियायत है वरना उनका जन-दरबार उनकी राजकीय शान-शौकत का प्रदर्शन मात्र है। हाथ जोड़े, खीसें निपोरे सुरक्षा से घिरे, वह भीड़ जुटने के बाद पधारते हैं। प्रशंसा के पुल बाँधकर चमचे उनकी वास्तविक जनसेवा के कल्पित किस्से सुनाकर उन्हें श्रेष्ठ बनाने के पुण्य कर्म में लगन से लगे हैं। कोई सुने तो उसे संदेह हो कि यह नेता कहीं दानवीर कर्ण का अवतार लेकर, इस घटिया सियासी धंधे में कैसे और कहाँ से आ गया? जनता उनकी चरण-रज माथे पर लगाकर अपनी शिकायतों के निराकरण की अरजी प्रस्तुत कर रही है। नेता उसे अपने दिव्य हाथों से स्वीकार कर उसे निजी सचिव को सौंपते जा रहे हैं, यह मंत्र उच्चारित करते कि ‘काररवाई जल्दी होगी, आप आश्वस्त रहें।’ दीगर है कि कई ‘आश्वस्त’ रहते प्राण भी गँवा चुके हैं। कई भुक्तभोगियों की मान्यता है कि आश्वस्ति का जहर बाँटने में नेताजी का कोई मुकाबला नहीं है। कुछ का मत है कि यही क्या कम है कि दुःखी और पीड़ितों को नेता द्वारा मुसकान का एक पल देना ही किस उपलब्धि से कम है? सामाजिक कल्याण में नेता का यह मौखिक अवदान प्रशंसा-योग्य है। आम त्रासद जीवन के उपन्यास में खुशी के इस अल्प अध्याय के सृजन में उनके योगदान से कौन इनकार कर सकता है? वह बातों में कर्ण के ढोंगी अवतार हैं और तुच्छ कर्मों की साजिश में शकुनि के।

संयुक्त परिवार से लेकर आजतक दहेज विवाह की एक निंदनीय, पर स्वीकृत परंपरा रही है। हमारे एक मित्र दहेज के मुखर आलोचक रहे हैं। वह कहते कि यह क्या कोई सोनपुर का मवेशी मेला है, जहाँ उचित कीमत लगाकर कोई मनचाहा जानवर खरीद लो? शादी के बाजार में दूल्हे की खरीद का यही चलन है। रोजगार के अनुसार दूल्हों की तुलनात्मक कीमतें हैं। भारतीय सिविल सेवा के बिकाऊ अधिकारी का मूल्य इंजीनियर या डॉक्टर से कहीं अधिक है। लड़की खुद प्रशासनिक सेवा में हो या डॉक्टर हो तब शायद कुछ छूट मुमकिन है। अपनी दोनों लड़कियों के विवाह तक वह ऐसे ही किस्से सुनाते रहते। वहीं जब लड़के के विवाह की बारी आई तो वह दहेज के प्रबल समर्थक हो गए। वह कहते कि लड़के को इस योग्य बनाया, खर्चा किया, सुशीलता के संस्कार दिए। अब नई गृहस्थी बसाने और उसे चलाने के लिए हम धन कहाँ से लाएँ? यह जिम्मेदारी कन्या पक्ष की है।

दहेज तो वर-वधू दोनों की सहूलियत के लिए है। विवाह एक सांस्कारिक यज्ञ है। इसमें कन्यापक्ष की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी ही होती। सियासी महापुरुषों का भी शायद यही विचार है। तभी तो प्रत्याशी को सीट की कन्या से विवाह के पूर्व वह टिकट के ऐवज में लाखों-करोड़ों वसूलते हैं। यह सियासी स्टाइल में सीट का दहेज है। कई स्वनाम-धन्य तथाकथित जनसेवक और उनके विश्वासपात्र इस चक्कर में करोड़पति बन चुके हैं। कोई माने, न माने, आज भी इस देश के चुनाव जात-आधारित हैं। पर प्रत्याशी की दहेज-प्रक्रिया में अगड़े-पिछड़े का कोई फर्क नहीं है। दहेज की सियासी वसूली सबका समान लक्ष्य है। इसमें जो जितना झटक सके, झटकता है।

कुछ अंग्रेज विद्वानों के अनुसार भारत हिंदू-बहुल न होकर विभिन्न जातियों का समूह है। जातियों के सफल सियासी परिवार पारस्परिक गठजोड़ से भारतीय प्रजातंत्र के निर्धारक हैं। हमें ऐसे नेताओं का आभार मानना चाहिए। इन्हीं के कारण हमने लोकतंत्र की अवधारणा और परिभाषा को एक नया और मौलिक आयाम दिया है। अब यह केवल पारंपरिक प्रजातंत्र न होकर, विभिन्न जातियों के सफल नेताओं का सम्मिलित परिवार तंत्र है। इसमें हर जात की अपने आप भागीदारी है। भारत अपनी जनसंख्या के कारण संसार का सबसे बड़ा जनतंत्र है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की तुलना आबादी में यूरोप से की जा सकती है। अनिवार्य है कि अभी वोट देनेवालों की पूरी संख्या साक्षर नहीं है। फिर भी उनके पास सियासत के सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं है। वह किसी राजनीति के पी-एच.डी. को लोकतंत्र के विषय में शिक्षित करने में सक्षम हैं। इनका इतना प्रबल विश्वास लोकतंत्र में है कि यह अपने मत के अधिकार का पूरी निष्ठा से प्रयोग ही नहीं करते, अपने सामूहिक वोट से सत्ता के निर्णायक भी हैं। वहीं शिक्षित और समृद्ध वोट देने से बचते हैं। लाइन में कौन लगे? अब उन्हें इसकी आदत भी नहीं रह गई। यों भी उनके एक वोट से कौन सत्ता का भविष्य तय होगा?

भ्रष्टाचार उन्मूलन कोई भी दल समर्थ है करने में? सब सदाचार की बातें करने में जी-जान लगाते हैं। अंदर-ही-अंदर उनको भी अपनी विवशता का अहसास है। वह जानते हैं कि सरकार की कार पानी से नहीं, पैसे से चलती है। वेतन सिर्फ इसलिए है कि सरकार का इंजिन चालू रहे। उसे गति पकड़नी है, बाबू से अफसर, फिर मंत्री तक का सफर करना है तो बिना पैसे के पेट्रोल के यह नामुमकिन है। समझदार और अनुभवी एक रक्षा सौदे या किसी बड़े करार में लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा करने में माहिर हैं। उनकी सदाचार की छवि है। समाज में सम्मान है, आदर है, इज्जत है। अधिकतर ऐसे शासकीय बंदे भी हैं, जो सैकड़ों-हजारों के टुच्चे भ्रष्टाचार में व्यस्त हैं।

भ्रष्टाचार निरोधक अभियान में अधिकतर यही सरकार के हत्थे चढ़ते हैं। यही सजा पाते हैं, बदनाम होते हैं, जेल जाते हैं। इन हालात में भ्रष्टाचार समाप्त हो तो कैसे? पढ़ा-लिखा इनके लिए क्यों क्यू में लगकर अपना वक्त और वोट जाया करे? जहाँ तक समृद्ध का सवाल है, वह हर दल में चंदा देता है। वह वोट दे न दे, हर पार्टी में उसके हमदर्द हैं। उसके काम का नकद-तंत्र हर व्यवस्था पर हावी है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, जोर ऐसे समृद्धों का ही चलता है। कुछ प्रबुद्ध यही नतीजा निकालते हैं कि यही पारिवारिक पूँजीवाद सुविधा के लिए समाजवाद कहलाता है। जनता को ठगने के लिए नेता किसी भी वाद का नाटक करने को प्रस्तुत है। रोज नए-नए जनप्रिय मुखौटे लगाए नेता ठग हर चुनाव के दौरान सार्वजनिक मंच पर उछल-कूद करते नजर आते हैं। और कुछ हो न हो, जनता का मनोरंजन तो हो ही जाता है। एक सार्वजनिक तथ्य यह भी है कि जनता जानती है कि शासन किसी भी दल का हो, वादों और आश्वासनों का हश्र सिर्फ टूटना है। अब वह न इससे निराश होती है, न उसे क्रोध आता है। उसे सबकी वादा-खिलाफी की आदत पड़ चुकी है।

हमारे नेताओं का हम सबको कृतज्ञ होना चाहिए। उन्होंने पारंपरिक लोकतंत्र की अवधारणा में नया, मौलिक और अनूठा योगदान दिया है, उसे पारिवारिक प्रजातंत्र बनाकर। वह संसार में कितना लोकप्रिय होता है, यह भविष्य का विषय है। इसके बारे में ज्योतिषी ही कुछ प्रकाश डालने में समर्थ हैं, अथवा तर्क-कुतर्क में सिद्ध बुद्धिजीवी। यों उनकी वस्तुनिष्ठता पर हमें संदेह है। उनकी भी उस दल के साथ है, जिसने उन्हें पद, कद और नकद दिया है।

९/५, राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४८४३८
गोपाल चतुर्वेदी

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